रमेश शर्मा

देश की राजधानी दिल्ली से अक्सर क्रूरतम घटनाओं के समाचार आते हैं। कभी बेटी तंदूर में जलाई जाती है, कभी निर्भया कांड होता है, कभी छत्तीस टुकड़े किये जाते और अब कार में फँसा कर 12 किलोमीटर तक घसीटा गया है। ये घटनाएँ केवल संबंधित परिवारों को ही दर्द में डुबोने वाली नहीं हैं अपितु पूरे समाज और राष्ट्र को झकझोरने वाली हैं और विचार के लिये विवश कर रहीं हैं कि ये क्यों घट रहीं हैं और क्या इनका कहीं अंत होगा?

दिल्ली के कंझावला की ताजा घटना न्यू ईयर पार्टी के बाद घटी। इसमें अंजलि नामक युवती को कार से 12 किलोमीटर तक घसीटा गया। उसका अंग अंग छिल गया था। शरीर पर त्वचा नाममात्र की बची थी। घटना में रोज नये खुलासे हो रहे हैं। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि वास्तव में उस रात क्या घटा था। घटना में दो गूढ़ पहेलियाँ हैं उनके सुलझने के बाद ही सत्य सामने आ सकेगा।

पहला रहस्य तो यही कि होटल से अंजलि अकेली नहीं निकली थी। उसके साथ एक लड़की निधि भी थी। होटल के बाहर दोनों में कुछ कहा सुनी हुई फिर दोनों साथ रवाना हुईं। यदि एक ही स्कूटी पर दोनों साथ रवाना हुई थीं तो निधि कैसे सुरक्षित रही उसे चोट भी नाममात्र की है। और वह घटना के बाद गायब क्यों और कहाँ हुई? वह स्वयं सामने नहीं आई। उसे सीसीटीवी कैमरों की सहायता से खोजा गया।

दूसरी पहेली है कि अंजलि कार के नीचे कैसे पहुँची। चूँकि कार के तल और जमीन के बीच की ऊँचाई केवल सत्रह सेन्टीमीटर थी। इतने कम अंतर में कैसे स्कूटी सवार कोई युवती दुर्घटना के बाद फँस सकती है। इन पहेलियों को पुलिस सुलझा रही है। हो सकता है कि इन पंक्तियों के पाठकों तक पहुँचने तक कुछ सुराग सामने आ जाँये। पर यह निश्चित है कि ये घटना अंतिम नहीं हैं। न तो बेटियाँ सावधान होंगी और न बेटों को समझ आने वाली। इसके लिये प्रत्येक परिवार को, समाज को और सरकार तीनों को अपने-अपने स्तर पर सोचना होगा।

ऐसी घटनाएँ केवल सनसनी खेज समाचार होती हैं। न माता पिता सतर्क होते हैं न समाज जागरूक होता है। इसीलिए एक के बाद दूसरी घटना और अधिक क्रूरतापूर्ण घटती है। दिल्ली में घटने वाली केवल ये चार घटनाएँ ही नहीं, इनसे मिलती जुलती घटनाएँ देश भर में घट रहीं हैं। पिछले दिनों छत्तीसगढ से खबर थी। लड़की के शरीर पर पेचकस से 52 वार किये गये थे।

दिन प्रतिदिन केवल घटनाओं के आँकड़े ही नहीं बढ़ रहे। उनमें क्रूरता भी बढ़ रही है। हम इन चार बड़ी घटनाओं का क्रम ही देखें पहला तंदूर कांड, दूसरा निर्भया कांड, तीसरी छत्तीस टुकड़े, और अब कार के नीचे फँसाकर बारह किलोमीटर तक घसीटना। चारों में क्रूरता बढ़ी है। अकल्पनीय क्रूरता की इन घटनाओं का एक प्रकार है।

घटनाओं का एक दूसरा प्रकार भी है। इसी सप्ताह मध्यप्रदेश में एक घटना घटी। 58 वर्षीय एक वरिष्ठ नागरिक ने बारह साल की बच्ची को किसी बहाने बुलाया और अपनी कुत्सित मानसिकता का शिकार बनाने का प्रयास किया। ऐसी घटनाएँ भी आये दिन समाचार पत्रों में छपती हैं। मोटे तौर पर ऐसी घटनाएँ कुल तीन प्रकार की होती हैं। एक तो संपर्क बढ़ाकर, अपने मीठे और दिखावटी व्यवहार से लड़की को फँसाना फिर अपनी हवस का शिकार बनाकर हैवानियत से प्राण लेना।

लिव इन में घटने वाली घटनाएँ भी इसी श्रेणी में आती हैं। ऐसी घटनाएँ सबसे अधिक साठ प्रतिशत के आसपास घटती हैं। घटनाओं का दूसरा प्रकार है परिचितों द्वारा अल्पवयस्क बच्चियों को शिकार बनाना। ऐसी घटनाओं का प्रतिशत बीस के आसपास हैं और फिर एकतरफा प्यार में असफलता से लड़की पर हमला करने की घटनाएँ दस प्रतिशत के आसपास घटती हैं।

घटनाएँ घटतीं हैं, समाचार आते हैं, और सब अपनी दुनियाँ में खो जाते हैं। घटना पर समाज का दिखने वाला आक्रोश भी स्थाई नहीं होता है। यह सब बादलों के झौंके की भाँति आता है और चला जाता है। समाज न तो कुछ सीखता है, और न सावधान होता है। घटना के कुछ दिनों बाद समाज को यह भी पता नहीं होता कि अपराधियों को दंड मिला या नहीं और यदि मिला तो क्या मिला, पीड़ित परिवारों का क्या हुआ।

समझदार व्यक्ति और समाज वह है जो दीवार पर उभरती भविष्य की रेखाओं को समझकर सावधान हो जाये। जिस समाज और देश ने भविष्य की इन लकीरों को नहीं समझा वे इतिहास के पन्नों में सिमट गये हैं। हमें भारत में समाज जीवन में आज की युवा पीढ़ी के मन में उभर रही इन लकीरों को समय रहते समझना होगा। यह ठीक है कि इस समय विश्व में भारत की प्रतिष्ठा प्रसिद्धि बढ़ रही है पर इसके साथ समाज जीवन में आंतरिक रूप से विकृतियाँ और तीखापन भी बढ़ रहा है जिसकी झलक इन घटनाओं में दिखती है। इनके तीन प्रमुख कारण हो सकते हैं। एक तो मानवीय संवेदनाओं का ह्रास, दूसरा सामाजिक मूल्यों का ह्रास, तीसरा किसी उद्देश्य विशेष से बेटियों को फुसलाकर अपने जाल में फँसाना।

सबसे पहले हम बेटियों की ही बात करें तो यह समाधान नहीं है कि हम बेटियों को घर में बंद कर लें, उनका निकलना, घूमना- फिरना बंद कर लें। वे घर से अवश्य निकलें, अपनी प्रतिभा क्षमता दक्षता और मेधा से परिवार समाज और राष्ट्र का आधार बनें पर यह तो ध्यान रखना ही होगा कि कहाँ निकले, किससे मिलें और किस सीमा तक मिलें। परिवार और समाज दोनों को चाहिए कि वे चौतरफा दृष्टि रखें और अपनी बेटियों को सावधान करें। किसी को मित्र बनाना या किसी के साथ पार्टी करना बुरा नहीं है किंतु यह पहले समझ लेना आवश्यक है कि जिसे मित्र बनाया जा रहा है वह वास्तव में है कौन ? उसकी वास्तविकता क्या। मित्रता करने का उसका हेतु क्या है ?

स्वर्ण मृग को देखकर माता सीता धोखा खा सकती हैं। यह कथा निरर्थक नहीं है। समाज को यही संदेश देने केलिये यह कथा है कि दिखने में आकर्षक और लुभावना व्यक्ति, वस्तु या प्रस्ताव हितकर नहीं हो सकता। जीवन को संकट में डाल सकता है। जीवन का कोई निर्णय अदूरदर्शिता, अधीरता या भावुकता में न हो। भावनाओं के अतिरेक में विवेक का संतुलन रहना चाहिए। हम वातावरण नहीं बदल सकते। न किसी व्यक्ति को बदल सकते हैं। बस स्वयं सतर्क रहकर अपना दामन बचा सकते हैं। “सावधानी हटी दुर्घटना घटी” यह वाक्य केवल कहने और सुनने-सुनाने का नहीं है जीवन में उतारने का है।

कौन मित्र है यह देखा जाना चाहिए, उसके परिवार से परिचित होना चाहिए। अपने परिवार को भी उससे परिचित कराना चाहिए, और किस डिनर-पार्टी में जाना, कितनी देर रात तक घर से बाहर रहना, किसके साथ रहना जैसे प्रश्नों पर भी विचार करना चाहिए। और उचित अनुचित देखकर ही सहमति देना चाहिए। यह ठीक है कि सभी कुमित्र नहीं होते, पर यह गारंटी भी नहीं है कि आपके समीप आने वाला ‘स्वर्ण मृग’ वास्तविक है। माता पिता और परिवार को चाहिए कि वे ऐसी समझ और शिक्षा अपनी बेटियों को प्रदान करें, जिससे बेटियाँ भावुकता में न बहें। किसी के साथ अकेले जाने, रात की डिनर पार्टी में जाने या फिर बिन ब्याहे किसी के साथ रहने के निर्णय में उचित-अनुचित सोचकर ही आगे बढें।

अब दूसरी बात युवकों की। जो युवक अकेले या सामूहिक रूप से ऐसी क्रूरता कर रहे हैं। उनके द्वारा किये जाने वाले कृत्य इतने घृणित और भयानक होते हैं कि उसे परिभाषित करने के लिये शब्दकोश में इतना तीखा शब्द कोई नहीं जिसकी उपमा दी जा सके। कोई कल्पना कर सकता है कि कार के नीचे किसी जीवित युवती को फँसाकर बारह किलोमीटर तक घसीटना? इसके लिये हैवानियत शब्द भी छोटा पड़ता है, या किसी लड़की के छत्तीस टुकड़े केवल इसलिये कर दिये जाये कि वह लड़के के धर्म को नहीं अपना रहीं। यह अमानवीयता की पराकाष्ठाएँ हैं।

इन लड़कों में भी शिक्षा और संस्कार दोनों का अभाव है। जो बेटे ऐसा कर रहे हैं क्या वे अपना जीवन संवार सकेंगे? बेटियों का कष्ट तो क्रूरता के आरंभ होने से प्राणांत तक होगा पर इन बेटों का जीवन तो जेल में नर्क जैसा बीतेगा। ऐसे अधिकांश बेटे जिन्दा लाश बनते हैं और अपने माता पिता के लिए असहनीय और अकल्पनीय कष्ट का कारण बनते हैं। इसलिए बेटों के मामले में माता पिता को अधिक सावधान रहने की जरूरत है। बेटा कितना ही प्रिय हो, उसकी इच्छाएँ भले पूरी की जाँए पर इसे देखा जाना चाहिए कि वह क्या करता है, उसके सोच की झलक कैसी है, उसकी मित्र मंडली कैसी है ? वह परिवार और समाज की परंपराओं से कितना जुड़ा है।

यह हैवानियत उस देश में दिख रही है जिसमें कन्या पूजन की परंपरा है। बेटी में देवी दर्शन की कल्पना की गई है। गाँव की बेटी सबकी बेटी, गाँव की बहन सबकी बहन मानी जाती है। ऐसी परंपरा वाले देश में बेटी को तंदूर में जलाया जाये, छत्तीस टुकड़े किये जायें या कार के नीचे फँसाकर बारह किलोमीटर तक घसीटा जाये यह समाज और देश के किस दिशा में बढ़ने का संकेत है? निस्‍संदेह यह पूरे समाज और देश के लिये चिंता और लज्जा की बात है। प्रत्येक परिवार और माता पिता के सावधान होने की बात है।

दिखावट सजावट या झूठे अहंकार के प्रदर्शन के लिये बेटे को कार खरीदकर देना, अनावश्यक पैसे देना, अनावश्यक डिनर पार्टी की अनुमति देने से पहले कुछ सोचा जाना चाहिए। बालपन से उसे “न” सुनने और असहमति सहने की आदत डालना चाहिए। यदि बचपन में न सुनने की आदत पड़ गई, पिता की डाँट सहने और माँ के चाँटे की आदत है तो मानकर चलिये वह बड़ा होकर मर्यादा का बहुत उल्लंघन नहीं करेगा। बच्चों को कितनी सुविधा दी जाय इस पर भी विचार आवश्यक है।

घर से लड़कर किसी के साथ लिव इन में चले जाना या माँ की इच्छा के विरुद्ध देर रात की डिनर पार्टी में जाना जहाँ लड़कियों के लिये अब अलार्मिंग हो गया है वहीं अपनी इच्छा को बल पूर्वक अपनी मित्र पर लादना भी उनके जीवन को अंधेरे में ढकेलना ही है। जैसा इस घटना में। उन पांच लड़कों का जीवन भले बच जाये पर क्या वह जीवन होगा ? चारों ओर तिरस्कार उपेक्षा के साथ वे पाँचों युवक धरती पर बोझ ही माने जायेंगे। जो घट गया उसे सुधारा नहीं जा सकता। पर आगे के लिये सावधानी बरती जा सकती है ताकि किसी बिटिया को ऐसी क्रूर मौत न मिले, किसी बेटे का जीवन यूँ नर्क न बने।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
(मध्‍यमत)
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