के. विक्रम राव   

कोई जब बेहूदगी करता था तो उससे आग्रह किया जाता रहा कि : ‘क्रिकेटर जैसा बनो।’ दशकों पूर्व से ऐसी ही धारणा प्रचलित थी। क्रिकेट शराफत का पर्याय रहा। शऊर, सलीका, तमीज, शिष्टता आदि का। यह भद्रलोक का शौक अब फूहड़ हो गया है। सबूत चाहिये? साल भर में ही सर्वोच्च न्यायालय को दो बार झिड़कना पड़ा क्रिकेट प्रबंधन बोर्ड (बीसीसीआई) को कि: ”सुधरो, सज्जन बनो।” यह फटकार भी आई थी, क्रिकेट के जन्मस्थल मुम्बई में पले न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चन्द्रचूड से जो अगले माह भारत के प्रधान न्यायधीश होंगे।

इसी परिवेश में मृदु कन्नडभाषी रोजर बिन्नी के कल (18 अक्टूबर 2022 को) बीसीसीआई का निर्विरोध अध्यक्ष चयनित हो जाने आस बंधी है कि क्रिकेट के अच्छे दिन बहुरेंगे। शालीनता दोबारा प्रादुर्भूत होगी। इस राजसी क्रीड़ा में बादशाहत लौटेगी, जैसे अन्य ‘राजाओं’ में आम की मिठास तथा गुलाब में सुवास। रोजर चार दशकों से क्रिकेट की दुनिया में सभी के चहेते रहे, अजातशत्रु रहे। लोकप्रिय भी। भले ही प्रदर्शन, आकलन और आंकड़ों की तुलना में वे अधिक नहीं ठहर पायें।

वे सलामी बल्‍लेबाज रहे, पर आठवें अथवा आखिर में भेजे जाने पर विरोध कभी भी नहीं किया। अपना चुनाव परिणाम घोषित होते ही उन्होंने सौरव गांगुली से सहयोग मांगा। गिले-शिकवे कतई नहीं किये। बस खिलाड़ियों के घायल होने से रोकने को तथा ग्राउंड की पिच सुधारने की बात की। इसे अपना सरोकार बताया। उनका संकेत था तेज बॉलर जसप्रीत बुमराह की ओर, जो आस्ट्रेलिया में विश्वकप की टीम से कमर दर्द की वजह से बाहर हो गये।

बिन्नी की सादगी का यह आलम रहा है कि बंगलौर छावनी में अपने बेंसन टाउन आवास से मेट्रो रेल से कब्बन पार्क तक यात्रा कर कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन कार्यालय जाते रहे। शेष समय अपने बान्दीपुर फार्म पर गुजारते है। वहां आम और नारियल उगाये। हाथी और तेंदुओं के आतंक से वहां भिड़ते रहते है। वे 2000 से (तब 19 वर्ष से कम वालों की टीम में चयनित थे) खेलते रहे है। उनके जीवन का वह पल यादगार रहा जब लंदन में विश्वकप में कपिल देव (1983) की कप्तानी में उन्होंने विकेट झटकने का कीर्तिमान रचा था। इसके लिये वे सदैव ​चर्चित रहे।

वे चयन समिति के सदस्य थे जिसमें उनके पुत्र स्टुअर्ट पेश हो रहे थे। रोजर कमरे से बाहर निकल गये ताकि पक्षपात का आरोप न लगे। गौर कीजिये सुनील गावस्कर ने रोहन और तेंदुलकर ने अर्जुन को बढ़ाने की किस कदर जद्दोजहद की थी। रोजर बिन्नी की तटस्थता और निष्पक्षता का नमूना रहा कि पांच सदस्यीय राष्ट्रीय चयन समिति की वे सर्वसम्मत पंसद थे। जबकि कुछ समय पूर्व वरिष्ठ खिलाडी मोहिन्दर अमरनाथ को बोर्ड ने हटाकर संदीप पाटिल को चयन समिति का अध्यक्ष नामित किया था।

बिन्नी के बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के पूर्व की नौटंकी का विवरण जानना भी आवश्यक है। हालांकि क्रिकेट बोर्डों में प्रदेश स्तर पर प्रादेशिक राजनेताओं की बन्दरबाट बढ़ती जा रही है। उदाहरणार्थ बिहार क्रिकेट संघ में लालू पुत्र तेजस्वी की, कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला की जिन्हें हाल ही में सीबीआई ने फर्जीवाडे के आरोप में जिरह के लिये तलब किया था। यूपी वालों के प्रसंग में लोगों को 1975 का मोहन नगर (गाजियाबाद) में रणजी ट्रॉफी का फाइनल हमेशा याद रहेगा। बिन्नी की कर्नाटक टीम ने यूपी को हराया था। तब गुंडप्पाराज विश्वनाथन ने दोहरा शतक लगाया था। बीएस चन्द्रशेखर ने दोनों पारी में कुल बारह  विकेट झटके थे।

एक तरफ जहां रोजर बिन्नी बोर्ड के अध्यक्ष के निर्विवाद रूप से बिना हिचक के मुखिया चुने गये, वहीं पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी द्वारा इस अत्यधिक रुचिकर खेल में प्रदेशवाद का जहर घोलने की कोशिश की हर राष्ट्रप्रेमी भारतीय को बेहिचक कठोर शब्दों में भर्त्सना करनी चाहिये। ममता ने नरेन्द्र मोदी के लिये अपशब्द इस्तेमाल किये। उनके गृहमंत्री अमित शाह के पुत्र जय अमित शाह पर सौरव गांगुली को हटाने का दबाव डालने का जिक्र किया। कारण? सौरव का ‘अपराध’ था कि उन्होंने भाजपा का सदस्य बनने से इनकार कर दिया था।

ममता की मांग थी कि सौरव को पुन: अध्यक्ष न चुनना बंगाल के गौरव पर हमला है। मानो यह भारत नहीं बंगाल क्रिकेट बोर्ड हो। क्रिकेट सदैव सियासत से ऊपर रखा जाता रहा है। भले ही राजनेता राजीव शुक्ला सरीखे वोट का दांव खेलते रहे। ऐसा कानून नहीं है कि राजनेता बोर्ड में न रहे। महाबली शरदचन्द्र गोविन्दराव पवार (29 नवम्बर 2005) ने जगमोहन डालमिया को हराया था। खुद अध्यक्ष बने थे। उनके चेले प्रफुल्ल पटेल तो फुटबाल फेडरेशन में धांधली पर सर्वोच्च न्यायालय से  डांट भी खा चुके हैं।

अत: नीतिगत निर्णय किया जाये कि खेल को दलगत राजनीति से ऊपर रखा जाये। ममता बनर्जी को भी विचार करना पड़ेगा कि उनकी तृणमूल पार्टी बंगला के बाहर अपना जनाधार तलाशे। हर विषय को राजनीति के रंगीन चश्मे से देखने में राष्ट्र को क्षति होगी। ममता जी, क्रिकेट को कृपया खेल ही रहने दीजिये। सियासत का मोहरा न बनाइये।(मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता, सटीकता व तथ्यात्मकता के लिए लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए मध्यमत किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है। यदि लेख पर आपके कोई विचार हों या आपको आपत्ति हो तो हमें जरूर लिखें।
—————
नोट- मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected]  पर प्रेषित कर दें। – संपादक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here