क्या आपको इन दिनों टीवी चैनल कुछ सूने-सूने से लग रहे हैं? यदि नहीं लग रहे तो लगना चाहिए क्योंकि मुझे लगता है न्यूज चैनल के स्टूडियोज का डेसिबल लेवल थोड़ा कम हुआ है। और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कई राजनीतिक दलों ने टीवी चैनलों की माथाफोड़ी, जिसे वे डिबेट कहते हैं, में अपने नुमाइंदों को भेजना बंद कर दिया है।
पता चला है कि ऐसा फैसला करने वालों में कांग्रेस के अलावा बसपा, सपा और आरजेडी जैसे दल भी शामिल हैं। इनमें से कांग्रेस ने तो मुखर तौर पर ऐसा करने का ऐलान किया है। उसके प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने पार्टी के इस फैसले की जानकारी देते हुए ट्वीट किया है कि ‘’कांग्रेस ने एक महीने के लिए पार्टी प्रवक्ताओं को टीवी डिबेट में नहीं भेजने का फैसला किया है। सभी मीडिया चैनलों और संपादकों से अपील है कि वे अपने शो में कांग्रेस के किसी भी प्रतिनिधि को शामिल न करें।‘’
लोकसभा चुनाव के दौरान टीवी चैनलों की डिबेट में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाली कांग्रेस ने अपने नेताओं को इससे अलग क्यों किया इसके कारणों का खुलासा तो नहीं किया गया है, लेकिन माना जा रहा है कि पार्टी अभी अंदरूनी तौर पर ही इतनी उलझी हुई है कि किसी के मुंह से कुछ भी निकल जाने के खतरे को झेलना उसकी मुसीबतों को और बढ़ा देगा। और इनमें सबसे बड़ा मामला खुद राहुल गांधी से जुड़ा है।
चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद राहुल गांधी ऐलान कर चुके हैं कि वे पार्टी अध्यक्ष नहीं बने रहना चाहते और पार्टी नेहरू-गांधी परिवार से इतर किसी और को अपना नेता चुने। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह से लेकर पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता राहुल से अपने फैसले पर पुनर्विचार का आग्रह कर चुके हैं और कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों से भी ऐसी ही मंशा वाले प्रस्तावों की झड़ी लगी हुई है पर राहुल अभी नहीं माने हैं।
जाहिर है ऐसे कठिन समय में यदि कोई भी उठकर किसी चैनल पर कुछ भी बक आए तो पार्टी को और लेने के देने पड़ सकते हैं, लिहाजा बेहतर यही समझा गया होगा कि फिलहाल इस मोर्चे को तो ठंडा रखें। वैसे भी कांग्रेस में बयानवीरों और बगैर सोचे समझे बुक्का फाड़ने वालों की कोई कमी नहीं है। खास तौर से राजनीति की नाजुक घडि़यों में अपने ही नेताओं द्वारा दिए गए ऊलजलूल बयानों के जितने घाव कांग्रेस ने सहे हैं उतने शायद ही किसी दल ने सहे हों।
याद कीजिए मणिशंकर अय्यर का गुजरात चुनाव के वक्त दिया गया प्रधानमंत्री मोदी को ‘नीच’बताने वाला बयान। उस बयान ने गुजरात में अच्छी भली स्थिति में चल रही कांग्रेस की ऐसी तैसी कर दी थी। ठीक उसी तरह अभी लोकसभा चुनाव के दौरान गांधी परिवार के बहुत नजदीकी और राहुल गांधी के सलाहकार सैम पित्रोदा ने 1984 के सिख दंगों को लेकर कह डाला था कि- हुआ तो हुआ। यह हुआ तो हुआ कांग्रेस पर कितना भारी पड़ा यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। इसी तरह चाहे शशि थरूर हों या दिग्विजयसिंह, कांग्रेस अपने इन वरिष्ठ नेताओं के बेवक्त, बेजरूरत दिए गए बयानों की चोट खाए बैठी है। तो उसका यह फैसला ठीक ही माना जाना चाहिए कि फिलहाल कोई नेता टीवी चैनलों पर जाकर आंय बांय सांय न बक आए।
लेकिन क्या अपने नेताओं को टीवी चैनल पर जाने से रोकने से ही काग्रेस की मुश्किलें हल हो जाएंगी। क्या उसके नेताओं का टीवी चैनलों पर जाना और कुछ भी बोल देना ही समस्या की असली जड़ है या फिर मामला कुछ और है? मुझे लगता है नेताओं को टीवी चैनलों पर जाने से रोककर न तो कांग्रेस की मुश्किलें हल होने वाली हैं और न ही देश के राजनीतिक परिदृश्य में उसकी वापसी होने वाली है।
आज जरूरत इस बात की नहीं है कि आप अपने नेताओं को चैनलों पर जाने से रोक दें। यह समय नेताओं को चुप कराने का नहीं बल्कि उन्हें चुप रहना और सही समय पर सही बात बोलना सिखाने का है। दरअसल चैनलों का माइक देखते ही नेताओं की जबान में खुजली होने लगती है। और अपनी जबानी खुजाल मिटाने के लिए वे पार्टी की फजीहत कर डालते हैं।
वैसे आज कोई भी दल इस वायरस से अछूता नहीं है। याद कीजिए कैसे भोपाल से भाजपा की प्रत्याशी प्रज्ञासिंह ठाकुर ने अपनी उम्मीदवारी घोषित होने के तत्काल बाद पहले हेमंत करकरे की शहादत को लेकर विवादास्पद बयान दिया था और बाद में कैसे कमल हासन के नाथूराम गोडसे को पहला हिंदू आतंकवादी बताने वाले बयान का जवाब देते हुए गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बता डाला था।
प्रज्ञा ठाकुर के उस बयान ने चुनाव के अंतिम चरणों में पूरी भाजपा को डिफेंसिव होने पर मजबूर कर दिया था। पार्टी ने न सिर्फ प्रज्ञा से माफी मंगवाई थी बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बयान से हो सकने वाला नुकसान रोकने के लिए यह कहना पड़ा था कि- ‘’उन्होंने (प्रज्ञा ठाकुर) भले ही माफी मांग ली हो पर मैं मन से उन्हें कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।‘’
मोदी जी का वह बयान अभी मुझे उस वक्त भी याद आया जब इंदौर जिले के महू की विधायक उषा ठाकुर ने, प्रधानमंत्री के उस गुस्से की भी अनदेखी करते हुए फिर से प्रज्ञा ठाकुर टाइप बयान दे डाला। सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो के मुताबिक जब उनसे पूछा गया कि क्या वह गोडसे को राष्ट्रवादी मानती हैं? इस पर भाजपा विधायक ने जवाब दिया ‘’वह तो राष्ट्रवादी हैं ही।’’ मुझे पता नहीं कि अब उषा ठाकुर के बयान पर प्रधानमंत्री की क्या प्रतिक्रिया है और वे पुरानी ठाकुर की तरह इस नई ठाकुर को भी माफ कर पाएंगे या नहीं?
पुराने लोगों को याद होगा कि काफी पहले टीवी पर एक सीरियल आया करता था जिसका शीर्षक था- ‘तोल मोल के बोल।‘ लेकिन आजकल के नेताओं ने इसे बदलकर यूं कर दिया है- ‘तू तो मुंह खोल और जो मन में आए सो बोल…’ ऐसे में जरूरत बोलने पर पाबंदी लगाने से ज्यादा चुप रहने की आदत डालने की है। लेकिन जो चुप रह जाए वो नेता ही क्या… सारी दुकानें ही तो मुंहजोरी पर चल रही हैं…!!