राकेश दुबे
उत्तर प्रदेश के रामपुर कोर्ट ने समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान को हेट स्पीच मामले में तीन साल की सजा सुना ही दी, साथ ही उन्हें 25 हजार रुपये का जुर्माना भी देना होगा। इससे पहले कोर्ट ने उन्हें दोषी करार दिया था। ध्यान रहे देश की शीर्ष अदालत ने भी सख्त टिप्पणी करते हुए चेता दिया है कि संविधान में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की परिकल्पना की गई है। नफरत फैलाने वाले बयानों और भाषणों को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस बात का समर्थन हर समझदार आदमी देशहित में जरूर करेगा।
जहाँ तक आज़म खान का मामला है, वर्ष 2019 में चुनाव के दौरान आजम खान ने तहसील मिलक में भाषण दिया था, जिसे लेकर कोर्ट का फैसला आया है। खान पर हेट स्पीच देने का आरोप है। देश का शीर्ष कोर्ट भी मानता है कि कई राज्यों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाले बयानों के मामले सामने आने के बाद भी संबंधित राज्यों की पुलिस दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती। कोर्ट ने चेताया है कि यदि प्रशासन ऐसे मामलों में सख्ती नहीं दिखाता है तो उसके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई होगी।
याद रहे शीर्ष कोर्ट ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड पुलिस को इस बाबत कार्रवाई करने के लिये नोटिस भी भेजे थे। हाल ही में एक सभा में संप्रदाय विशेष के लोगों के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने के आरोप दिल्ली के भाजपा सांसद पर लगे थे। इसे अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने तथा भयभीत करने वाला बयान बताते हुए अदालत में याचिका दायर की गई थी, जिसके आलोक में कोर्ट ने हालिया टिप्पणी की थी।
इससे पहले कई राज्यों में आयोजित धर्म संसदों में भी ऐसे मामले सामने आये थे, जिसकी देश ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। इस पर अदालत ने इन राज्यों की पुलिस से दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने को कहा था। अदालत का कहना था कि पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों में किसी रिपोर्ट लिखवाने का इंतजार करे बिना स्वत: संज्ञान लेते हुए तुरंत कार्रवाई करे।
हकीकत में ऐसे भड़काऊ बयानों से सामाजिक समरसता को आंच आती है। समाज में नफरत बढ़ने से टकराव की स्थिति पैदा होती है। विडंबना यह कि जिन राजनीतिक दलों को इन बयानों से लाभ होता नजर आता है उनकी तरफ से भी ऐसे तत्वों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती नजर नहीं आती, जिससे ऐसे नकारात्मक सोच वाले तत्वों के हौसले बुलंद होते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि ऐसे बयान बहुसंख्यक समाज के धार्मिक व राजनीतिक नेताओं की तरफ से ही आते हैं। अल्पसंख्यकों के नेतृत्व का दावा करने वाले कुछ राजनेता भी जब-तब भड़काऊ बयान देते हैं जिसके जरिये वे वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने का प्रयास करते हैं। प्रश्न यह है कि ऐसे बयानवीरों के खिलाफ पुलिस तुरंत कार्रवाई क्यों नहीं करती? ऐसा न होने पर ही छुटभैया नेताओं के हौसले बढ़ते हैं। इतना ही नहीं, पुलिस-प्रशासन की उदासीनता के चलते कुछ न्यूज चैनल भी गाहे-बगाहे उत्तेजक बहस अपने प्राइम टाइम में आयोजित करते दिखते हैं। जिससे संयम खोने वाले नेता ऐसे बयान दे जाते हैं कि पूरे देश में कड़वाहट घुल जाती है।
पिछले दिनों ऐसे ही एक बयान के बाद भारत पूरी दुनिया में बचाव की मुद्रा में नजर आया और हमें सफाई देने को मजबूर होना पड़ा था। धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ठेस पहुंचाने से रोकने वाले तमाम कानूनी प्रावधान होने के बावजूद पुलिस-प्रशासन आखिर कार्रवाई करने में क्यों चूकते हैं?
शीर्ष कोर्ट स्पष्ट कर चुकी है कि इसकी जवाबदेही शीर्ष अधिकारियों की बनती है। पिछली रामनवमी पर हुई हिंसा के बाद समय रहते कार्रवाई न होने पर ये घटनाएं कालांतर में कई राज्यों में फैल गई थीं। इस मामले में भी शीर्ष अधिकारियों की जवाबदेही तय करने की बात कही गई थी। निस्संदेह ऐसी घटनाओं से भारत की सहिष्णुता की छवि को आंच आती है।
विडंबना यह है कि आज हम उस दौर में आ गए हैं कि समाज का नेतृत्व करने वाला वर्ग ऐसी घटनाओं के होने पर शांति के लिये रचनात्मक भूमिका का निर्वहन नहीं करता। पहले जिम्मेदार लोग शांति व्यवस्था बनाने के लिये आगे आते थे। निस्संदेह, अधिकारों के साथ ही संविधान ने हमें कुछ कर्तव्यों के निर्वहन का दायित्व भी सौंपा है। ये हमारी जिम्मेदारी भी है कि समाज में अमन का माहौल बने।
(मध्यमत)
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