12 जून को हमने टीवी पत्रकार रवीश कुमार के खत पर उत्तरप्रदेश के एक आईपीएस अफसर का जवाब प्रकाशित किया था। मध्यमत डॉट कॉम के पाठकों ने रवीश कुमार का खत भी पढ़ना चाहा है। हम रवीश के ब्लॉग ‘कस्बा’ से यह खत लेकर आप तक पहुंचा रहे हैं। पढि़ए ऐसा क्या लिखा था रवीश ने, जिसका जवाब देने के लिए आईपीएस अफसर धर्मेंदसिंह यादव मजबूर हो गए-
प्रिय भारतीय पुलिस सेवा (उत्तर प्रदेश),
उम्मीद है मुकुल द्विवेदी की मौत के सन्नाटे का कुछ कुछ हिस्सा आप सभी के आस पास भी पसरा होगा। उनकी यादें रह रहकर आ जा रही होंगी। कोई पुरानी बात याद आ रही होगी, कुछ हाल की बात याद आ रही होगी। ट्रेनिंग के समय अकादमी की चोटी से हैदराबाद देखना याद आ रहा होगा। किसी को मथुरा दर्शन के बाद वहाँ की ख़ातिरदारी याद आती होगी। कुछ आदर्श याद आते होंगे। बहुत सारे समझौते याद आते होंगे।
मैं यह पत्र इसलिए नहीं लिख रहा कि एक आईपीएस अधिकारी मुकुल द्विवेदी की मौत हुई है। मुझे सब इंस्पेक्टर संतोष यादव की मौत का भी उतना ही दुख है। उतना ही दुख ज़ियाउल हक़ की हत्या पर हुआ था। उतना ही दुख तब हुआ था जब मध्य प्रदेश में आईपीएस नरेंद्र कुमार को खनन माफ़िया ने कुचल दिया था। दरअसल कहने के लिए कुछ ख़ास है नहीं, लेकिन आपकी चुप्पी के कारण लिखना पड़ रहा है। ग़ैरत और ज़मीर की चुप्पी मुझे परेशान करती है। इसी वजह से लिख रहा हूँ कि आप लोगों को अपने मातहतों की मौत पर चुप होते तो देखा है, मगर यक़ीन नहीं हो रहा है कि, आप अपने वरिष्ठ, समकक्ष या कनिष्ठ की मौत पर भी चुप रह जायेंगे।
मैं बस महसूस करना चाहता हूँ कि, आप लोग इस वक्त क्या सोच रहे हैं। क्या वही सोच रहे हैं जो मैं सोच रहा हूँ? क्या कुछ ऐसा सोच रहे हैं जिससे आपके सोचने से कुछ हो या ऐसा सोच रहे हैं कि क्या किया जा सकता है। जो चल रहा है चलता रहेगा। मैं यह इसलिए पूछ रहा हूँ कि आपके साथी मुकुल द्विवेदी का मुस्कुराता चेहरा मुझे परेशान कर रहा है। मैं उन्हें बिलकुल नहीं जानता था। कभी मिला भी नहीं। लेकिन अपने दोस्तों से उनकी तारीफ सुनकर पूछने का मन कर रहा है कि उनके विभाग के लोग क्या सोचते हैं।
मैंने कभी यूपीएससी की परीक्षा नहीं दी। बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं था, इसलिए किसी प्रकार का भ्रम भी नहीं था। जब पढ़ना समझ में आया, तब तक मैं जीवन में रटने की आदत से तंग आ गया था। जीएस की उस मोटी किताब को रटने का धीरज नहीं बचा था। इसका मतलब ये नहीं कि लोक जीवन में लोकसेवक की भूमिका को कभी कम समझा हो। आपका काम बहुत अहम है और आज भी लाखों लोग उस मुक़ाम पर पहुँचने का ख़्वाब देखते हैं। दरअसल ख़्वाबों का तआल्लुक़ अवसरों की उपलब्धता से होता है। हमारे देश की जवानियाँ, जिस पर मुझे कभी नाज़ नहीं रहा, नंबर लाने और मुलाज़मत के सपने देखने में ही खप जाती हैं। बाकी हिस्सा वो इस ख़्वाब को देखने की क़ीमत वसूलने में खपा देती हैं, जिसे हम दहेज़ से लेकर रिश्वत और राजनीतिक निष्ठा क्या क्या नहीं कहते हैं।
मैं इस वक्त आप लोगों के बीच अपवादस्वरूप अफ़सरों की बात नहीं कर रहा हूं। उस विभाग की बात कर रहा हूँ जो हर राज्य में वर्षों से भरभरा कर गिरता जा रहा है। जो खंडहर हो चुका है। मैं उन खंडहरों में वर्दी और कानून से लैस खूबसूरत नौजवान और वर्दी पहनते ही वृद्ध हो चुके अफ़सरों की बात कर रहा हूँ, जिनकी ज़िले में पोस्टिंग होते ही स्वागत में अख़बारों के पन्नों पर गुलाब के फूल बिखेर दिये जाते हैं। जिनके आईपीएस बनने पर हम लोग उनके गाँव घरों तक कैमरा लेकर जाते हैं। शायद आम लोगों के लिए कुछ कर देने का ख़वाब कहीं बचा रह गया है, जो आपकी सफलता को लोगों की सफलता बना देता होगा। इसलिए हम हर साल आपके आदर्शों को रिकार्ड करते हैं। हर साल आपको अपने उन आदर्शों को मारते हुए भी देखते हैं।
क्या आप भारतीय पुलिस सेवा नाम के खंडहर को देख पा रहे हैं? क्या आपकी वर्दी कभी खंडहर की दीवारों से चिपकी सफ़ेद पपड़ियों से टकराती है? रंग जाती है? आपके बीच बेहतर, निष्पक्ष और तत्पर पुलिस बनने के ख़्वाब मर गए हैं। इसलिए आपको एसएसपी के उदास दफ्तरों की दीवारों का रंग नहीं दिखता। मुझे आपके ख़्वाबों को मारने वाले का नाम पता है मगर मैं मरने और मारे जाने वालों से पूछना चाहता हूँ। आपके कई साथियों को दिल्ली से लेकर तमाम राज्यों में कमिश्नर बनने के बाद राज्यपाल से लेकर सांसद और आयोगों के सदस्य बनने की चाह में गिरते देखा हूँ। मुझे कोई पहाड़ा न पढ़ाये कि राजनीतिक व्यवस्थाएँ आपको ये इनाम आपके हुनर और अनुभव के बदले देती हैं।
आप सब इस व्यवस्था के अनुसार हो गए हैं, जो दरअसल किसी के अनुसार नहीं है। आप सबने हर जगह समर्पण किया है और अब हालत ये हो गई कि आप अपने ग़म का भी इज़हार नहीं कर सकते। गर्मी है इसलिए पता भी नहीं चलता होगा कि वर्दी पसीने से भीगी या दोस्त के ग़म के आँसू से। मुझे कतर्व्य निष्ठा और परायणता का पाठ मत पढ़ाइये। इस निष्ठा का पेड़ा बनाकर आपके बीच के दो चार अफसर खा रहे हैं और बाकी लोग खाने के मौके की तलाश कर रहे हैं।
मामूली घटनाओं से लेकर आतंकवाद के नाम पर झूठे आरोपों में फँसाये गए नौजवानों के किस्से बताते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा के खंडहर अब ढहने लगे हैं। दंगों से लेकर बलवों में या तो आप चुप रहे, जाँच अधूरी की और किसी को भी फँसा दिया। आपने देखा होगा कि गुजरात में कितने आईपीएस जेल गए। एक तो जेल से बाहर आकर नृत्य कर रहा था। वो दृश्य बता रहा था कि भारतीय पुलिस सेवा का इक़बाल ध्वस्त हो चुका है। भारतीय पुलिस सेवा की वो तस्वीर फ्रेम कराकर अपने अपने राज्यों के आफिसर्स मेस में लगा दीजिये। पतन में भी आनंद होता है। उस तस्वीर को देख आपको कभी कभी आनंद भी आएगा।
रिबेरो साहब के बारे में पढ़ा था तब से उन्हीं के बारे में और उनका ही लिखा पढ़ रहा हूँ। बाकी भी लिखने वाले आए लेकिन वो आपके नाम पर लिखते लिखते उसकी क़ीमत वसूलने लगे। पुलिस सुधार के नाम पर कुछ लोगों ने दुकान चला रखी है। इस इंतज़ार में कि कब कोई पद मिलेगा। मैं नाम लूं क्या? एक राज्य में बीच चुनावों में आपके बीच के लोगों की जातिगत और धार्मिक निष्ठाओं की कहानी सुन कर सन्न रह गया था। बताऊँ क्या? क्या आपको पता नहीं? अभी ही देखिये कुछ रिटायर लोग मुकुल की मौत के बहाने पुलिस सुधार का सवाल उठाते उठाते सेटिंग में लग गए हैं। ख़ुद जैसे नौकरी में थे तो बहुत सुधार कर गए।
आपकी सीमायें समझता हूँ। यह भी जानता हूँ कि आपके बीच कुछ शानदार लोग हैं। कुछ के बीच आदर्शवाद अब भी बचा है। बस ये पत्र उन्हीं जैसों के लिए लिख रहा हूँ और उन जैसों के लिए भी जो पढ़ कर रूटीन हो जायेंगे। इन बचे खुचे आदर्श और सामान से एक नई इमारत बना लीजिये और फिर से एक लोक विभाग बनिये जिसकी पहचान बस इतनी हो कि कोई पेशेवर और निषप्क्ष होने पर सवाल न उठा सके। अपनी खोई हुई ज़मीन को हासिल कीजिये। अकेले बोलने में डर लगता है तो एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बोलिये।
इसके लिए जरूरी है कि आप पहले मथुरा के ज़िलाधिकारी और एसएसपी से यारी दोस्ती में ही पूछ लीजिये कि आखिर वहाँ ये नौबत क्यों आई। किसके कहने पर हम ऐसे सनकी लोगों को दो से दो हज़ार होने दिये। वे हथियार जमा करते रहे और हम क्यों चुप रहे। क्या मुकुल व्यवस्था और राजनीति के किसी ख़तरनाक मंसूबों के कारण मारा गया? क्या कल हममें से भी कोई मारा जा सकता है? मुकुल क्यों मारा गया? कुछ जवाब उनके होंठों पर देखिये और कुछ उनकी आँखों में ढूंढिये। क्या ये मौत आप सबकी नाकामी का परिणाम है? मथुरा के ज़िलाधिकारी, एसएसपी जब भी मिले, जहाँ भी मिले, आफ़िसर मेस से लेकर हज़रतगंज के आइसक्रीम पार्लर तक, पूछिये। ख़ुद से भी पूछते रहिए।
पता कीजिये कि इस घटना के तार कहाँ तक जाते हैं। नज़र दौड़ाइये कि ऐसी कितनी संभावित घटनाओं के तार यहाँ वहाँ बिखरे हैं। राजनीतिक क़ब्ज़ों से परेशान किसी ग़रीब की ज़मीन वापस दिलाइये। संतोष यादव और मुकुल द्विवेदी के घर जाइये। उनके परिवारों का सामना कीजिये और कहिये कि दरअसल साहब से लेकर अर्दली तक हम अतीत, वर्तमान और भावी सरकारों के समझौतों पर पर्दा डालने के खेल में इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि हम सभी को मरा हुआ मान लिया जाना चाहिए। हम सबको जीते जी मुआवज़ा मिल जाना चाहिए।
नहीं कहने की लाचारी से निकलिये साहब लोग। रिटायर लोग के भरोसे मत रहिए। बोलने की जगह बनाइये। आपकी नौकरी हमारी तरह नहीं है कि दो मिनट में चलता कर दिये गए। हममें से कई फिर भी बहुत कुछ सबके लिए बोल देते हैं। आप सरकारों के इशारों पर हमारे ख़िलाफ़ एफआईआर करते हैं फिर भी हम बोल देते हैं। राना अय्यूब की गुजरात फाइल्स मँगाई कि नहीं। आप कम से कम भारतीय पुलिस सेवा के भारतीय होने का फ़र्ज तो अदा करें। आप हर जगह सरकारों के इशारों पर काम कर रहे हैं। कभी कभी अपने ज़मीर का इशारा भी देख लीजिये।
तबादला और पदोन्नति के बदले इतनी बड़ी क़ीमत मत चुकाइये। हम सही में कुछ राज्यों के राज्यपालों का नाम नहीं जानते हैं। कुछ आयोगों के सदस्यों का नाम नहीं जानते हैं। इन पदों के लिए चुप मत रहिए। सेवा में रहते हुए लड़िये। बोलिये। इन समझौतों के ख़िलाफ़ बोलिये। अपने महकमे की साख के लिए बोलिये कि मथुरा में क्या हुआ, क्यों हुआ। बात कीजिये कि आपके बीच लोग किस किस आधार पर बंट गए हैं। डायरी ही लिखिये कि आपके बीच का कोई ईमानदारी से लड़ रहा था तो आप सब चुप थे। आपने अकेला छोड़ दिया। भारतीय प्रशासनिक सेवा हो या पुलिस सेवा सबकी यही कहानी है।
वरना एक दिन किसी पार्क में जब आप रूलर लेकर वॉक कर रहे होंगे और कहीं मुकुल द्विवेदी टकरा गए तो आप उनका सामना कैसे करेंगे? यार हमने तुम्हारी मौत के बाद भी जैसा चल रहा था वैसा ही चलने दिया। क्या ये जवाब देंगे? क्या यार हमने इसी दिन के लिए पुलिस बनने का सपना देखा था कि हम सब अपने अपने जुगाड़ में लग जायेंगे। मैं मारा जाऊँगा और तुम जीते जीते जी मर जाओगे। कहीं मुकुल ने ये कह दिया तो!
आप सभी की ख़ैरियत चाहने वाला मगर इसके बदले राज्यपाल या सांसद बनने की चाह न रखने वाला रवीश कुमार इस पत्र का लेखक हैं। डाकिया गंगाजल लाने गया है, इसलिए मैं इसे अपने ब्लाग कस्बा पर पोस्ट कर रहा हूँ। आमीन!
(रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार)
- रवीश के इस पत्र का आईपीएस अधिकारी धर्मेंद्रसिंह यादव की ओर से दिया गया करारा जवाब पढ़ने के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें-
टीवी पत्रकार रवीश कुमार को एक पुलिस अफसर ने दिया ठोक के जवाब