एक तरफ जहां देश की आर्थिक राजधानी मुंबई इन दिनों ‘राजनीतिक प्रदूषण’ से ग्रस्त है, वहीं भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली ‘पर्यावरण प्रदूषण’ की चपेट में है। दिल्ली एनसीआर में रहने वाले लोगों को प्रदूषण से राहत नहीं मिल रही है। दिल्ली के ज्यादातर इलाकों की हवा गंभीर श्रेणी में है। वहां एक बार फिर स्वास्थ्य आपातस्थिति जैसे हालात बन रहे हैं।
दिल्ली में हवा की सेहत कुछ दिन बेहतर रहने के बाद एक बार फिर गंभीर श्रेणी में पहुंच गई है क्योंकि पड़ोसी राज्यों में पराली लगातार जलाई जा रही है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव माधवन राजीवन ने ट्वीट किया है कि पूर्वानुमान के मुताबिक हवा की गुणवत्ता 14 नवंबर तक बेहद गंभीर श्रेणी में पहुंचने की आशंका है। यदि यह चेतावनी सही साबित हुई तो देश की राजधानी, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन ‘बाल-दिवस’ पर दमघोटू और जहरीली हवाओं की चपेट में होगी।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि 10 अक्टूबर तक दिल्ली की हवा सही थी। पराली जलने से प्रदूषण बढ़ गया है। पंजाब और हरियाणा से भारी मात्रा में धुआं दिल्ली के आसमान पर छा रहा है। लोग सुप्रीम कोर्ट की बात भी नहीं मान रहे हैं और इसका खमियाजा दिल्ली की जनता भुगत रही है। प्रदूषण के खराब हालात को देखते हुए हम वाहनों के संचालन की ‘ऑड-इवन’ योजना को बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं।
दिल्ली के प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी बुधवार को खफा नजर आया। उसने केंद्र सरकार की खिंचाई करते हुए कहा कि वह वायु प्रदूषण की समस्या को दूर करने के उपाय खोजे। ऐसा लगता है कि इस मामले में जिम्मेदार लोगों ने कोई खास कदम नहीं उठाए हैं। कोर्ट ने उन जापानी विशेषज्ञों के सुझाव पर भी सरकार से 3 दिसंबर तक रिपोर्ट मांगी जिन्होंने पिछले दिनों कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत होकर कहा था कि हाइड्रोजन आधारित ईंधन प्रणाली से इस समस्या का हल निकल सकता है।
इससे पहले 6 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में गंभीर वायु प्रदूषण रोक पाने में नाकाम रहने पर सरकारों और संबंधित अफसरों को फटकार लगाते हुए कहा था कि यह करोड़ों लोगों की जिंदगी और मौत का सवाल है, लेकिन ‘बेहद दुर्भाग्यपूर्ण’ है कि गरीबों को लेकर कोई चिंतित नहीं है और उन्हें मरने के लिये छोड़ दिया जा रहा है।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने सवाल किया था कि ”क्या आप लोगों को प्रदूषण की वजह से इसी तरह मरने देंगे। क्या आप देश को सौ साल पीछे जाने दे सकते हैं? हमें इसके लिये सरकार को जवाबदेह बनाना होगा। सरकारी मशीनरी पराली जलाये जाने को रोक क्यों नहीं सकती? राज्य सरकारों को यदि लोगों की परवाह नहीं है तो उन्हें सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है।‘’
पीठ ने राज्यों को इंगित करते हुए कहा था ”आप कल्याणकारी सरकार की अवधारणा भूल गये हैं। आप गरीब लोगों के बारे में चिंतित ही नहीं हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या सरकार किसानों से पराली खरीद नहीं सकती? यह करोड़ों लोगों की जिंदगी और मौत से जुड़ा सवाल है।‘’
और यही वह मुद्दा है जिस पर बहुत गंभीरता से सोचने की जरूरत है। क्या सरकारें वाकई करोड़ों लोगों की जिंदगी और मौत से जुड़े मुद्दे को लेकर चिंतित और गंभीर हैं? क्या उन्होंने गरीबों का दम घोट कर उन्हें वास्तव में मरने के लिए नहीं छोड़ दिया है? क्या वे वाकई लोगों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं या फिर दिखावटी टोटके करके अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। और क्या लोगों की जान से खिलवाड़ करने वाली इस स्थिति से भी बाजार को फायदा उठाने का अवसर दे दिया गया है?
दरअसल यह सवाल उस एक खबर के बाद और भी ज्यादा गंभीर हो गया है जो कहती है कि एक तरफ तो प्रदूषण की स्थिति लगातार गंभीर होते जाने के कारण लोग बीमार हो रहे हैं और उधर स्वास्थ्य बीमा कंपनियां ऐसी स्थिति में लोगों की जेब कतरने की तैयारी कर रही हैं। अस्पताल में भरती होने की दशा में स्वास्थ्य बीमा से मिलने वाली राहत अब और महंगी होने जा रही है।
खबरें हैं कि हाल के दिनों में दिल्ली एनसीआर में स्वास्थ्य बीमा के बढ़ते क्लेम को देखते हुए बीमा कंपनियां अपने प्रीमियम 5 फीसदी तक बढ़ाने पर विचार कर रही हैं। हालांकि अभी तक बीमा कंपनियों के पास ऐसा कोई डाटा नहीं है, जिससे ये साबित हो सके कि दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की वजह से कितने लोग बीमार हुए हैं। न ही किसी अस्पताल या एजेंसी ने अलग से इस तरह के आंकड़े जुटाए हैं। हां, इतना जरूर है कि सांस लेने संबंधी शिकायतें बढ़ी हैं।
लेकिन बीमा कंपनियां प्रीमियम में बढ़ोतरी का कारण पिछले कुछ हफ्तों में मेडिकल क्लेम लेने वालों की संख्या बढ़ने को बता रही हैं। कंपनियों के अनुसार इससे उनका सेटलमेंट खर्च बढ़ गया है। ऐसे में उन लोगों का बीमा प्रीमियम बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है, जो प्रदूषण की चपेट में सबसे ज्यादा आते हैं। इनमें सीनियर सिटीजन, बच्चे, खुले में काम करने वाले लोग और पहले से सांस की बीमारियों से पीड़ित लोग शामिल हैं।
प्रदूषण की वजह से ब्रोंकाइटिस, अस्थमा और फेफड़ों के कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। अभी देश में भौगोलिक आधार पर प्रीमियम तय नहीं किया जाता है। लेकिन खबरें कहती हैं कि जिस तरह देश के कुछ हिस्सों में प्रदूषण का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है, उसे देखते हुए भौगोलिक आधार पर प्रीमियम तय करने जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। बीमा नियामक भी भौगोलिक आधार पर प्रीमियम निर्धारित करने की अनुमति देता है। कंपनियों का मत है कि जिन शहरों में प्रदूषण का स्तर खतरे से ऊपर है, वहां ज्यादा प्रीमियम लगना चाहिए।
यह बहुत खतरनाक स्थिति है। एक तरफ खुद सुप्रीम कोर्ट मान रहा है कि सरकारें प्रदूषण को रोकने के उपाय करने में विफल रही हैं, दूसरी तरफ बीमा कंपनियां प्रदूषण से ग्रस्त इलाकों के लोगों से अधिक प्रीमियम वसूलने की तैयारी कर रही हैं। मतलब, सरकारों की विफलता का भुगतान लोगों को अपनी जेब से करना होगा।
चिंता तो इस बात की भी है कि एक बार यह सिलसिला चला तो पता नहीं कहां जाकर रुकेगा। कहीं ऐसा न हो कि सरकारें ज्यादा खराब सड़कों या गड्ढों वाले इलाकों में वहां के लोगों से अलग से ‘गड्ढा भराई’ टैक्स मांगने लगें या फिर ज्यादा कुत्तों वाले मोहल्लों व बस्तियों के लोगों से रेबीज इंजेक्शन के दुगुने दाम वसूले जाने लगें…