हाल ही में मीडिया की एप्रोच और मानसिकता के दो बेहतरीन उदाहरण देखने को मिले हैं। संयोग से दोनों का ही लेना देना इन दिनों चल रही लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया से है। एक मामला चुनाव ड्यूटी करने वाली उत्तरप्रदेश की एक महिला सरकारी कर्मचारी से जुड़ा है और दूसरा सुरक्षा बलों के उन जवानों से जिन पर मतदान को निष्पक्ष और शांतिपूर्ण ढंग से कराने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है।
पहले उस महिला कर्मचारी की बात जिसके फोटो और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गए हैं और जिसके बारे में तमाम टीवी चैनल अलग-अलग कार्यक्रम/इंटरव्यू चला रहे हैं। दरअसल लखनऊ में 6 मई को हुई वोटिंग के दौरान हाथ में ईवीएम लेकर जा रही पीली साड़ी वाली एक महिला कैमरे में कैद हो गई और उनका फोटो सोशल मीडिया पर डाल दिया गया। उसके बाद तो मानो कमेंट्स की बाढ़ सी आ गई।
खोजबीन हुई तो पता चला कि वे रीना द्विवेदी हैं और लखनऊ में पीडब्ल्यूडी मुख्यालय में कनिष्ठ सहायक के पद पर काम करती हैं। चुनाव के लिए इनकी ड्यूटी लखनऊ से 40 किमी दूर मोहनलाल गंज के नगराम बूथ पर लगी थी। ईवीएम ले जाते हुए उनकी स्टाइलिश फोटो को वायरल करते हुए लोगों ने सोशल मीडिया पर कमेंट लिखे- इनके पोलिंग बूथ पर तो सौ फीसदी मतदान होना तय है। हालांकि खुद रीना का कहना है कि उनके बूथ पर करीब 70 फीसदी मतदान ही हुआ है।
टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर इतनी अधिक चर्चा के बाद कोई ताज्जुब नहीं होगा कि रीना की जिंदगी ही बदल जाए। लोग अभी से उनसे पूछने लगे हैं कि क्या उन्हें फिल्मों या विज्ञापन के ऑफर आ रहे हैं। किसी ने सुझाव दिया है कि इनको तो चुनाव आयोग को अपना ब्रांड एंबेसेडर बना लेना चाहिए। कोई कह रहा है कि चुनाव ड्यूटी से जी चुराने वाले कर्मचारियों के लिए रीना मिसाल हो सकती हैं।
खैर.. यह सब मीडिया का कमाल है जो किसी को भी रातों रात स्टार बना देता है। लेकिन ऐसा करते समय भी उसकी निगाह स्टाइल और ग्लैमर पर ही रहती है। उन लोगों पर उसकी नजर नहीं पड़ती या कभी कभार ही पड़ती है जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में जान हथेली पर लेकर चुनाव में सुरक्षा जैसे काम को अंजाम देते हैं।
रीना द्विवेदी की स्टोरी तो इसलिए सबकी नजर में है क्योंकि हर कोई उसे शेयर कर रहा है, लेकिन कल मेरी नजर ऐसी ही एक और स्टोरी पर गई जिस पर शायद ही लोगों का ध्यान गया हो। हालांकि वह स्टोरी भी चुनाव ड्यूटी से ताल्लुक रखने वाले लोगों की है। समाचार वेबसाइट ‘द प्रिंट’ में अनन्या भारद्वाज ने इस स्टोरी में चुनाव ड्यूटी पर जा रहे सीआरपीएफ और आरपीएफ के जवानों के साथ केरल के कन्नूर से बिहार के मुज़फ्फरपुर तक की 2500 किमी यात्रा का आंखों देखा हाल लिखा है।
छह राज्यों से गुजरते हुए चार दिनों में तय होने वाली इस दूरी के सफर के दौरान जो देखने को मिला वह चुनावी बतोलेबाजी करने वालों को जरूर जानना चाहिए। सीआरपीएफ के 46 साल के डिप्टी कमांडेंट राजेश डोगरा के नेतृत्व में विशेष ट्रेन संख्या 729 में 977 जवान सफर कर रहे थे और उन्हें चुनाव के अंतिम तीन चरणों में सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
अनन्या लिखती हैं- ट्रेन चली ही थी कि डोगरा के स्मार्ट फोन पर एक वीडियो कॉल आया, दूसरी तरफ कोयंबटूर के अस्पताल में भरती उनकी दस साल की बेटी थी जो फेफड़े के संक्रमण से पीडि़त थी। वे बेटी को सांत्वना दे ही रहे थे कि उनका दूसरा फोन घनघना उठा, यह सीआरपीएफ के कंट्रोल रूम से था,मजबूरन उन्हें बेटी का फोन यह कहते हुए बंद करना पड़ा कि मैं बाद में बात करता हूं। कंट्रोल रूम को उन्होंने ट्रेन और जवानों की स्थिति के ब्योरे से अपडेट कराया।
ट्रेन में आरपीएफ के जवान नागेंद्रप्पा भी हैं, वे इसलिए खुश हैं कि पिछले 23 सालों की ड्यूटी में कभी उन्होंने स्लीपर क्लास में यात्रा नहीं की। हमेशा खड़े खड़े या कहीं इधर उधर टिककर सफर किया। इस बार भी उनकी चुनाव ड्यूटी अहमदाबाद से शुरू हुई। वहां से 1550 किलोमीटर की दूरी तय कर वे केरल पहुंचे थे। 72 लोगों की क्षमता वाली ट्रेन की सामान्य बोगी में वे कुल 92 लोग थे और उनके साथ था 4,000 किलो सामान जिसमें निजी वस्तुओं के अलावा हथियार, राशन, खाना पकाने के उपकरण और बिस्तर आदि शामिल थे। नागेंद्रप्पा बोले विशेष स्लीपर ट्रेन में यात्रा तो हमारे लिए लक्जरी है।
बीएसएफ के जवान तेजबहादुर जैसा हाल न हो जाए, इस डर से अपना नाम छिपाते हुए राजस्थान के एक जवान ने कहा- हमारे रिजर्वेशन कभी कन्फर्म नहीं होते। हमें टॉयलेट के बाहर की जगह पर बैठकर ही यात्रा करनी होती है। वही हमारी 73 नंबर सीट होती है। कुल 72 लोगों की क्षमता वाली बोगी में 73 नंबर की सीट? उस जवान का तंज हिला देने वाला था।
यात्रा के दूसरे दिन सुबह आठ बजे डोगरा काफी नाराज थे, क्योंकि गोवा के मडगांव में तड़के तीन बजे खाने के मात्र 500 पैकेट डिलीवर किए गए। यानी जवानों की संख्या से लगभग आधे। इसी दौरान एक जवान ने सूचना दी- ‘सर, ट्रेन में पानी नहीं है और लंच पैकेट का खाना खराब हो चुका है।’ अनन्या लिखती हैं- ट्रेन को चार दिन और तीन रातों के दौरान 2,500 किलोमीटर की दूरी तय करनी है और दूसरे दिन ही पानी खत्म हो गया है। तापमान 42 डिग्री पहुंच चुका है, शौचालयों में गंदगी भरी है और लंच पैकेट से बदबू आ रही है, पूरे कोच में दुर्गंध फैली हुई है…।
ट्रेन की यह कहानी बहुत लंबी है और जवानों के जाने कितने ही कष्टों से रूबरू कराती हुई बताती है कि इस लोकतंत्र को टिकाए रखने में पता नहीं कितने लोगों की जाने कितनी ही आहुतियां पड़ी हैं। लेकिन उन पर शायद कभी किसी का ध्यान नहीं जाता। वहां न सत्ता की चांदनी है और न ही स्क्रीन का ग्लैमर… है तो बस ड्यूटी पूरी करने का जज्बा…
चुनावी हो हल्ले और गाली गलौज से फुरसत मिल जाए तो ऐसी स्टोरी जरूर पढ़नी चाहिए, पता तो चले कि कौनसी पत्रकारिता हो रही है, किसके लिए हो रही है… शायद कहीं से सुनाई दे, भाई पीली साड़ी के साथ इस पीड़ा को भी देख…