एक पखवाड़ा मौत के साथ- अंतिम
बचपन में जब हम लोग मां से कहानियां सुनते तो उनका अंत आमतौर पर सुखद या आदर्शवादी हुआ करता था। ज्यादातर कहानियों का अंत इस वाक्य से होता- ‘’जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके फिरें…’’ यानी हर कहानी के अंत में लोकमंगल और लोककल्याण की कामना हुआ करती थी। लेकिन आज वैसा नहीं है…
इसीलिए ममता की कहानी का अंत इस वाक्य से नहीं किया जा सकता कि जैसे उसके दिन फिरे वैसे सबके फिरें… उसकी कहानी में व्यक्ति/परिवार, डॉक्टर/अस्पताल और प्रशासन/सरकार हरेक के लिए कई सबक छिपे हैं। तो जाते जाते थोड़ी सी बात उन पर भी कर लें-
व्यक्ति/परिवार से अपेक्षा
– रेबीज अत्यंत घातक बीमारी है। इसका पता लगाने का न तो कोई पुख्ता टेस्ट है और न ही इसका कोई इलाज। इसलिए कुत्ता काटने के 24 घंटे के भीतर या डॉक्टरों की सलाह लेकर तुरंत एंटी रेबीज इंजेक्शन जरूर लगवाएं। याद रखें, आपके बचने की एकमात्र संभावना तभी है जब आप ये इंजेक्शन लगवा लें।
– डॉक्टरों के मुताबिक रेबीज, कुत्ता, बिल्ली, लोमड़ी, सियार, चमगादड़ आदि के काटने से हो सकता है। यदि आप इनके काटने का शिकार हुए हैं तो असावधानी बिलकुल न बरतें, तुरंत डॉक्टर के पास जाएं।
– ऐसी कोई भी घटना होने पर अपने परिवार वालों से बिलकुल न छिपाएं। बल्कि उनसे तत्काल शेयर करें ताकि परिवार न सिर्फ आपका इलाज करवा सके बल्कि आपकी वजह से अन्य सदस्यों का जीवन भी खतरे में न पड़े।
डॉक्टर/अस्पताल से अपेक्षा
– मरीज का हौसला बनाए रखें उसे तोड़ें नहीं। उसके सामने ही बीमारी की गंभीरता या सबंधित बीमारी से मौत तक हो जाने जैसी आशंकाओं का जिक्र करने से बचें।
– रेबीज जैसी बीमारियों के मरीजों को अछूत न मानें। आप जीने के हक की रक्षा नहीं कर सकते तो कम से कम सुकून से मर सकने के उसके हक की परवाह तो करें।
– मरीज के परिजन आकर पूछेंगे तब ही कोई बात बताएंगे यह रवैया छोड़ें, भरती हुए हर मरीज के परिजनों की नियमित रूप से ब्रीफिंग और काउंसलिंग करें।
– परिजनों को यह पहले से बताएं कि किस डॉक्टर की विजिट कराई जा रही है और क्यों? ऐसी हर विजिट कराने से पहले संबंधित डॉक्टर की जरूरत का औचित्य बताते हुए परिजनों से पूर्वानुमति ली जाए।
– अस्पतालों के अपने मेडिकल स्टोर से ही दवाई लेने की बाध्यता खत्म हो। जेनरिक दवाएं लिखकर परिजनों को यह छूट दी जाए कि वे जहां से चाहें दवाएं खरीदकर ला सकते हैं।
– मरीज और उसके परिजनों के अधिकार बताने वाला एक कार्ड भरती करने के साथ ही अनिवार्य रूप से दिया जाए। इसमें उन डॉक्टरों के नंबर भी हों जिनसे आपातकाल में किसी भी शंका समाधान के लिए संपर्क किया जा सके।
– बाहर से आने वाले लोग सबसे ज्यादा परेशान होते हैं। ऐसे में मरीजों के कम से कम दो परिजनों के ठहरने आदि की सुविधा का प्रावधान अस्पताल में होना चाहिए।
– हर अस्पताल में 24 घंटे काम करने वाली हेल्प या काउंसलिंग डेस्क हो जहां कोई भी मरीज या उसका परिजन अपनी बात रख सके। उसके हर सवाल और उसे दिए जाने वाले हर जवाब का रिकार्ड रखा जाए।
– दिन में एक बार अस्पतालों या नर्सिंग होम के डॉक्टरों की एक टीम हरेक मरीज के परिजन की काउंसलिंग या उसकी शंका समाधान के लिए उपलब्ध हो। इलाज की प्रक्रिया में पारदर्शिता रहे।
प्रशासन/सरकार से अपेक्षा
– चिकित्सा कारोबार का दायरा बहुत बढ़ता जा रहा है। चूंकि यह व्यक्ति के जीवन-मरण और मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा है, इसलिए सरकार चिकित्सा/स्वास्थ्य लोकपाल (मेडिकल ओंबुड्समैन) जैसी संस्था का अविलंब गठन करे ताकि कोई भी शिकायत होने पर न्याय के लिए उपयुक्त मंच उपलब्ध हो।
– हर नगरीय निकाय में एक सक्षम ‘स्वास्थ्य निगरानी समिति’ गठित हो जिसमें चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के साथ ही प्रबुद्ध एवं गणमान्य नागरिकों को भी शामिल किया जाए। यह समिति समय समय पर अस्पतालों और नर्सिंग होम आदि का दौरा करे और वहां की व्यवस्थाओं का जायजा लेने के साथ ही लोगों की शिकायतें भी सुने।
– यह सही है कि आधुनिक चिकित्सा संसाधनों से लैस अस्पताल या नर्सिंग होम्स स्थापित करने में बहुत पैसा लगता है। लेकिन इसके बावजूद सभी आवश्यक जांचों के शुल्क में एकरूपता होनी चाहिए। ऐसा क्यों हो कि एक जगह ब्रेन का एमआरआई कराने की फीस 5000 है तो दूसरी जगह 7000, इसी तरह एंबुलेंस के चार्जेस का भी मानकीकरण हो।
– आईसीयू और वार्डों के चार्जेस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। मरीज की आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराई जाने वाली सेवाओं/सुविधाओं का शुल्क अलग हो सकता है, लेकिन बेड चार्जेस का तो मानक तय किया ही जा सकता है।
– यह भी तय किया जाए कि पेशेंट को भरती किए जाने पर कुछ बुनियादी सुविधाएं तो अस्पताल को देनी ही होंगी। अभी तो चाहे सामान्य वार्ड हों या आईसीयू, वहां बेड का चार्ज अलग, मरीज को लगने वाली मशीनों का चार्ज अलग, इंजेक्शन लगाने या दवाई देने जैसी बुनियादी नर्सिंग सुविधा का चार्ज अलग, डॉक्टरों की विजिट का चार्ज अलग यानी हर गतिविधि का चार्ज अलग से लिया जाता है। अस्पताल में मरीज फाइव स्टार होटल की तरह मौज मस्ती करने नहीं जाता, न ही वह कोई सैलानी है जिसे रात रुकने के लिए एक बेड की जरूरत हो।
– जैसे आवासीय कॉलोनियों में कमजोर वर्गों के लिए अनिवार्य रूप से कुछ जगह छोड़े जाने का प्रावधान है उसी तरह हर अस्पताल या नर्सिंग होम्स में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के इलाज का अलग से प्रावधान रखा जाए और ऐसा स्थायी मैकेनिज्म हो जो इस सुविधा की सतत मॉनिटरिंग करता रहे।
– कई बार परिजन इलाज का खर्च उठाने में सक्षम नहीं होते। यदि वे आर्थिक कारणों अथवा चिकित्सा से संतुष्ट न होने पर अपने पेशेंट को अन्यत्र ले जाना चाहें तो उन्हें बिना किसी बाधा के इसकी छूट होनी चाहिए। जो अस्पताल इसमें बाधक बनें उन पर सख्त कार्रवाई हो।
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और आप क्या करें-
सबसे बड़ी जिम्मेदारी आपकी है। हमने यह आपबीती आपके लिए ही सुनाई। आप इसे औरों को सुनाएं, जागरूक करें, संभव हो तो हम सब मिलकर इन तमाम अपेक्षाओं की एक ‘पब्लिक पिटीशन’ तैयार कर सरकार से मिलें और मांग करें कि वह इस दिशा में तत्काल कदम उठाए। इस बारे में आपके कोई सुझाव हों तो हमें जरूर लिखें। यह मुद्दा बिना नतीजे के खत्म किए जाने लायक नहीं है, इसे यूं ही खत्म मत होने दीजिएगा…