अटलजी जैसा व्‍यक्तित्‍व मिलना मुश्किल है

-पुण्यतिथि पर विशेष- 

जयराम शुक्ल

आज की उथली राजनीति और हलके नेताओं के आचरण के बरक्स देखें तो अटलबिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व की थाह का आकलन कर पाना बड़े से बड़े प्रेक्षक, विश्लेषक और समालोचक के बूते की बात नहीं। वाजपेयी जी शुचिता की राजनीति के जीवंत प्रतिमूर्ति हैं। अटलजी को इहलोक से मुक्त हुए तीन साल पूरे हुए। आज उनकी पुण्यतिथि है। स्वतंत्रता के बाद जिन नेताओं के व्यक्तित्व की समग्रता का असर देशवासियों पर रहा उनमें से अटलबिहारी वाजपेयी शीर्ष पर हैं।

हमारी पीढ़ी ने पं. नेहरू के बारे में पढ़ा व सुना है और अटलजी को विकट परिस्थितियों के साथ दो-दो हाथ करते देखा है। पंडितजी स्वप्नदर्शी थे जबकि अटलजी ने भोगे हुए यथार्थ को जिया है। एक अत्यंत धनाढ्य वकील के वारिस पंडितजी पर महात्मा गांधी जैसे महामानव की छाया थी और आभामंडल में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास। जबकि अटल जी की राजनीति गांधी जी की हत्या के बाद उत्पन्न ऐसी विकट परिस्थितियों में शुरु हुई, जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ के खिलाफ शंका का वातावरण निर्मित व प्रायोजित किया गया था।

जन सरोकारों के प्रति अटलजी के समर्पण, निष्ठा ने ही साठ के दशक में उन्‍हें प्रतिपक्ष की राजनीति का शुभंकर बना दिया था। बचपन में हम लोग सुनते थे- ‘अटल बिहारी दिया निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान’… हाल यह कि जो संघ या जनसंघ को पसंद नहीं करता था उसके लिए भी अटल जी आंखों के तारे थे। वे 1957 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से उपचुनाव के जरिए लोकसभा पहुंचे और 1977 तक लोकसभा में भारतीय जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। अजातशत्रु शब्द यदि किसी के चरित्र में यथारूप बैठता है तो वे अटल जी ही हैं। दिग्गज समाजवादियों से भरे प्रतिपक्ष में उन्होंने अपनी लकीर खुद तैयार की। वे पंडित नेहरू और डॉ. लोहिया दोनों के प्रिय थे।

वाक्चातुर्य और गांभीर्य उन्हें संस्कारों में मिला। वे श्रेष्ठ पत्रकार व कवि थे ही। इस गुण ने राजनीति में उन्हें और निखारा। अपने कविरूप का हुंकार भरते हुए उन्होंने परिचयात्मक शैली में कहा था- ‘मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं, वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य निनाद नहीं, वह आत्मविश्वास का जयघोष है।’ अटलजी ने एक राजनेता के तौर पर भी इसी भावना को आत्मसात किया। उनकी वक्‍तृत्‍व कला मोहित और मंत्रमुग्ध करने वाली थी, जो जनसंघ व कालांतर में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं में करो या मरो, संभावनाओं और उत्साह का जोश जगाती रही।

वह प्रसिद्ध उक्ति न सिर्फ भाजपा के कार्यकर्ताओं को याद है बल्कि अटलजी के चाहने वालों को आज भी उद्वेलित करती है। 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी के गठन के समय मुंबई अधिवेशन में उन्‍होंने उद्घोष किया- ‘अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।’ इसके बाद से कमल खिलता ही रहा। यह अटलजी की दूरदृष्टि ही थी कि उनकी पहल पर पार्टी के सिद्धांतों में ‘गांधीवादी समाजवाद के प्रति निष्ठा’ का नीति निर्देशक तत्व जोड़ा गया। अटल जी को इस बात का आभास था कि यदि भाजपा को राजनीतिक अस्पृश्यता के बाहर करना है तो गांधी के मार्ग पर चलना होगा।

वे 1977 के जनता पार्टी के गठन और उसके अवसान से आहत तो थे पर उनका अनुमान था कि बिना गठबंधन के ‘दिल्ली’ हासिल नहीं हो सकती। सत्ता की भागीदारी के जरिए फैलाव की नीति, कम्युनिस्टों से उलट थी, इसलिए वीपी सिंह सरकार में भी भाजपा को शामिल रखा जबकि यह गठबंधन भी लगभग जनता पार्टी पार्ट-टू ही था। 1980 में जनसंघ घटक दोहरी सदस्यता के सवाल पर जनता पार्टी से बाहर निकला था और 1989 की वीपी सिंह की जनमोर्चा सरकार से राममंदिर के मुद्दे पर।

1996 में 13 दिन की सरकार ने भविष्य के द्वार खोले तब अटलजी ने अपने मित्र कवि डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन जी की इन पंक्तियों को दोहराते हुए खुद की स्थिति स्पष्ट की थी। ”क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं। संघर्ष पथ में जो मिले, यह भी सही, वह भी सही।’’ ये पंक्तियां अटल जी के समूचे व्यक्तित्व के साथ ऐसी फिट बैठीं कि आज भी लोग इन पंक्तियों का लेखक अटल जी को ही मानते हैं न कि सुमन जी को।

अटल जी ने गठबंधन धर्म का जिस कुशलता और विनयशीलता के साथ निर्वाह किया शायद ही अब कभी ऐसा हो। वे गठबंधन को सांझे चूल्हे की संस्कृति मानते थे। एक रोटी बना रहा, दूसरा आटा गूंथ रहा, तो कोई सब्जी तैयार कर रहा है, वह भी अपनी शैली में और फिर मिश्रित स्वाद न अहम् न अवहेलना। अटलजी का व्यक्तित्व ऐसा ही कालजयी था कि असंभव सा दिखने वाला 24 दलों का गठबंधन हुआ, जिसमें पहली बार दक्षिण की पार्टियां शामिल हुईं।

1998 में जयललिता की हठ से एक वोट से सरकार गिरी। अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा जनभावनाएं संख्या बल से पराजित हो गईं, हम फिर लौटेंगे और एक वर्ष के भीतर ही चुनाव में वे लौटे भी और इतिहास भी रचा। अपने राजनीतिक जीवन में अटल जी ने कभी किसी को लेकर ग्रंथि नहीं पाली। पार्टी में उनकी विराटता के आगे सभी बौने थे, फिर भी उन्होंने आडवाणी जी और मुरलीमनोहर जोशी को अपने बराबर समझा। कई मसलों में तो वे आडवाणी के सामने भी विनत हुए।

गुजरात के राजधर्म का वही चर्चित मसला था जिसमें वे चाहकर भी नहीं जा पाए। सन् 71 में बांग्ला विजय पर उन्होंने इंदिरा जी की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उन्हीं इंदिरा जी ने आपातकाल में वाजपेयी जी को जेल में भी डाला। मुझे नहीं मालूम कि अटल जी ने कभी किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी की या राजनीतिक हमले किए हों। राष्ट्रहित की बातें उन्होंने दूसरों से भी लीं। इंदिरा जी के परमाणु कार्यक्रम को उन्होंने आगे बढ़ाया व 1998 की तेरह महीने की सरकार के दरम्यान पोखरण विस्फोट किए। किसी की परवाह किए बगैर देश को वैश्विक शक्ति बनाने में लगे रहे।

यह संयोग नहीं बल्कि दैवयोग है कि उनका जन्म ईसा मसीह के जन्म के दिन हुआ। ‘वही करुणा, वही क्षमा’ पर सिला भी वही ईशु की भांति ही मिला। दिल्ली से लाहौर तक बस की यात्रा की, जवाब में कारगिल मिला। पाकिस्तान को छोटा भाई मानते हुए जब-जब भी गले लगाने की चेष्‍टा की, उसका परिणाम उलटा ही मिला। अक्षरधाम, संसद हमला, एयर लाइंस अपहरण, इन सबके बावजूद उन्होंने जनरल परवेज मुशर्रफ को आगरा वार्ता के लिए बुलाया। लगता है अचेतन मन से आज भी अटल जी यही कह रहे हों कि हे प्रभु उन्हें माफ करना क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। (मध्‍यमत)
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