देश में चल रहे चुनावों के बीच मीडिया की भूमिका और उसके रवैये को लकर बहुत बातें हो रही हैं। मीडिया पर यह आरोप आम हो चला है कि वह ‘ऑब्जेक्टिव’ होकर नहीं बल्कि ‘सब्जेक्टिव’ होकर रिपोर्टिंग कर रहा है। मीडिया घराने और खासतौर से टीवी न्यूज चैनल्स साफ तौर पर भाजपा और कांग्रेस या भाजपा व गैर भाजपा जैसे खेमों में बंट गए हैं। और अब तो पत्रकारों की ओर से ही ये सलाहें दी जाने लगी हैं कि जब तक चुनाव चल रहे हैं, दर्शक कृपया न्यूज टीवी चैनल देखना बंद कर दें।
दूसरा मामला प्रिंट मीडिया का है। अभी तक होता यह था कि टीवी चैनलों की अतिशयोक्तिपूर्ण रिपोर्टिंग और बेसिर पैर की चीख चिल्लाहट भरी पैनल बहसों की ही आलोचना होती थी लेकिन मैं पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूं कि अब हिन्दी के बड़े अखबारों या मीडिया घराने भी इस आलोचना के दायरे में आ गए हैं, उनकी नीयत और कार्यशैली दोनों को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
ताजा मामला भोपाल से भारतीय जनता पार्टी द्वारा, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को कांग्रेस के उम्मीदवार, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह के खिलाफ अपना प्रत्याशी बनाए जाने का है। प्रज्ञा ठाकुर के नाम का ऐलान होने के अगले दिन अखबारों में उससे जुड़ी खबरों का हवाला देते हुए जाने माने साहित्यकार एवं आलोचक विजयबहादुर सिंह जी ने चर्चित कवि पंकज चतुर्वेदी का एक वाट्सएप संदेश मुझे फॉरवर्ड किया।
इस संदेश में कहा गया कि- ‘’कुछ समय के लिए टीवी पर समाचार चैनलों को देखना-सुनना बंद कर दीजिये!’- रवीश कुमार ने यह सुझाव शायद इसलिए दिया कि आप अपने मानसिक स्वास्थ्य एवं संविधानसम्मत भारत की विचारशीलता और उससे अपने मूल्यनिष्ठ लगाव को बचाये रख सकें। मगर उन्हें अपने परामर्श में यह भी जोड़ देना चाहिए था कि इसी प्रयोजन से ज़्यादातर हिंदी अख़बारों को भी एक-डेढ़ महीनों के लिए पढ़ना बंद कर दीजिये!’’
‘’हिंदी और अंग्रेज़ी के अख़बार में यही फ़र्क़ है कि जहाँ आज हिंदी अख़बार ने हत्या और आतंकवाद की अभियुक्त को लोकसभा चुनाव प्रत्याशी बनाये जाने की ख़बर को भाषा, लहजे और प्रस्तुति के अंदाज़ से ‘सेलेब्रेट’ किया है; वहीं ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने मुखपृष्ठ पर इस ‘लीड’ समाचार का शीर्षक दिया है-‘मालेगाँव बम धमाके में हत्या की अभियुक्त को टिकट।’ साथ में, मुखपृष्ठ पर ही इस बारे में लेख छापा है, जिसका शीर्षक है:”अयोध्या के शिल्पकार बाहर, नये युग के हिंदुत्व में प्रवेश।”
‘’सवाल है कि ‘सत्ता से सत्य कह सकने’ (Speaking truth to power) का हिंदी का साहस कहाँ बिला गया है? हिंदी तो स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आज़ादी के लिए संघर्ष की भाषा थी; उसे मौजूदा दौर में हिंदी के ही अधिकांश प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने, उत्पीड़न और ग़ुलामी के यथार्थ के, मूक और विवश स्वीकार के लिए,आम जनता को तैयार करने की भाषा में बदल दिया है।‘’
‘’बेसबब नहीं कि फ़ासीवादी राजनीति का अभ्युदय और वर्चस्व ख़ास तौर पर इन्हीं हिंदी प्रदेशों में और इनके चलते एक हद तक शेष भारत में भी क़ायम हुआ है और हिंदी पत्रकारों की इस हार के लिए शायद उनकी आत्ममुग्ध, सामंती, सांप्रदायिक, पितृसत्तात्मक और सम्पन्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि ज़िम्मेदार है।‘’
और जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, उसी दिन दुनिया भर में पत्रकारिता की स्थिति को लेकर एक रिपोर्ट जारी हुई है। मीडिया की आजादी से संबंधित ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की इस सालाना रिपोर्ट में प्रेस की आजादी के मामले में भारत दो पायदान नीचे खिसक गया है। 180 देशों में भारत 140वें स्थान पर है। यह रिपोर्ट कहती है कि भारत में चल रहा चुनाव प्रचार का यह दौर पत्रकारों के लिए खासतौर पर सबसे ख़तरनाक वक्त है।
‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2019’ की इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में पत्रकारों के प्रति दुश्मनी की भावना बढ़ी है। इस वजह से भारत में बीते साल अपने काम की वजह से कम से कम छह पत्रकारों की हत्या कर दी गई। भारत में प्रेस स्वतंत्रता की मौजूदा स्थिति में सबसे अहम मामला पत्रकारों के खिलाफ हिंसा का है, जिसमें पुलिस की हिंसा, नक्सलियों के हमले, अपराधी समूहों या भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का प्रतिशोध शामिल है।
2018 में अपने काम की वजह से भारत में कम से कम छह पत्रकारों की जान चली जाने को लेकर रिपोर्ट कहती है कि ये हत्याएं इस बात का सबूत हैं कि भारतीय पत्रकार कई खतरों का सामना करते हैं, खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में, गैर अंग्रेजी भाषी मीडिया के लिए काम करने वाले पत्रकार।
2019 के आम चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ भाजपा के समर्थकों द्वारा पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं। रिपोर्ट में हिंदुत्व को नाराज करने वाले विषयों पर बोलने या लिखने वाले पत्रकारों के खिलाफ सोशल मीडिया पर चलाए जाने वाले घृणित अभियानों पर चिंता जताई गई है। रिपोर्ट कहती है कि जब महिलाओं को निशाना बनाया जाता है तो यह अभियान ज्यादा उग्र हो जाता है।
2018 में भारतीय मीडिया में ‘मी टू’ अभियान शुरू होने से महिला संवाददाताओं के संबंध में उत्पीड़न और यौन हमले के कई मामलों से पर्दा हटा। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन क्षेत्रों को प्रशासन संवेदनशील मानता है वहां रिपोर्टिंग करना बहुत मुश्किल है, जैसे कश्मीर।
2019 के सूचकांक में संगठन ने पाया कि पत्रकारों के खिलाफ घृणा हिंसा में बदल गई है, जिससे दुनिया भर में डर बढ़ा है। दक्षिण एशिया की बात करें तो रिपोर्ट के मुताबिक प्रेस की आजादी के मामले में पाकिस्तान तीन पायदान लुढ़कर 142वें स्थान पर है जबकि बांग्लादेश चार पायदान लुढ़कर 150वें स्थान पर है। नॉर्वे लगातार तीसरे साल पहले पायदान पर है जबकि फिनलैंड दूसरे स्थान पर है।
हम अकसर कई मामलों में भारत और पाकिस्तान की तुलना करते हैं, खासतौर से भारत में लोकतंत्र की और पाकिस्तान में सरकार संचालन में सेना के हस्तक्षेप की। पर ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट में भारत का स्थान 140वां और पाकिस्तान का 142वां होने पर क्या यह नहीं लगता कि मीडिया के कामकाज के लिहाज से दोनों देशों की स्थितियों में कोई खास फर्क नहीं हैं?