यह संयोग ही है कि पिछले एक महीने के दौरान मुझे कई बार बच्चों और उनकी शिक्षा से जुड़े विषयों पर होने वाले विमर्श से जुड़ने का अवसर मिला। इस दौरान समाज में भी कुछ घटनाएं ऐसी हुईं जिन्होंने सोचने पर मजबूर किया कि हम शिक्षा और बच्चों को लेकर आखिर कितना सोच रहे हैं या कि सोच भी रहे हैं या नहीं। हमारी चिंताओं के कारण शिक्षा से जुड़े हुए कितने हैं और शिक्षा से इतर विषयों से जुड़े कितने…
ऐसा पहला अवसर मुझे अगस्त में ओरछा में मिला जहां विकास संवाद ने ‘मीडिया,बच्चे और असहिष्णुता’ विषय पर राष्ट्रीय मीडिया संवाद आयोजित किया था। इसमें एक पूरा सत्र ही ‘बच्चे और असहिष्णुता’ पर केंद्रित था। उसमें जीन्यूज इंडिया डॉट कॉम के संपादक दयाशंकर मिश्र ने गंभीर बात कही थी। उनका कहना था कि जितनी देर बच्चे मां-बाप या परिवार के साथ नहीं रहते उससे कहीं ज्यादा वे अपने टीचर के साथ या स्कूल में रहते हैं, लेकिन आज स्कूल ही बच्चों के लिए सबसे खतरनाक जगह होते जा रहे हैं।
पत्रकार पीयूष बबेले का कहना था कि बच्चे के साथ असहिष्णुता तो बचपन से ही शुरू हो जाती है, जब हम उसके सवालों का जवाब देने के बजाय उन सवालों को ही दबाना शुरू कर देते हैं। राजनीति भी बच्चों के बारे में 18 साल के बाद सोचती है, यानी उनके वोटर बन जाने के बाद। तो क्या बच्चों का कोई वर्तमान नहीं है। बच्चा आज जो भी करता है वह दूसरों को खुश करने के लिए करता है। स्कूलों में बच्चों की सांस्कृतिक गतिविधियां होती हैं लेकिन ज्यादातर मामलों में मीडिया वहां बच्चों का नहीं बल्कि स्कूल प्रबंधन का कवरेज करने जाता है।
गुड़गांव (अब उसे ‘गुरुग्राम’ कहने का मन नहीं करता) के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में दूसरी कक्षा के छात्र प्रद्युम्न ठाकुर की जघन्य हत्या के बाद न सिर्फ शिक्षा, बल्कि शिक्षा परिसरों को लेकर भी कई सवाल उठ रहे हैं। इस घटना के बाद यह कथन और भी मौजू हो जाता है कि बच्चे अब स्कूल में ही सुरक्षित नहीं हैं।
मोटी फीस चुका कर लोग अपने बच्चों को फिजूल की शानो शौकत वाले स्कूलों में दाखिला तो दिलवा रहे हैं लेकिन बाहर से चमचमाते दिखने वाले ये परिसर अंदर से बहुत खोखले हैं। यहां न बच्चों को संस्कार मिल पा रहे हैं और न ही शिक्षा… और अब तो सुरक्षा भी…! बस उन्हें रोबोट बनाया जा रहा है। ये स्कूल उन्हें पैसा कमाने की मशीन में तब्दील करने की बुनियाद तैयार कर रहे हैं। और अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ति की अंधी चाह में माता पिता भी ऐसे स्कूलों में बच्चों का दाखिला कराने के लिए मरे जा रहे हैं।
पिछले शनिवार को भोपाल के माधवराव सप्रे संग्रहालय में शिक्षा नीति पर एक विमर्श आयोजित हुआ जिसमें बस्ते के बोझ से लेकर शिक्षा के स्तर और पाठ्यक्रमों की गफलत तक पर गंभीर बात हुई। उसमें प्रसिद्ध शिक्षाविद रमेश दवे ने कहा कि यूरोप में तो शिक्षा की शुरुआत ही सजा के माध्यम के तौर पर हुई। एक जर्मन शिक्षक की डायरी का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि उस शिक्षक ने बाकायदा यह लिखा कि अपने पूरे जीवन में उसने छात्रों को कितनी बार पीटा। उसने इस पिटाई का वर्गीकरण भी किया था। जैसे कितनी बार रॉड से पीटा, कितनी बार बेंत या स्केल से और कितनी बार बच्चों के सिर पर घूंसे मारे। और यह आंकड़ा हजारों में था।
आज भी हमारे कई स्कूलों में जो बर्ताव बच्चों के साथ हो रहा है उसे देखकर लगता है कि वे भी 18 वीं सदी के यूरोप की मानसिकता से उबरे नहीं हैं। बच्चों को शिक्षा देना और उन्हें ठोक पीट कर साक्षर बना देना दोनों अलग अलग बातें हैं। खेद का विषय यह भी है कि बच्चे या स्कूल तभी खबर बनते हैं जब वहां कोई वारदात हो जाती है। यानी स्कूल भी अब ‘सनसनी’ टाइप सीरियल जैसे हो गए हैं।
जिस दिन मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, उस 11 सितंबर के दिन पूरी दुनिया स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण की 125 वीं जयंती मना रही है। दिल्ली के विज्ञान भवन में इसी अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि स्वामीजी ने पूरी दुनिया को भारत की ताकत से अवगत कराया। उन्होंने सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज बुलंद की।
प्रधानमंत्री का भाषण सुनते हुए मुझे याद आया कि 125 साल पहले उस महान संचारक ने अपनी दिव्य दृष्टि से जो दृश्य देखे थे वे आज साक्षात दिखाई दे रहे हैं। स्वामीजी के संचार पर शोध के दौरान उनके हर तरह के विचार को पढ़ने व जानने का मौका मिला। आप सोच नहीं सकते कि सवा सदी पहले उस ‘योद्धा संन्यासी’ ने देश की शिक्षा पद्धति को लेकर कितने क्रांतिकारी विचार व्यक्त किए थे।
सबसे बुनियादी बात जो स्वामीजी ने कही थी वो यह कि शिक्षा मनुष्य बनाने के लिए हो। लेकिन आज हमारी तमाम प्रगति के बावजूद केवल यह छोटी सी सीख ही हम पूरी तरह अपने जीवन या समाज में नहीं उतार पाए हैं। शिक्षा बच्चों को चाहे जो बना रही हो पर उन्हें वह मनुष्य बना रही है इसमें तो संदेह ही होता है।
स्वामीजी ने शिक्षा के परिदृश्य को लेकर गुरु, शिष्य, माता-पिता और समाज की भूमिका के बारे में विस्तार से अपने विचार रखे हैं। उन्होंने कहा था- ‘’वही शिक्षा सार्थक है जो व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करे, उसके संस्कारों का विकास करे, उसके दोषों का परिमार्जन करे, उसमें सद्गुणों व सकारात्मकता के साथ ही नैतिक,धार्मिक व आध्यात्मिक मूल्यों का संधान करे और उसके व्यक्तित्व की कमियाँ दूर करे।‘’
लेकिन आज इनमें से एक भी बात जमीन पर सच होती दिखाई नहीं देती। ऐसे में कैसे उम्मीद की जाए कि हम स्वामी विवेकानंद जैसे मनीषियों के संदेश को अपने जीवन में उतार पाएंगे। हम केवल समारोहों में उनके भाषणों को उद्धृत करके औपचारिकता पूरी कर लेते हैं, लेकिन असली बात उनकी सीख को जीवन में उतारने की है, जिसकी कोशिश तक नजर नहीं आती।