समुचित सेवा और सामग्री मिले तो कोई आरोप भी नहीं लगेगा

गिरीश उपाध्‍याय

कुछ दिन पहले मैंने इसी कॉलम में लिखा था कि कोरोना महासंकट से निपटने में कमजोरी के लिए, संसाधनों की कमी से भी ज्‍यादा, प्रबंधन की गफलत जिम्‍मेदार है। यहां एक बात मैं साफ कर दूं कि ऐसा कहकर मैंने न उस समय संसाधनों और आवश्‍यक वस्‍तुओं की कमी को नजरअंदाज किया था और न ही मैं आज ऐसा करने जा रहा हूं। आज भी मेरा मानना है कि कोरोना और उससे जुड़े मामलों को लेकर जिन-जिन वस्‍तुओं की कमी या किल्‍लत का सामना लोग कर रहे हैं, उनकी उपलब्‍धता तो सुनिश्चित होनी ही चाहिए, वे सारी आवश्‍यक और जीवनरक्षक वस्‍तुएं लोगों को हर हाल में और समय पर सुगमता से मिलनी ही चाहिएं, लेकिन उसके साथ ही मेरा यह भी मानना है कि चीजों की उपलब्‍धता और कमी दोनों ही स्थितियों में सेवा और वस्‍तु का प्रबंधन ऐसा होना चाहिए कि वह किसी भी कमी के कारण होने वाले नुकसान को कम से कम कर सके।

अब यदि इसी संदर्भ में हम अपने आसपास के हालात पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि कई वस्‍तुओं की आपूर्ति में धीरे धीरे सुधार तो हुआ है लेकिन जरूरमंदों तक उनकी पहुंच बनाने की प्रक्रिया में अभी भी कई खामियां बनी हुई हैं। यह सच है कि एक समय पूरे देश में ऑक्‍सीजन और रेमडेसिविर इंजेक्‍शन के लिए हाहाकार मचा हुआ था पर आज वो स्थिति नहीं है। अस्‍पतालों में बेड के लिए भी उतनी मारामारी नहीं हो रही। लेकिन कोरोना से निपटने में सबसे अधिक जरूरी और प्रभावी चीज वैक्‍सीन के मामले में मारामारी अपने चरम पर है।

भारत ने दुनिया के बड़े बड़े देशों के सामने उस समय मिसाल पेश की थी जब उसने अपने यहां एक देशी टीके कोवैक्‍सीन को विकसित करने के अलावा विदेशी सहयोग से कोविशील्‍ड जैसे टीके का अपने यहीं निर्माण शुरू कर दिया था। शुरुआत में तो यह स्थिति रही कि हमने ये टीके मानवीयता के आधार पर कई देशों को भेजे। लेकिन अब इन्‍हीं टीकों को लेकर भारत में ही मारामारी मची हुई है। आज हालत यह है कि देश के अधिकांश राज्‍य अपने यहां की आबादी को टीका लगवाना चाहते हैं लेकिन टीकों की पर्याप्‍त उपलबधता नहीं है।

देश में जब टीके लगाने की शुरुआत हुई थी उस समय सबसे पहले स्‍वास्‍थ्‍य एवं चिकित्‍सा सेवा में लगे लोगों को और फ्रंटलाइन वर्कर्स को ये टीके लगाए गए थे। उसके बाद 60 साल से अधिक उम्र के लोगों को और ऐसे लोगों को जो किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्‍त रहे हों, ये टीके लगाने का अभियान चला। बाद में इसे और विस्‍तारित करते हुए 45 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को भी टीकाकरण अभियान में शामिल किया गया और दबाव पड़ने के बाद 18 साल से अधिक उम्र के सभी लोग टीकाकरण के दायरे में शरीक कर लिए गए।

यह सही है कि शुरुआती दौर में टीकाकरण के प्रति लोगों के मन में उतना उत्‍साह नहीं था, बल्कि यूं कहें कि एक तरह की उदासीनता थी। पर जिस तरह लोगों ने पिछले एक डेढ़ महीने में कोरोना के कारण होने वाली मौतों का तांडव देखा है और जिस तरह इलाज न मिल सकने वाले लोगों की पीड़ा सामने आई है उसके चलते अब लोग टीका लगवाने के प्रति सचेत हुए हैं और टीका लगवाना चाहते हैं। पर जितनी संख्‍या में लोग टीके लगवाना चाहते हैं, अब उतनी संख्‍या में टीकों की उपलब्‍धता और आपूर्ति राज्‍यों को नहीं हो पा रही है क्‍योंकि मांग और आपूर्ति का अंतर बहुत अधिक है।

इस अंतर के चलते राज्‍यों के सामने मुश्किल यह आ रही है कि वे टीका लगवाने आने वालों को क्‍या जवाब दें। चूंकि टीके के मामले में ज्‍यादातर बातों के अधिकार केंद्र सरकार के पास हैं इसलिए खासतौर से उन राज्‍यों को केंद्र पर यह आरोप लगाने का अवसर मिल गया है कि केंद्र सरकार की लापरवाही और कमजोरी के चलते उनके यहां का टीकाकरण कार्यक्रम प्रभावित हो रहा है। इस आरोप प्रत्‍यारोप के सिलसिले ने एक अलग तरह की राजनीति को अवसर दे दिया है और वह राजनीति होती दिख भी रही है।

निश्चित ही ऐसे मामलों में राजनीतिक दृष्टिकोण से चीजों को नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन मामला यदि लोगों की सेहत का हो, उनकी जान से जुड़ा हो तो सिर्फ यह कहकर बचा जाना भी ठीक नहीं कि इस मामले में राजनीति की जा रही है। मामला यदि लोगों के दुखों और कष्‍टों से जुड़ा हो, बीमारों के इलाज से जुड़ा हो, कोरोना का शिकार होने वालों की मौत से जुड़ा हो, उन्‍हें मिलने वाली ऑक्‍सीन और दवाओं से जुड़ा हो, मरने वालों के अंतिम संस्‍कार से जुड़ा हो, लोगों को कोरोना का शिकार होने से बचाने के लिए, लगने वाले टीके से जुड़ा हो, वहां भी यदि कहा जाए कि राजनीति नहीं होनी चाहिए तो फिर आखिर राजनीति होनी किस मुद्दे पर चाहिए?

यहां सवाल पक्ष और विपक्ष का नहीं है, सवाल लोगों को उनकी स्‍वास्‍थ्‍य जरूरत के मुताबिक मिलने वाली सेवा/सुविधा और संसाधनों का है। राजनीतिक बयानबाजी की आड़ लेकर न तो दोषारोपण से काम चलने वाला है और न ही मामले को राजनीति बताकर उसे खारिज कर देने से। अभी जो हालात हैं उनसे साफ लग रहा है कि देश में टीकों की पर्याप्‍त मात्रा में उपलब्‍धता न होने के कारण टीकाकरण कार्यक्रम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। सो, पहली आवश्‍यकता इस बात की है कि टीकों की उपलब्‍धता और आपूर्ति पर ध्‍यान दिया जाए। यदि समुचित मात्रा में टीके राज्‍यों को उपलब्‍ध करा दिए जाते हैं तो विपक्ष का या इस मामले पर कथित राजनीति करने वालों का मुंह तो अपने आप ही बंद हो जाएगा। (मध्‍यमत)
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नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

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