विजयमनोहर तिवारी

2009 की बात है। मेरा एकमात्र उपन्यास ‘एक साध्वी की सत्ता कथा’ छप चुका था। एक दिन फोन आया। उधर से मोतियों जैसे शब्द और मधुर स्वर में कोई इस पुस्तक के लिए मुझे मुक्त मन से शुभकामनाएं दे रहा था। मैं नाम नहीं सुन पाया था। इसलिए नाम पूछ लिया। उधर से आवाज आई-“मैं कुमार विश्वास बोल रहा हूं।’

वे मुंबई के किसी कवि सम्मेलन से अपने घर लौटे थे। होटल में एक सहयोगी कवि ने मुंबई आते समय रेलवे स्टेशन से वह पुस्तक ली थी। कुमार विश्वास की नजर पड़ी। वे शायद अपने साथ ले गए और मुझे फोन किया। तब तक युवाओं में उनकी प्रसिद्धि का परचम लहराया हुआ था। उस ताजा प्रसिद्धि के मूल में थी ये पंक्ति-“कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है।‘’

कविता में मेरी बहुत समझ नहीं है। मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा। मेरे कोष में भाषा का अल्प संचय भी उतना ही है, जितना अखबारी आवश्यकता थी। मगर वह पंक्ति कुमार के कंठ से सुनकर कोई भी दीवाना हो सकता था। विशेष रूप से उस आयु में जब प्रेम के अंकुरण जीवन में फूटते हैं।

कुमार से मेरी पहली भेंट प्रयागराज में हुई, जब मेरी भारत यात्राओं का क्रम शुरू हो गया था। कटरा में मैं एक वकील साहब के यहां सुबह की चाय पी रहा था। उनके एक प्रोफेसर मित्र भी थे। उनका फोन बजा। फोन पर घंटी के बजाए कुमार की कविता गूंज रही थी। मैंने कहा कि लगता है कि आप कविता प्रेमी हैं। किंतु वे कुमार प्रेमी निकले। प्रतीक रूप में यह कविता फोन में सजा रखी थी। मैंने पूछा कभी मिले हैं अपने प्रिय कवि से? वे बोले, नहीं।

मैंने यूं ही कुमार को फोन लगाया। संयोग से उन्‍होंने उठा लिया। मैंने पूछा कवि महोदय कहां हैं? वे बोले प्रयागराज में, एक कॉलेज में कार्यक्रम है। मैं उन प्रोफेसर मित्र को लेकर वहीं जा पहुंचा। पहली बार कुमार को साक्षात् सुना। फिर इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल के सूत्रधार प्रवीण शर्मा के साथ भी ऐसा ही प्रसंग आया और कुमार इंदौर में सजने वाली सुलगती सांझों के मंच पर प्रकट हुए। वे एक बार मंडी बामौरा में कविता पढ़ने गए। मुझे अखबार से पता चला तो उन्हें बताया कि वह मेरा जन्मस्थान है। पहले पता होता तो वहीं आकर सुनता!

हम उन्हें अरसे से सुन रहे हैं। मंचों पर। टीवी पर। मोबाइल पर। वे हमारे समय के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। वे आम आदमी पार्टी के गर्भधारण की प्रक्रिया में अण्णा हजारे के मंच पर अरविंद केजरीवाल के साथ उतरे मगर वह उनके जीवन का घातक मोड़ सिद्ध हुआ। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अलख जगाने के वास्ते दिल्ली के मंच की ओर जाते हुए वे यह साइनबोर्ड पढ़ना भूल गए थे-“सावधान, आगे खतरनाक मोड़ है।’ घाव अब तक हरे हैं।

वे 25 साल से देश-विदेश में कविता, लिटरेचर फेस्टिवल, टीवी शोज का अटूट हिस्सा हैं, जिनके वीडियो सोशल मीडिया के मंचों पर घूम-घूमकर आते हैं। सुने जाते हैं। चर्चा का विषय बनते हैं। मेरा उनसे परिचय 13 साल पुराना है। हम कई बार मिले हैं। मगर मैं आज उन पर क्यों लिखने बैठा हूं?

मैंने रामकथा के मंच से उन्हें कुछ दिन पहले अपने मोबाइल पर सुना। आपने भी सुना होगा। एक भरत का प्रसंग, दूसरा सीता का प्रसंग। और प्रसंग भी होंगे। मैंने उन्हें सुनने वालों को भी गौर से देखा। वह एक नया वर्ग है। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के समय अपना कॅरिअर शुरू करने वाला एक ऐसा वर्ग, जो अब तीस साल बाद अपनी अगली युवा होती पीढ़ी के साथ भारत की स्वतंत्रता का अमृतकाल देख रहा है।

आर्थिक रूप से समृद्ध और तकनीकी रूप से सुसंपन्न लगभग कुमार विश्वास के हमउम्र हजारों परिवार। वे अपने समय के एक लोकप्रिय कवि से संसार की सबसे महान और सर्वाधिक गाई जाने वाली कविता की व्याख्या सुन रहे हैं। न राम की वह कविता नई है, न उसका व्याख्याकार कवि नया है। फिर भी सब कुछ नूतन है। मन करता है सुनते रहो। मेरी दृष्टि में एक कवि के रूप में कुमार की जीवन यात्रा का यह गौरीशंकर पड़ाव है। वे अब तक अर्जित अपने यश के मानसरोवर पर जा पहुंचे हैं। तब मुझे लगा कि उन पर कुछ लिखना चाहिए। कुछ उनके सम्मान में और कुछ उनकी सावधानियों पर।

मैं अक्सर कहता हूँ कि हमसे अधिक योग्य, हमसे अधिक अनुभवी बहुत लोग हैं, जिन्हें सही समय पर सही जगह नसीब नहीं हुई, सही जगह पर सही लोगों के मिलने का संयोग नहीं मिला। जीवन सांप-सीढ़ी सा खेल है। एक सही अवसर सीढ़ी के खांचे पर लाकर कहीं पहुंचा देता है और एक गलत निर्णय सांप के खांचे में धकेलकर कहीं और ही पहुंचा देता है। जीवन की कुल कथा एक सांप और एक सीढ़ी के बीच का संक्षिप्त बयान है।

कोई अपने लिए जितनी विराट सफलता की कामना कर सकता है, कुमार विश्वास उससे कई गुना हासिल कर चुके हैं। कोई अपने जीवन में जितने अपार यश की आकांक्षा कर सकता है, कुमार की झोली उससे कई गुना अधिक भरी है। वह उनकी प्रतिभा और पुरुषार्थ की पूंजी है। वे इसे अपने माता-पिता के आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा का प्रसाद मानेंगे। एक संस्कारवान भारतीय संतान से यही अपेक्षित भी है। वे जीवन में इतना कुछ पा चुके हैं कि उन्होंने गाजियाबाद के गांव से बाहर पहली बार काव्य मंच की ओर कदम बढ़ाते हुए कभी कल्पना भी नहीं होगी!

मैं एक कवि के रूप में उनके निकट जितना नहीं था, रामकथा ने विवश कर दिया कि मैं थोड़ा और सरककर बहुत पास से सुन लूं। धार्मिक पृष्ठभूमि में मुरारी बापू के भव्य मंचों से भी रामकथा का प्रवाह देखा-सुना है। कुमार विश्वास रामकथा के आधुनिक, आकर्षक और प्रभावशाली प्रवक्ता हैं, जिनके सामने एक नए भारत की बिल्कुल ही नई पीढ़ी आकर बैठी है। मैं कहता हूं आज के स्कूल-कॉलेज के बच्चों को साफ हिंदी के लिए उन्हें सुनना चाहिए! वे एक चलती-फिरती कक्षा हैं।

ध्यान दीजिए, रामकथा के मंच पर उनकी वाणी कैसी खिल उठी है। जैसे गुलाब की पंखुड़ियां सुबह की ओस में अँगड़ाई लेकर फैल रही हों। बीच व्याख्या में बाँसुरी की मधुर और मंद स्वरलहरी रामकथा के रसिक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती है, जब वे भरत की मूर्ति को विराट बना देते हैं। रामकथा का हर अमर पात्र जीवंत कर देते हैं। ऐसा कि वह जीवन की सारी प्रेरणा का एकमात्र मूल बन जाए। हरेक का जीवन एक विलक्षण सार और सार्थकता से भरा हुआ लगे। पात्रों के रूप में वे प्रेरणा का लबालब कलश सामने उतार देते हैं ताकि उठने के पहले अंजुलि भर पुण्य हम भी पा सकें!

कुमार विश्वास के लिए यह उनके काव्य मंचों की सीढ़ी का सबसे ऊंचा पायदान है। इसे छू लेने के बाद कढ़ाईदार चटख सूटेड-बूटेड स्वरूप में टीवी शोज उनका बोल्टेज कम ही कर रहे हैं, जहाँ खोखली तालियों की खाली गड़गड़ाहटें हैं और नकली रोशनियों का चमचमाता हुआ अंधेरा है। उनकी वाणी बहुत मूल्यवान है। यह हर कहीं लुटाने के लिए नहीं है। विश्लेषण बुद्धि अद्भुत है, व्याख्या की शैली के क्या कहने, भाषा उन्हें संस्कार से मिली है। ईश्वर प्रदत्त इस बौद्धिक संपदा के व्यय के लिए अब उन्हें सावधान और सजग होना चाहिए।

कुमार एक सामान्य कवि भर नहीं है, यह उसी दिन सिद्ध हो गया, जब राघवेंद्र सरकार को अपने भीतर उतारकर सदियों से भारत की आत्मा में समाए एक महानायक का पहला प्रसंग मंच से कहा होगा। एक बार व्यासपीठ पर विराजित हो गए तो कविता के मंचों के सस्ते हास-परिहास से उन्हें विमुख होना ही चाहिए। फूहड़ टीवी शोज की बहसबाजी कुमार विश्वास के लिए नहीं है, वहां विदूषकों की बहुत भीड़ है। रामकथा के लिए उन्हें राम ने ही चुना है। इस ऊंचाई की गरिमा को बनाए रखना अकेले कुमार का ही काम है।

अरुण गोविल से सीखिए। राम की भूमिका में रहकर सौम्य अरुण गाेविल ने इसे बहुत ठीक से समझ लिया था। टीवी स्क्रीन पर रामायण को आए और गए 32 साल हो गए। वह उनके अभिनय का शिखर था। उस धारावाहिक में वे अपनी लोकप्रियता के मानसरोवर पर थे। उन्हें भी फिल्मों और विज्ञापनों के आकर्षक प्रस्ताव क्या कम रहे होंगे? मगर राम में उतरने के बाद सब अर्थहीन हो गया। वे इन तीन दशकों में लगभग पृष्ठभूमि में ही रहे। किसी सस्ती चमक ने उन्हें कभी आकर्षित नहीं किया।

यही कारण है कि इतने साल बाद भी मुंबई एयरपोर्ट पर उन्हें देखकर एक महिला श्रद्धाभाव से उनके चरणों में अपना सिर रखकर जब अस्पताल के बिस्तर पर अपने पति से जाकर मिलती है तो भावविभाेर होकर कहती है कि आज राम के दर्शन हो गए, आप स्वस्थ हो जाएंगे! यह सबसे ताजा वीडियो है, जो देश भर में वायरल हुआ।

अरुण गाेविल भी अमिताभ बच्चन की तरह दो-दो कौड़ी के विज्ञापनों में अभिनय की हम्माली कर रहे होते तो पैसा निस्संदेह बहुत धन कमा लेते। स्क्रीन पर भी लगातार छाए रहते। लाइमलाइट में बने रहते। मगर जनमानस में राम के साथ एकरूप होने का ऐसा दुर्लभ सम्मान एक अभिनेता के जीवन का गौरीशंकर पड़ाव है! अस्सी के दशक के कितने एक्टर आज कालातीत हो चुके हैं। अरुण गोविल की छवि आज भी राम सी आस्था के साथ अमिट है।

राम जब किसी को अपने लिए चुनते हैं तो उससे ऐसी अपेक्षा स्वाभाविक है। राम का अंश उसके जीवन में झलकना ही चाहिए। रामकथा का आसन सिनेमाई सेट नहीं है, न ही टीवी शो और न ही कविता का मंच, जिससे उतरकर आप अपनी उसी घिसी-पिटी दुनिया के पेशेवर आदमी हो जाते हैं।

मैं ज्योतिषी नहीं हूं मगर कुमार विश्वास को सावधान करूंगा कि वे कभी राजनीतिक महात्वाकांक्षा में न आएं। राजनीति कभी उनके जीवन की कोई सार्थक सीढ़ी सिद्ध नहीं होगी। नीति के प्रवक्ता बनना, राजनीति के नहीं। जब आप किसी स्तर को छू लेते हैं तो नियति आपसे अगली चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है। धकेलती है। एक सीमा वह भी आती है, जहां चुनौतियां समाप्त हो जाती हैं। पहाड़ों से गिरती गंगा का हरिद्वार आ ही जाता है। रामकथा का आसन कुमार विश्वास के लिए वही हरिद्वार है। अब शांति से मैदानों को उर्वर बनाने में लगिए। कुंभ में सबके मिलने का निमित्त बनिए। यह गंगासागर की ओर अग्रसर होने का पुण्य अवसर है।

यह भी ध्यान रहे, राम कथा में उनके श्रोता बेसुध भक्तों की तरह अर्द्धनिद्रा में नहीं हैं। वे पूर्ण सजग और सावधान हैं। इसलिए जब कुमार विश्वास सहज रूप से भारत के पहले शिक्षा मंत्री “शुद्ध मौलाना’ को “शिक्षाविद्’ कहकर आदरांजलि व्यक्त करते हैं तो रामकथा के मंत्रमुग्ध श्रोता चौंक उठते हैं। कुमार के फेसबुक पेज पर उनकी टिप्पणियां प्रमाण हैं कि उनसे उनके प्रशंसकों की अपेक्षाएं कितनी विशाल हैं। अत: तय मानिए कि आपकी हर अभिव्यक्ति और हर गतिविधि पर अब समाज की तीक्ष्ण दृष्टि है। इसलिए विचारों और भावनाओं की मितव्ययता श्रेयष्कर है।

नई पीढ़ी के कवियों को देख-परखकर मंच पर लाने और खुलकर उनकी प्रशंसा करके आगे बढ़ाने का काम कुमार विश्वास के व्यक्तित्व का नया आकाश है। अपनी ही विधा में कोई किसी को आगे नहीं लाता। उल्टा आगे आने वालों के अवसर छीनता है। हर क्षेत्र और हर विधा में गलाकाट प्रतिस्पर्धा के भारतीय परिवेश में आगे बढ़ने की यही पहली रीति-नीति है और इसके सहारे औसत दर्जे के लोग ही शिखरों पर सुशोभित होते हैं। कुमार ने काव्य मंचों के शिखरों को छुआ और अब संघर्षशील प्रतिभाओं को चुनकर अवसर दे रहे हैं। यह अपने ही संसार को विस्तृत करने जैसा पुण्य कार्य है।

राम ही आपका संसार विस्तृत कर रहे हैं। राम आपके साथ हमारा संसार सफल कर रहे हैं। राम के संग रहने वाला अपने धवल प्रवाह का ध्यान स्वयं रखेगा। इतना भीतर उतरने के बाद राम उसे यहां-वहां कभी नहीं होने देंगे। इतना भीतर उतरने के बाद राम ने किसे यहां-वहां होने दिया है?
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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