अजय बोकिल
देश में महिला उत्पीड़न के मामले में कार्रवाई को लेकर हाल के वर्षों में एक बेसिक फर्क आया है। पहले ऐसे प्रकरणों को अमूमन अपराध की तरह ही ट्रीट किया जाता था, लेकिन आजकल इसे अपराधशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के ऐसे कॉकटेल के रूप में देखा जाता है कि जिसमें कार्रवाई होती भी दिखे और कार्रवाई नहीं भी हो। इन मामलों में सभी सरकारों का रवैया तकरीबन एक सा ही है। उदाहरण के लिए दो पड़ोसी राज्यों में, दो महिलाओं के उत्पीड़न के अलग-अलग मामलों में आरोपी खोजे से नहीं मिल रहे और पुलिस है कि तमाम टोटकेबाजी के बाद भी वही कार्रवाई नहीं कर रही है, जो सबसे पहले होनी चाहिए।
दोनो मामलों में एक ही जवाब आ रहा है कि साब जांच चल रही है। गोया महिला उत्पीड़न न हुआ, अंधों का हाथी हो गया। इनमें से एक मामला मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के उदयपुरा में मंत्री रामपालसिंह के बेटे की बहू की खुदकुशी का है और दूसरा यूपी के उन्नाव में विधायक कुलदीप सिंह सेंगर और उनके परिजनों द्वारा एक महिला का जी भर यौन शोषण कर उसके बाद महिला के पिता की निर्मम हत्या कर देना। दोनों मामले जनता के चश्मे से कांच की तरह साफ समझ आ रहे हैं, लेकिन सियासी और पुलिसिया खुर्दबीनें इन्हें पढ़ना तो दूर ठीक से देख भी नहीं पा रही हैं। यह है राजनीति और अपराध की दुनिया का सुखद संयोग।
पहले मामला उदयपुरा का। मप्र के लोक निर्माण विभाग मंत्री रामपाल सिंह के बेटे गिरजेश ने गांव की प्रीति रघुवंशी से मोहब्बत कर गुपचुप ब्याह रचाया। मंत्री पिता को एक गरीब की बेटी से अमीर बाप के बेटे से विवाह करना रत्ती भर रास न आया। उसने लगे हाथ बेटे की एक प्रभावशाली परिवार में दूसरी शादी तय करा दी। यानी मामला बिल्कुल बॉलीवुड के पारिवारिक मेलो ड्रामा की माफिक। यूं भी भारतीय परंपरा में रसूखमंद बापों के बेटे परम आज्ञाकारी होते हैं। सो गिरजेश ने भी खुशी-खुशी दूसरी सगाई की अंगूठी पहन ली।
प्रीति को पता चला तो उसने आखिरी बार मांग में सिंदूर भर कर इस जालिम दुनिया को अलविदा कह दिया। इस कहानी के उत्तरकांड में रसूखमंद बाप का खलनायकी किरदार शुरू होता है। बेटे की पहली शादी को प्रलोभन और प्रताड़ना के रेगिस्तान में दफन करने की हर संभव कोशिश हुई। मीडिया और प्रतिपक्ष के हल्ले के बाद पुलिस ने चींटी की चाल से मामले की जांच शुरू कर दी। तमाम टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर भी वह आरोपी के आसपास भी नहीं पहुंच पाई है। इस बीच मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने पीडि़त परिवार को न्याय दिलाने, मामले की जांच सीबीआई से कराने की घोषणा भी कर दी। लेकिन किसी का कोई बाल आज तक बांका नहीं हुआ।
इसी से मिलता-जुलता मामला यूपी के उन्नाव का है। आरोप है कि वहां भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने एक महिला को नौकरी दिलाने का झांसा देकर परिजनों और मित्रों के साथ सामूहिक बलात्कार किया। पीडि़ता किसी तरह सीएम आदित्यनाथ योगी तक पहुंची तो वे केवल इंसाफ का आश्वासन दे पाए। क्योंकि योगियों का ऐसे प्रंपचों से क्या लेना-देना? उधर राज्य के ही एक ज्ञानी भाजपा विधायक ने एक बुनियादी सवाल उछाला कि क्या तीन बच्चों की मां के साथ कोई बलात्कार कर सकता है। हालांकि उन्होने यह बॉटम लाइन नहीं बताई कि बलात्कार के लिए मां के न्यूनतम कितने बच्चे होने चाहिए या फिर बलात्कार का सांस्कृतिक तरीका कौन-सा है?
इस मामले में भी मीडिया में हल्ले के बाद पुलिस ने विधायक के भाई को गिरफ्तातर कर लिया। मामला हाईकोर्ट पहुंचा तो सरकारी दलील दी गई कि कोई सबूत नहीं है तो गिरफ्तार कैसे करें? सीबीआई चाहेगी तो पकड़ लेगी। लेकिन पुलिस बैकबेंचर बच्चे की तरह यह नहीं बता पाई कि जब सबूत नहीं थे तो विधायक के खिलाफ बलात्कार का मामला किस बिना पर दर्ज हुआ?
तटस्थ भाव से देखें तो दोनों मामलों में कई समानताएं हैं। पहले तो घटनास्थलों के नाम हैं, जो अपने आप में सकारात्मक भाव लिए हुए हैं। मसलन पहला उदयपुरा है तो दूसरा उन्नाव है। दूसरे, दोनों में आरोपी ठाकुर हैं। दोनो की बॉडी लैंग्वेज में यह भाव निहित है कि ठाकुर कभी गलत नहीं हो सकता। दोनों ही सत्तारूढ़ भाजपा के हैं। दोनों मामले इतने संवेदनशील कि दोनों की जांच सीबीआई को सौंपने का राजनीतिक उपक्रम मुख्यमंत्रियों को करना पड़ा। दोनो मामलों को रफा-दफा करने की यथासंभव कोशिशें हुई। दोनों ही मामले सरकारों के गले की हड्डी बन गए और दोनों मामलों पर सरकारें राजनीतिक कवच डालने का पुरजोर प्रयास कर रही हैं।
ऐसे मामलों में अमूमन राजनेता जो करते हैं, वही कर रहे हैं। क्योंकि आजकल महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को सियासी नफे नुकसान की बैलेंस शीट के रूप में देखा, समझा और पेश किया जाता है। लेकिन दोनों मामलों में पुलिस की भूमिका लीक-लीक चलने वाले कातर भाव से भरी है। हैरानी होती है कि देश ऐसी पुलिस व्यवस्था पर इतना खर्च काहे के लिए करता है? मसलन बहू खुदकुशी कांड में 22 दिन तक पुलिस केवल बयान ही दर्ज करती गई (मामला दर्ज होना तो दूर की बात है) तो फिर इतने लवाजमे और लाखों की तनख्वाह लेने वाले आईपीएसों की जरूरत ही क्या है?
एक आईजी शक में घिरे मंत्री से 6 माह बाद ‘सौजन्य भेंट’ करने जाता है, यह सौजन्य शास्त्र का कौन सा ककहरा है? उधर यूपी पुलिस तो निपट चिकनी है। जो शख्स सरेआम टीवी पर बयान दे रहा हो, वह आरोपी एमएलए उसे तीनो लोको में ढूंढे से नहीं मिल रहा।
यकीन मानिए कि दोनों मामलों में असली आरोपी पुलिस के हाथ कभी नहीं आएगा। क्योंकि इस व्यवस्था का उद्देश्य पीडि़त को न्याय दिलाना नहीं है, न्याय को अपराधी के टिफिन बॉक्स में बंद करना है। अगर सत्ता के सुंदरकांड का यही उपसंहार है तो जरा सोचिए कि हम किस व्यवस्था में जी रहे हैं? किस तंत्र के भरोसे जी रहे हैं और किस उम्मीद में जी रहे हैं? ऐसी व्यवस्था जहां सत्ता स्वार्थ के आगे सब कुछ गौण है। संदेश यही है कि सत्तारूढ़ दल का कोई मंत्री या एमएलए आरोपी कैसे हो सकता है या कैसे बनाया जा सकता है? दो टके की जनता उसे दोषी साबित करने की गुस्ताखी कैसे कर सकती है?
बेचारी पुलिस के प्राण ऐसे हाथों में हैं, जहां राक्षस और देवता का फर्क मिट जाता है। बेबस जनता के भाग्य में केवल और केवल सहना लिखा है, क्योंकि मुजरिम को आखिरी दम तक बेगुनाह साबित करने के लिए पूरा तंत्र लगा है और लगा रहेगा। हमारे हिस्से में केवल आंसू और हिचकियां हैं। वो आंसू, जो हमने उन्नाव की बलात्कार पीडि़ता की आंखों से गिरते देखे और वो पीड़ा जो खुदकुशी करने वाली बहू के सुसाइड नोट के बुझे हुए लफ्जों में महसूस की। आमीन!!
(‘सुबह सवेरे’ से साभार)