पिछले एक महीने से भी अधिक समय से देश में महाराष्ट्र की सरकार के गठन को लेकर घमासान मचा हुआ है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे 24 अक्टूबर को आ गए थे लेकिन वहां सरकार को लेकर उठापटक आज भी जारी है। एक नाटकीय घटनाक्रम के चलते 23 नवंबर को भाजपा के देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री पद की और एनसीपी नेता अजीत पवार उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं और इस शपथ ग्रहण की प्रक्रिया को चुनौती देने वाला मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है।
इस एक महीने के दौरान दो मुहावरे सबसे ज्यादा सुनाई दिए हैं। इनमें से एक है ‘चाणक्य नीति’ और दूसरा है ‘लोकतंत्र की हत्या।‘ जैसे ही महाराष्ट्र चुनाव के नतीजे आए और भाजपा-शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने के बावजूद, दोनों के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर खटास पैदा हुई, राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता शरद पवार राजनीतिक गतिविधियों की धुरी बन गए। कहा जाने लगा कि अब शरद पवार राज्य की नई सरकार के गठन में किंग मेकर की भूमिका में होंगे।
इसके बाद राजनीतिक चालबाजियों का दौर शुरू हुआ और नित नए खंडन-मंडन से सनी खबरों के बीच शरद पवार की गतिविधियों को केंद्र में रखकर यह बात बार बार दोहराई गई कि पवार राजनीति के चाणक्य हैं और उनकी ‘चाणक्य नीति’ ही अंतत: सरकार गठन में निर्णायक साबित होगी। लेकिन दूसरी ओर एक धड़ा ऐसा भी था जो देश के गृहमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को भारत की राजनीति का सबसे बड़ा चाणक्य बताते हुए दावा कर रहा था कि ‘शाह की चाणक्य नीति’ के सामने सारे विरोधी फेल हो जाएंगे।
23 नवंबर को जब सुबह आए अखबार शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार के गठन की भविष्यवाणी कर रहे थे, उसी समय महाराष्ट्र के राजभवन में राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की और अजीत पवार को उप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा रहे थे। भौचक्के टीवी चैनल राजनीतिक चालों और परदे के पीछे चल रहे घटनाक्रम को न देख पाने की झेंप मिटाते हुए खिसियाये अंदाज में राजनीतिक विश्लेषण कर रहे थे, तो दूसरी तरफ यह कहा जा रहा था कि पवार से ज्यादा बड़े चाणक्य अमित शाह निकले और शाह की चाणक्य नीति ने पवार की ‘चाणक्य नीति’ को पटखनी दे दी।
अभी ये खबरें चल ही रही थीं कि घटनाक्रम फिर तेजी से घूमा और खबरें आने लगीं कि शरद पवार ने अपनी ‘चाणक्य नीति’ की ताकत दिखाते हुए भाजपा के समर्थक बताए जाने वाले अपने विधायकों को इकट्ठा कर मैसेज दे दिया है कि वे शाह की बाजी को उलटने वाले हैं। राजनीति का यह नया चाणक्यशास्त्र अभी पूरा नहीं हुआ है और कोई नहीं जानता कि इसके अंतिम अध्याय की इबारत क्या होगी?
लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे ही हम ‘चाणक्य नीति’ कहेंगे। क्या चाणक्य नीति कोई पान की दुकान पर मिलने वाला सड़ी तंबाकू और खती सुपारी का गुटका है या परचूनी की दुकान पर घोड़े की लीद मिला हुआ धनिया पावडर है जो चवन्नी अठन्नी में खरीदा बेचा जा सके। घटिया स्तर की चालबाजियों, अनैतिक कर्म और चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा का परिचय देने वाली गतिविधियों को क्या हम इस तरह देश के एक महान चिंतक के नाम से जोड़ सकते हैं?
‘चाणक्य नीति’ मुहावरे का उपयोग आजकल इस तरह किया जाने लगा है मानो वह पान की पीक हो, जिसे मुंह में और ज्यादा न रख पाने की स्थिति में हम पिचकारी की तरह कहीं भी थूक देते हैं। चाणक्य ने एक अनैतिक व अहंकारी राजा को सबक सिखाने के लिए उसके खिलाफ प्रजा को खड़ा करने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने जनता के बीच से ही एक नायक खड़ा किया और उसे इतना सक्षम और सबल बनाया कि उसने मगध साम्राज्य की नींव हिला दी।
लेकिन यहां तो घटिया किस्म की राजनीतिक जोड़तोड़, सौदेबाजी, हर तरह की अनैतिकता और पतन की पराकाष्ठा कर सत्ता का उल्लू साधा जा रहा है। इसे हम ‘चाणक्य नीति’ कैसे कह सकते हैं? नीति शब्द में नैतिकता स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित है। जो नीति का पालन करे वही नैतिक है, लेकिन यहां न तो किसी को नीति की चिंता है और न नैतिकता की परवाह। चाणक्य आज होते तो शायद वे भी सोच रहे होते कि क्या यही वह नीति है जिसका उन्होंने प्रवर्तन किया था?
दरअसल चाणक्य ने अनीति और अधर्म पर चलने वाले राज्य को सबक सिखाने के लिए नीति और लोक का सहारा लिया था, पर आज जो अनीति और अधर्म हो रहा है उसमें लोक की भूमिका ही नजर नहीं आती। लोग यह तो समझ रहे हैं कि जो कुछ हो रहा है वह गलत है लेकिन उस गलत का विरोध करने की इच्छा ही लगता है खत्म हो गई है। ‘चुपचाप सबकुछ स्वीकार्य’ का यह मनोभाव लोकतंत्र की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है।
और लोकतंत्र की बात चली है तो थोड़ी सी चर्चा उस पर भी करते चलें। देश में जब जब भी इस तरह की घटनाएं होती हैं, एक जुमला हवा में उछाल दिया जाता है कि ‘यह लोकतंत्र की हत्या है।‘ 25 नवंबर को भी लोकसभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि ‘महाराष्ट्र में लोकतंत्र की हत्या हुई है’ और उधर भाजपा नेता और केंद्र सरकार में मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह लोकतंत्र की हत्या कर रही है। पता करना मुश्किल है कि लोकतंत्र का असली हत्यारा कौन है?
आप यदि आजादी के बाद के इतिहास को टटोलें तो पाएंगे कि बेचारा लोकतंत्र तो हमारे यहां कई बार मारा जा चुका है। समझ ही नहीं आता कि जिसकी पहले ही इतनी बार हत्या हो चुकी हो वह फिर से हत्या के लायक हो जाने के लिए बार-बार जिंदा कैसे हो जाता है? क्योंकि हालात तो लोकतंत्र के जिंदा होने का सबूत कतई नहीं देते। असल में चिंता यदि किसी बात की होनी चाहिए तो वह इस बात की हो कि लोकतंत्र की लाश का अब हम क्या करें? हर बार किए जाने वाले चाकुओं के वार से इस लाश को कैसे बचाएं? कोई है जो इस ‘नंगी लाश’ के अंतिम संस्कार की चिंता करेगा? क्योंकि इसकी हत्या तो कभी की हो चुकी है, कई बार हो चुकी है।
पर शायद इस लाश के नसीब में अंतिम संस्कार होना लिखा ही नहीं है। क्योंकि अंतिम संस्कार हो गया तो फिर आरोप के चाकू किस पर चलेंगे?