अब इन्‍हें कौन समझाए कि भारत का असली रंग कौनसा है?

देश में इन दिनों जिस तरह का माहौल है उसमें युवा पीढ़ी के लिए भारत की विविधता को सही परिप्रेक्ष्‍य में जानना बहुत जरूरी है। यह जानकारी केवल सामाजिक ताने बाने के लिहाज से ही नहीं बल्कि देश के विकास और आर्थिक प्रगति के लिहाज से भी आवश्‍यक है। भारत देश के रूप में भले ही एक इकाई हो लेकिन सामाजिक ढांचे के रूप में इसमें कई इकाइयां समाहित हैं। ये जो हम भारत की पहचान ‘अनेकता में एकता’ के रूपक के जरिये करते हैं, वह इसी बात का संकेत है कि भारत नाम की इस छतरी के नीचे खड़े रहने वाले लोग एक ही रंग, एक ही धर्म, एक ही जाति और एक ही वर्ग के नहीं बल्कि अलग अलग हैं। और विविधता के इन्‍हीं रंगों से भारत का रंग बनता है।

जिस तरह आप किसी बगीचे को एक ही रंग के पेड़ों, एक ही रंग के फूलों और एक ही स्‍वाद के फलों से रचने की कोशिश करें तो उसमें वह मजा नहीं होगा जो नाना प्रकार के पेड़ों, फूलों और फलों की मौजूदगी में होता है। तो भारत को भी जब एक रंग में रंगने की कोशिश होती है, तो मानकर चलिए कि यह उसे एकरस या एकजाई नहीं करता बल्कि बिखेरता है। दुर्भाग्‍य यह है कि विखराव की ये कोशिशों राजनीतिक क्षेत्र में और उसमें भी चुनाव के वक्‍त बहुत ज्‍यादा होती हैं।

हैरान करने वाली बात है कि चुनाव में उम्‍मीदवार तय करते समय उसकी योग्‍यता और क्षमता इस बात में ढूंढी जाती है कि वह किस जाति या संप्रदाय का है और उस पॉलिटिकल कांस्टिट्यूएंसी में उसकी जात या संप्रदाय के वोटरों की संख्‍या कितनी है। यह मानकर चला जाता है कि यदि अमुक जाति या पंथ के लोगों की संख्‍या बहुतायत में है तो उसी जात या पंथ से उम्‍मीदवार चुनने को प्राथमिकता दी जाए। दुर्भाग्‍य से यह ऐसा राजनीतिक टोटका है जो आशानुरूप सफल भी हो जाता है।

शायद इसीलिए 130 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री को, प्रचंड जनसमर्थन से सत्‍ता में आए प्रधानमंत्री को भी, चुनावी सभाओं में खुद को पिछड़ा और पिछड़ों में भी तेली, साहू आदि बताना पड़ता है। अभी बुधवार को भारतीय जनता पार्टी ने भोपाल संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के उम्‍मीदवार, पूर्व मुख्‍यमंत्री दिग्विजयसिंह के मुकाबले, प्रज्ञा भारती को अपना प्रत्‍याशी बनाया। अब वैसे तो चुनाव में किसी भी प्रत्‍याशी के बारे में बात यह होनी चाहिए कि जनता में उसकी कितनी पैठ है और क्षेत्र की समस्‍याओं व उनके निदान के साथ साथ क्षेत्र के विकास को लेकर उसकी समझ क्‍या है? लेकिन भाजपा उम्‍मीदवार को ‘हिंदू’ चेहरे के रूप में प्रोजेक्‍ट किया जा रहा है। सवाल यह नहीं कि आपको वोट कौन देता है और आप किसके वोटों से जीतते हैं, सवाल यह है कि आप जनता से अपना प्रतिनिधि चुनने को कह रहे हैं अथवा हिंदू या एंटी हिन्‍दू (आप यहां मुसलिम भी पढ़ सकते हैं।)

इन परिस्थितियों में क्‍या यह जरूरी नहीं लगता कि भारतीय समाज और भारतीय लोकतंत्र की विविधता के बारे में बच्‍चों को और अधिक जानना और समझना चाहिए। ऐसे समय में जब यह पता चलता है कि भावी नागरिक और भावी वोटर के रूप में तैयार हो रहे बच्‍चों में ‘लोकतंत्र और विविधता’ जैसे विषयों के प्रति अरुचि जगाने वाले फैसले हो रहे हैं तो हैरत होती है। हम बच्‍चों से ये जानकारियां छिपा कर, उन्‍हें इन जानकारियों से दूर करके आखिर क्‍या हासिल करेंगे? हां, आपत्ति इस बात पर हो सकती है कि जो जानकारी भारत की विविधता के बार में बच्‍चों को दी जा रही है उसमें कोई खोट है। यदि ऐसा है तो उसमें अवश्‍य सुधार होना चाहिए। यदि वह जानकारी एकपक्षीय है अथवा सामाजिक ताने बाने को विकृत ढंग से प्रस्‍तुत कर रही है तो उसमें संशोधन होना चाहिए, पर ऐसी जानकारियों से बच्‍चों को दूर करना समझदारी नहीं है।

आज हम समाज में जो गुस्‍सा, घृणा, हिंसा और असहिष्‍णुता का माहौल देख रहे हैं उसका एक बड़ा कारण यह है कि हम नई पीढ़ी को इस देश की गंगा जमुनी संस्‍कृति के बारे में सही ढंग से बता ही नहीं रहे हैं। और जब सही बातें या तथ्‍य सामने नहीं होते तो भटकाने या उकसाने वाली जानकारियां अपना असर दिखाने लगती हैं। चुनाव जैसे अवसरों पर यह भटकाव और उकसावा और अधिक तेजाबी होकर सामने आता है। नतीजतन मतदान भी उसी झोंक में होता है और बाद में उसका खमियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है।

दसवीं कक्षा की लोकतांत्रिक राजनीति पर केंद्रित किताब के जिन अध्‍यायों को मुख्‍य परीक्षा में मूल्‍यांकन के लायक नहीं पाया गया है जरा देखिए कि उनका कंटेट क्‍या है। आपकी जानकारी के लिए इस किताब के ‘लोकतंत्र और विविधता’ शीर्षक वाले अध्‍याय का एक पैरा मैं यहां दे रहा हूं, जो कहता है-

‘’किसी देश में सामाजिक विभिन्नताओं पर जोर देने की बात को हमेशा खतरा मानकर नहीं चलना चाहिए। लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति एक सामान्य बात है और यह एक स्वस्थ राजनीति का लक्षण भी हो सकता है। इसी से विभिन्न छोटे सामाजिक समूह, हाशिये पर पड़ी जरूरतों और परेशानियों को जाहिर करते हैं और सरकार का ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं। राजनीति में विभिन्न तरह के सामाजिक विभाजनों की अभिव्यक्ति ऐसे विभाजनों के बीच संतुलन पैदा करने का काम भी करती हैं। इसके चलते कोई भी सामाजिक विभाजन एक हद से ज्यादा उग्र नहीं हो पाता। इस स्थिति में लोकतंत्र मजबूत ही होता है।‘’

अब बताइए इसमें ऐसी कौनसी बात है जो बच्‍चों को नहीं जाननी या नहीं समझनी चाहिए। पर फैसला करने वाले लोगों को शायद इसमें किसी खतरे की बू आती हो। ठीक वैसे ही जैसे पिछले दिनों मध्‍यप्रदेश में सरकार ने एक फैसला किया कि मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी का कामकाज अब संस्कृति विभाग के अंतर्गत नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के अंतर्गत होगा। अब इन सरकारों को कौन बताए कि उर्दू सिर्फ अल्पसंख्यकों या मुसलमानों की ही जुबान नहीं है। वह सभी हिन्‍दुस्‍तानियों की जुबान है। क्‍या आप गालिब से लेकर साहिर लुधियानवी तक को भारत से अलग कर सकते हैं?

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