राकेश अचल
कल यानि 25 दिसंबर को बड़ा दिन है। बड़ा दिन है तो प्रभु येशु का जन्मदिन, लेकिन हमारे यहां ये बड़ा दिन बड़े लोगों का दिन होता है, इस दिन बड़े लोग, बड़े फैसले करते हैं, बड़े दिल से करते हैं। लेकिन हमारे यहां बड़ा दिन लगता है किसी बड़े फैसले का दिन नहीं हो पायेगा, क्योंकि अब हमारे यहां बड़े दिल वालों का बड़ा टोटा हो गया है। कल किसान भी बड़े दिन पर अपने आंदोलन को लेकर नए साल में प्रवेश करेंगे।
किसानों की मांगें और सरकार का ‘टेसू’ एक ही जगह अड़कर रह गया है, न किसान पीछे हट रहे हैं और न सरकार ही आगे बढ़ रही है। दोनों ने आंदोलन को ऐतिहासिक बनाने का फैसला ले लिया है। किसानों का आंदोलन कुछ-कुछ ‘करो या मरो’ जैसा हो गया है। केंद्र सरकार ने भी ठान ली है कि किसान कानूनों को वापस नहीं लिया जाएगा, भले ही किसान रोज मरते जाएँ। किसानों के मरने-जीने से ज्यादा चिंता सरकार को अपनी नाक और देश के उन चार-पांच घरानों की है जो देश की सरकार को चलाने में धनादेश देते रहते हैं।
आंदोलन का अब ऐसा कोई पहलू नहीं है जो सरकार की समझ में न आ रहा हो। अब तो केवल जिद ही जिद है। सरकार और किसानों के बीच कोई ऐसा पंच नहीं है जो सहमति के बिंदु तक दोनों को लाकर खड़ा कर दे। इस आंदोलन से किसानों की एकता के साथ ही केंद्र सरकार की कमजोरी भी प्रकट हो गयी है। देश की ये पहली ऐसी सरकार है जिसके पास आज की तारीख में कोई संकटमोचक नहीं है। अन्यथा प्रत्येक सरकार के पास एक न एक संकटमोचक होता ही था। संकटमोचक की गैरहाजरी की वजह से ही सरकार का संकट बढ़ता जा रहा है।
आपको याद होगा कि सरकार ने संसद में किसान कानूनों को ध्वनिमत से पारित करा लिया था लेकिन अब उसे जनध्वनि सुनाई नहीं दे रही। अब सरकार इस क़ानून को जनध्वनि से वापस लेने को राजी नहीं है। सरकार चलाने वाले बड़े-बड़े दिग्गज गुड़ खाकर बैठे हैं। सरकार के कथित संकटमोचक भी किसान आंदोलन से पल्ला झाड़कर बंगाल में मुख्यमंत्री सुश्री ममता बैनर्जी की सरकार का पल्ला झपटने की तैयारी में लगे हैं। बेचारों ने जम्मू-कश्मीर में भी ऐसी ही कोशिश की लेकिन वहां गुपकार मोर्चे ने सरकार के मंसूबों पर पानी फेर दिया। सरकार वहां आज विधानसभा के चुनाव करा दे दूध और पानी सब अलग-अलग हो जाये।
किसान आंदोलन पर देश में इतना लिखा जा चुका है कि अब नया लिखने को कुछ बचा नहीं। अब तो केवल एक ही सवाल है कि क्या केंद्र सरकार किसान आंदोलन की ओर से आँखें बंद करके ही देश चलाएगी या फिर किसान आंदोलन के पटाक्षेप के लिए कुछ करेगी भी? केंद्र की पशोपेश ये है कि वो किसानों पर बल प्रयोग भी नहीं कर पा रही है और किसानों को वापस घर भेजने का भी उसके पास कोई फार्मूला नहीं। सरकार ने किसान आंदोलन में फूट डालने की भी तमाम कोशिशें कर लीं लेकिन कोई कामयाबी हासिल नहीं हुई। सरकार देश के लाखों किसानों का कथित हस्ताक्षरयुक्त समर्थन पत्र लिए बैठी है, लेकिन बात नहीं बन रही है।
बीते 27 दिन में देश में सोने-चांदी की कीमतें नीचे उतर आईं लेकिन सरकार नीचे आने को राजी नहीं है। धीरे-धीरे किसान आंदोलन देश की सीमाओं के बाहर भी चर्चा का विषय बन रहा है। किसान नेता कुलवंत सिंह संधु ने सिंधु बॉर्डर पर हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि 26 जनवरी पर होने वाले आयोजन के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत आने वाले हैं। हम वहां के सांसदों को लिखेंगे कि वे उन्हें भारत आने से रोकें। जब तक कि केंद्र सरकार किसानों की मांगें नहीं मान लेती। किसान यदि ऐसा करते हैं तो इसके लिए भी केंद्र सरकार का अड़ियल रवैया ही जिम्मेदार माना जाएगा।
भाकियू के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल ने कहा कि 25 दिसंबर को कनाडा, इंग्लैड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ऑस्ट्रिया जैसे देश जहां पंजाबियों की संख्या ज्यादा है, वहां की एंबेसी के बाहर प्रदर्शन किया जाएगा। भाकियू दोआबा के प्रधान मंजीत सिंह ने पंजाब में आढ़तियों पर आयकर विभाग की छापेमारी पर कहा कि सरकार जितना दबाएगी, आंदोलन उतना तेज होगा। कुल मिलकर सरकार इस आंदोलन की जितनी उपेक्षा कर रही है उतना ही मामला बिगड़ता जा रहा है। सरकारी उपेक्षा से अवसाद का शिकार हो रहे किसान कितने दिन और जानलेवा सर्दी में मोर्चा ले पाएंगे कहना नामुमकिन है। लेकिन अभी तक आंदोलन को चलाकर किसानों ने एक नजीर तो पैदा कर ही दी है।
किसान आंदोलन के चलते बीमारियों से जो किसान शहीद हुए उनकी बात तो छोड़ दीजिये लेकिन एक संत ने खुद को गोली मारकर आत्मोत्सर्ग किया, तरनतारन से सिंधु बॉर्डर पहुंचे 75 साल के किसान निरंजन सिंह ने सल्फॉस पीकर जान देने की कोशिश की। उनकी जेब से मिले नोट में लिखा है, किसानों को ठिठुरते देख रोना आता है। सरकार सुन नहीं रही और किसानों की जान जा रही है। कुर्बानी देना चाहता हूं। इन घटनाओं से सरकार की हृदयहीनता झलकती है। कोविडकाल में एक तरफ 60 साल से ऊपर के लोगों को घर से बाहर निकलने की मनाही है, वहीं किसान आंदोलन में 75 साल के बुजुर्गों की मौजूदगी बताती है कि मामला बहुत गंभीर है।
पिछले एक दशक के इतिहास में ये पहला बड़ा और संगठित आंदोलन है जो बिना किसी राजनीतिक दल की मदद से चल रहा है। सरकार इस आंदोलन के पीछे भले ही विपक्ष का हाथ होने का दवा करती हो, लेकिन हकीकत ये है कि किसानों ने अभी तक अपने आंदोलन को राजनीतिक दलों की छाया से बचाकर रखा है, लेकिन ऐसा कब तक मुमकिन होगा, कहा नहीं जा सकता।
अब देश में जहाँ-जहाँ भी विधानसभाओं के शीत सत्र होंगे आपको किसान आंदोलन की अनुगूंज सुनाई देगी। अगर आप आज संसद आहूत कर लें तो वहां भी किसानों का आंदोलन ही गूंजने वाला है। ऐसे में अभी भी समय है कि सरकार किसान आंदोलन को आजकल में समेट ले अन्यथा गणतंत्र दिवस के मौके पर यदि देश का किसान आंदोलन करता दिखाई देगा तो दुनिया में देश की बड़ी बदनामी होगी।
प्रधानमंत्री ने बीते छह साल में दुनिया में देश का जितना डंका बजाया था उसकी अनुगूंज पर किसानों के आंदोलन की ध्वनियाँ भारी पड़ने वाली हैं। सरकार के हाथ में निर्णय है कि उसे कुल्हाड़ी अपने पांवों पर मारना है या किसानों के सिर पर। दोनों ही स्थितियों में नुकसान देश का ही होना है।