सरयूसुत मिश्रा

सरकारों के महापाप या तो दूसरी सरकार गिनाती है या उसी सरकार के असंतुष्ट उजागर करते हैं। महापाप वैसे तो कभी कभार और चुनाव के समय कुछ ज्यादा ही सुनाई पड़ते हैं लेकिन महापाप के लिए महादंड का नजारा कम ही दिखाई पड़ता है। किसी भी सरकार के महापाप का संताप किसे भुगतना पड़ता है? सरकार जो भी करती है चाहे वह अच्छा हो, चाहे खराब हो, उसका अंततः प्रभाव जनता पर ही पड़ता है।

सरकारों के महापाप में जनता अपने जनादेश के पुण्य को गंवा देती है। अध्यात्म में ऐसा कहा जाता है कि पुण्य और पाप का फल अवश्य मिलता है। राजनीति में एक सरकार के पाप का पुण्य दूसरी सरकार को तो मिलता है लेकिन पाप करने वाले को दंड मिलता हुआ कम ही दिखाई पड़ता है। पक्ष-विपक्ष की सरकारों के महापाप और पुण्य की राजनीति में सत्ता की अदला-बदली हो जाती है लेकिन महापाप करने वाले दंड से क्यों बच जाते हैं? ऐसे हालात क्‍या लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली को मजबूत कर रहे हैं?

मध्यप्रदेश में पूर्व की कांग्रेस सरकार के पांच महापापों की चर्चा छिड़ी है। कांग्रेस सरकार का पहला पाप सिंचाई परियोजनाओं में महाघोटाले को बताया गया है। टेंडर की शर्तों में संशोधन कर करोड़ों रुपए का लाभ ठेकेदारों को पहुंचाया गया। इस महापाप के लिए जिम्मेदार राजनेताओं को दंड नहीं देना, क्या लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर नहीं करेगा? दूसरा पाप सरकार द्वारा प्रतिशोध की कार्यवाही को बताया गया है। जिस सरकार ने जिन लोगों के साथ भी प्रतिशोध की कार्यवाही की है, सरकार के प्रतिशोध को जिन लोगों ने भोगा है, उनका उपयोग क्या सत्ता बदलाव के लिए करना ही पर्याप्त है? क्या ऐसा प्रयास नहीं होना चाहिए कि सरकारों में प्रतिशोध की संभावनाएं न्यूनतम या समाप्त हो जाएं।

तीसरे पाप के रूप में बताया गया है कि तत्कालीन सरकार ने जन कल्याण की योजनाएं बंद कर दी थी। जो योजनाएं बंद की गई थीं उन्हें जनहित की दृष्टि से निश्चित रूप से ही चालू कर दिया गया है। योजनाओं को बंद करने के पीछे अगर कोई राजनीतिक दृष्टिकोण उस समय की सरकार का था तो सरकारों में यह प्रयास क्यों नहीं किया जाना चाहिए कि जो योजनाएं विधिवत वैधानिक प्रक्रिया के साथ किसी भी सरकार द्वारा एक बार चालू कर दी गई हैं उनको बिना पर्याप्त शोध और तार्किक कारण के बंद नहीं किया जा सके। 

जलजीवन मिशन को प्रारंभ नहीं करने को कांग्रेस सरकार का चौथा महापाप बताया गया है। तत्कालीन सरकार में सत्ता के अहंकार को पांचवा महापाप बताया गया है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। जनादेश द्वारा सरकार को लोक सेवा की जिम्मेदारी दी जाती है। सेवक में अहंकार की कोई जगह नहीं होती लेकिन सरकारों में अहंकार ना हो तो फिर सरकार ही कैसे मानी जाएगी? लोकतांत्रिक राजनीति क्या सत्ता प्राप्ति के लिए आरोप लगाने तक ही सीमित हो गई है?

हर राज्य में हर दल द्वारा चुनाव के पहले अक्सर तत्कालीन सरकार के विरुद्ध आरोप पत्र जारी किए जाते हैं। उन आरोपों में सरकारों को भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के लिए कठघरे में खड़ा किया जाता है। कई बार जनता आरोप पत्रों पर विश्वास कर लेती है। जनादेश से सत्ता बदलाव हो जाता है। आरोप पत्र जारी करने वाली पार्टी सत्ता में आने के बाद आरोपों को कूड़े में डाल देती है। 

राजनीतिक वक्तव्यों की विश्वसनीयता पर गहरा संकट खड़ा हो गया है। केंद्र और राज्यों में हुए अब तक के चुनाव और पक्ष विपक्ष के बीच सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार और अनैतिकताओं के पाप और महापाप के आरोपों को अगर संग्रहित किया जाए तो जनादेश देने वाली जनता राजनीतिक महापाप को महापुण्य समझने की भूल कर सकती है। जिन पर आरोप लगते हैं वह वक्त के साथ भुला दिए जाते हैं और महापाप में शामिल राजनीतिज्ञ सरकार के सूत्र चलाने लगते हैं। 

संसदीय शासन प्रणाली की बुनियाद क्या अब सत्यता से दूर होती दिख रही है? क्या राजनीतिक फरेब सफल होते हुए दिखाई पड़ रहे हैं? तमाम सारे दावों के बावजूद जनता की बदनसीबी का पहाड़ कम क्यों नहीं हो रहा है? नेताओं की फौज, मौज करते हुए क्यों दिखाई पड़ती है? लोकतंत्र में कोई केमिकल लोचा तो नहीं हो रहा है? आरोप लगाकर राजनीतिक लाभ लेना और बाद में उनको भुला देना, महापाप करने वालों को दंड नहीं मिलना क्या लोकतंत्र को कमजोर नहीं कर रहा है?

आज पूरी दुनिया पंथ और मजहब में विभाजित है। हर मजहब अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को कमतर करने में लगा हुआ है। धार्मिक विवादों की जड़ भी यही है। यही हालात राजनीतिक जगत के भी दिखाई पड़ रहे हैं। राजनीतिक दल और नेता दूसरे की गलतियों को राजनीतिक हथियार बनाकर जन विश्वास हासिल करने की महारत हासिल कर रहे हैं। उस पब्लिक के बारे में कोई नहीं सोच रहा है जो हर समय किसी न किसी सरकार के महापाप का भुक्तभोगी बनती है।

राजनीति की यह उलटबांसी पब्लिक के लिए भारी साबित हो रही है। ऐसी अचरज की परिस्थितियां पब्लिक को देखना पड़ती हैं कि सारी समझ ही कुंद होने लगती है। सरकारों के महापाप और वर्तमान राजनीतिक हालात पर संत कबीर की यह पंक्तियां कितनी मौजू हैं-

देखि-देखि जिय अचरज होई, यह पद बूझें बिरला कोई॥
धरती उलटि अकासै जाय, चिउंटी के मुख हस्ति समाय।
बिना पवन सो पर्वत उड़े, जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े।
सूखे सरवर उठे हिलोरा, बिनु जल चकवा करत किलोरा।
बैठा पंडित पढ़े कुरान, बिन देखे का करत बखान।
कहहि कबीर यह पद को जान, सोई संत सदा परबान॥
( लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
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