क्‍या अब चड्डी और चमड़ी के रंग पर वोट मांगे जाएंगे?

आज मैं एक ऐसे मुद्दे पर बात करना चाहता हूं जिसने भारत के राजनीतिक मानस में एक नए किस्‍म के वायरस का प्रवेश हो जाने के सं‍केत दिए हैं। मूल रूप से यह मुद्दा चुनावी रैलियों और सभाओं में नेताओं द्वारा इस्‍तेमाल की जाने वाली भाषा से ही जुड़ा है। आप पूछ सकते हैं कि इस मामले को इतना घसीटा जा चुका है कि अब इसमें बचा ही क्‍या है? लेकिन मुझे लगता है भारतवासियों को अभी भाषा के साथ-साथ बौद्धिक दारिद्र्य के और ब्‍लैक होल देखना बाकी हैं।

अभी तक हमने चुनाव में कई तरह की गालियां सुनीं, कई तरह के गिरे पड़े बयान सुने, लेकिन अपने मध्‍यप्रदेश के ही इंदौर में शुक्रवार को जो हुआ उसे मैं आजाद भारत के चुनावी इतिहास का सबसे अधिक गिरा हुआ, सबसे गंभीर और सबसे ज्‍यादा चिंता में डालने वाला बयान मानता हूं। यह बयान बताता है कि भारत के चुनाव में धर्म, पंथ, संप्रदाय, जाति, वर्ग, वर्ण के साथ साथ रंगभेद ने भी प्रवेश कर लिया है। यह चुनाव के ‘भाषायी आक्रांताओं’ के दिमाग की नई उपज है।

इंदौर में चुनावी सभा लेने आए पंजाब के मंत्री नवजोतसिंह सिद्धू ने कहा-‘’ये कांग्रेस देश को आजादी देने वाली पार्टी है। मौलाना आजाद की पार्टी है, महात्मा गांधी की पार्टी है। उन्होंने गोरों से आजादी दी थी और तुम इंदौरवालों अब ‘काले अंग्रेजों’ से इस देश को निजात दिलाओगे। इन चोरों से इन चोर चौकीदारों से इस देश को निजात दिलाओगे।’’

मुझे लगता है कि सिद्धू नाम के इस राजनीतिक मसखरे को खुद पता नहीं होगा कि वह बोल क्‍या रहा है? वैसे इस व्‍यक्ति ने चुनावी सभाओं में पहले भी कम विवादास्‍पद भाषण नहीं किए लेकिन इंदौर में दिया गया बयान समूचे भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन और भारतीय लोकतंत्र को कलंकित करने वाला है।

सिद्धू ने अपने बयान में मौलाना आजाद और महात्‍मा गांधी का नाम लिया लेकिन उन्‍हें पता ही नहीं है कि भारत की आजादी के आंदोलन की आधार भूमि ही गांधी ने रंगभेद विरोध को बनाया था। रंगभेद के चलते दक्षिण अफ्रीका में हुए अनुभवों ने ही उनमें वो बीज पैदा किया जो भारत आकर स्‍वतंत्रता आंदोलन का वटवृक्ष बना। गांधी को आजाद भारत ने तरह-तरह से अपमानित और कलंकित किया है, लेकिन मुझे लगता है कि आजादी के 72 साल बाद देश की सरकार चुनने के लिए काले गोरे की शब्‍दावली का इस्‍तेमाल, गांधी को देश से तिलांजलि देने जैसा है।

दुर्भाग्‍य देखिए, हम इस चुनाव में चड्डी के रंग से होते हुए चमड़ी के रंग तक आ गए हैं। सिद्धू ने जो कहा उसे भारतीय राजनीति की नई गिरावट के रूप में देखा जाना चाहिए। सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्‍या अब राजनीतिक दल मतदाताओं या प्रतिद्वंद्वी प्रत्‍याशियों की चमड़ी के रंग के आधार पर वोट मांगेंगे। क्‍या अब देश एक नए राजनीतिक और सामाजिक विभाजन का आधार बनेगा कि काली चमड़ी वाले एक तरफ और गोरी चमड़ी वाले एक तरफ?

आखिर ये कौनसी मानसिकता है? और हैरानी की बात देखिए कि इस पर कोई नहीं बोल रहा। सबने अपनी सुविधा के अनुसार सिद्धू के बयान को पचा लिया है। सवाल मोदी को काला और राहुल को गोरा कहने का नहीं है और न ही इस बात का है कि मोदी को उनके काले रंग के कारण वोट मिलेंगे या राहुल को उनके गोरे रंग के कारण। सवाल यह है कि यह नस्‍ली भावना चुनाव में आई ही कैसे?

भारत में चमड़ी के रंग को भले ही राजनीतिक मुद्दा न माना जाता हो लेकिन दुनिया भर में यह बहुत बड़ा मुद्दा है। इस तरह की भाषा का यदि अमेरिका या ब्रिटेन में इस्‍तेमाल होता तो बवाल मच जाता। क्‍योंकि वहां ऐसी नस्‍ली टिप्‍पणियां करना बहुत बड़ा सामाजिक अपराध है। लेकिन हमारे यहां एक राजनीतिक मसखरा लोगों को चुटकुले की तरह ऐसी टिप्‍पणियां बड़ी आसानी से सुनाकर चला जाता है और हम चुप रहते हैं।

अगर काले गोरे का ही मामला है तो क्‍या अब राजनीतिक दल उम्‍मीदवारों का चयन उनकी चमड़ी के रंग के आधार पर करेंगे? क्‍या पार्टियां गोरों को ज्‍यादा और कालों को कम टिकट देंगी, या बिलकुल नहीं देंगी? क्‍या अब मतदाताओं को शराब और पैसा बांटने के साथ साथ फेयरनेस क्रीम भी बांटी जाएगी? क्‍या अब चुनावी वायदों में लोगों को गोरा कर डालने का वायदा भी शामिल होगा?

सिद्धू ने कहा- हमें इन ‘काले अंग्रेजों’ को हटाना है। चलिए मान लेते हैं, हम इन ‘काले अंग्रेजों’ को हटा देंगे, लेकिन उनके स्‍थान पर लाएंगे किसे? क्‍या उनके स्‍थान पर हम फिर से गोरे अंग्रेजों की सत्‍ता स्‍थापित करना चाहते हैं? भारत को गुलाम बनाना चाहते हैं? और गोरे अंग्रेज नहीं तो फिर सिद्धू चाहते होंगे कि‘गोरे भारतीय’ सत्‍ता पर काबिज हों। ऐसे में भी फिर उन्‍हें यह बताना होगा कि वे ‘गोरे भारतीय’ कौन हैं जिन्‍हें वे सत्‍ता पर काबिज देखना चाहते हैं। और क्‍या वे भी अपनी चमड़ी के रंग के कारण सत्‍ता में आना चाहते हैं या अपनी नीतियों और काम के आधार पर?

माफ कीजिए, इस देश को पहले ही बहुत सारे रंगों में बांटने की कोशिश हो चुकी है। रंगों के उस बंटवारे या रंगों की उस रंजिश ने कितना कत्‍लेआम करवाया है यह किसी से छिपा नहीं है। हो सकता है सिद्धू को अपनी चमड़ी के रंग या अपने आसपास के लोगों की चमड़ी के रंग पर बड़ा गुमान हो लेकिन न तो इस देश में राम और कृष्‍ण का रंग गोरा था और न गांधी और लोहिया का।

इस देश में जितने भी महापुरुष हुए हैं वे महापुरुष इसीलिए कहलाए क्‍योंकि उनका रंग न काला था न गोरा बल्कि उनका रंग भारतीय था। यहीं की मिट्टी से उपजा हुआ, यहीं की मिट्टी में रंगा हुआ। ये जो लोग आज चड्डी से लेकर चमड़ी के रंगों की बात कर रहे हैं वे दरअसल इस भारत की मिट्टी और उस मिट्टी के रंग का मखौल उड़ा रहे हैं। ऐसे मसखरों की सही जगह राजनीति का मंच नहीं गली का वह कूड़ेदान है जिसमें पड़ी हुई चीज का रंग कोई नहीं देखता।

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