सिर्फ व्‍यक्ति ही नहीं, फैसला भी ‘क्‍लोन’ नहीं होना चाहिए

कारण चाहे जो रहा हो लेकिन इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि पिछले कुछ सालों में देश की करीब-करीब सभी सर्वोच्‍च संवैधानिक संस्‍थाओं की साख को बट्टा लगा है। यह बात इसलिए चिंता पैदा करती है क्‍योंकि व्‍यक्ति की साख या भरोसा टूट जाए तो दूसरा व्‍यक्ति आकर उस टूटे हुए विश्‍वास की पुनर्स्‍थापना कर सकता है, लेकिन संस्‍थाओं की साख यदि संदिग्‍ध हो जाए तो उसकी भरपाई करना आसान नहीं होता।

एक उदाहरण लीजिए। ऐसा नहीं है कि पुलिस में सभी लोग भ्रष्‍ट या अपराधियों को संरक्षण देने वाले हों। लेकिन आप देश के किसी भी कोने में चले जाइए, हर जगह आपको यही धारणा मिलेगी कि पुलिस की छवि ठीक नहीं है। यही बात सरकारी दफ्तरों के बारे में है कि वहां बिना लिए दिए कुछ होता ही नहीं। ये दोनों उदाहरण संस्‍थाओं या प्रतिष्‍ठानों की साख पर दाग लगने और उन दागों के कारण पूरी संस्‍था ही बदनाम हो जाने के हैं।

ऐसा ही एक प्रसंग उस समय आया था जब देश की सर्वोच्‍च न्‍यायिक संस्‍था सुप्रीम कोर्ट के कई वरिष्‍ठ जजों ने भारत के प्रधान न्‍यायाधीश की कार्यशैली पर उंगली उठाते हुए बाकायदा प्रेस कान्‍फ्रेंस की थी। उस वाकये ने इस धारणा पर मुहर लगा दी थी कि देश की न्‍यायिक संस्‍थाओं में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। हाल ही में वर्तमान प्रधान न्‍यायाधीश पर कोर्ट की ही एक कर्मचारी द्वारा आरोप लगाए जाने की घटना को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। प्रधान न्‍यायाधीश की यह टिप्‍पणी अभूतपूर्व है कि न्‍यायपालिका खतरे में है कुछ लोग सीजेआई ऑफिस को निष्क्रिय करना चाहते हैं।

ऐसा ही मामला सीबीआई को लेकर भी सामने आया था जब तत्‍कालीन निदेशक और अतिरिक्‍त निदेशक के बीच मतभेद और तकरार इतनी बढ़ी कि दोनों ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्‍टाचार के आरोप लगाए और मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा। देश ने वह अभागा दृश्‍य भी देखा जब आधी रात को पुलिस की घेराबंदी में सीबीआई के कार्यवाहक निदेशक ने कार्यभार संभाला और कई अफसरों के ताबड़तोड़ तबादले करते हुए कई कक्ष सील करवा दिए थे।

ताजा मामला चुनाव आयोग का है। चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल तो पहले भी उठते रहे हैं लेकिन हाल ही में जो कुछ हुआ वह इस संवैधानिक संस्‍था की नींव पर चोट करने वाला है। तीन सदस्‍यीय आयोग में इस समय सुनील अरोरा मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त हैं और अशोक लवासा तथा सुशील चंद्रा आयुक्‍त हैं। शनिवार को यह खबर मीडिया की सुर्खी बनी कि अशोक लवासा ने मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त को पत्र लिखकर आयोग के फैसले लेने की प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं।

लवासा ने कहा है कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान आने वाली शिकायतों पर लिए जाने वाले फैसलों में अगर आम सहमति नहीं है और किसी एक सदस्‍य ने बाकी दो सदस्‍यों के विपरीत अपना मत व्‍यक्‍त किया है तो उसे भी रिकार्ड पर दर्ज किया जाना चाहिए। दरअसल 17वीं लोकसभा के लिए सात चरणों में हुए मतदान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्‍यक्ष अमित शाह के खिलाफ भी आचार संहिता के उल्‍लंघन की कई शिकायतें हुई थीं लेकिन आयोग ने लगभग सभी मामलों में पीएम को क्‍लीन चिट दी।

बताया जाता है कि ऐसे ही एक मामले में प्रधानमंत्री को क्‍लीन चिट दिए जाने के आयोग के फैसले से लवासा सहमत नहीं थे और उन्‍होंने मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त एवं एक अन्‍य आयुक्‍त के विपरीत अपना मत व्‍यक्‍त किया था। आयोग ने दो-एक के बहुमत से फैसला करते हुए प्रधानमंत्री को आरोप मुक्‍त कर दिया था। लेकिन इस दौरान जो फैसला रिकार्ड पर लिया गया उसमें लवासा का विपरीत मत दर्ज नहीं किया गया और न ही यह बात सार्वजनिक की गई कि आखिर उन्‍होंने अपने विपरीत मत में कहा क्‍या था?

कायदे से देखें तो लवासा ने कोई गलत बात नहीं की है। यदि आयोग बहुसदस्‍यीय है और निर्णय लेने की प्रक्रिया में तीनों ही सदस्‍य शामिल हैं तो फिर इस बात को छिपाया क्‍यों जाना चाहिए कि किसी भी शिकायत पर फैसला किये जाते समय प्रत्‍येक सदस्‍य का अभिमत क्‍या रहा? हो सकता है कोई एक सदस्‍य बाकी दो सदस्‍यों की राय से सहमत न हो और निर्णय प्रक्रिया को लेकर उसकी अपनी भी कोई राय हो, तो इसमें बुराई क्‍या है? वैसे भी इस तरह की न्‍यायिक या अर्धन्‍यायिक संस्‍थाओं का स्‍वरूप यदि बहुसदस्‍यीय है तो वहां बहुमत का फैसला ही मान्‍य होता है। तीन में से एक सदस्‍य यदि सहमत न भी हो तो फैसले का स्‍वरूप या उसका असर प्रभावित नहीं होता।

और चलिए आप किसी एक सदस्‍य की बात से सहमत न हों लेकिन उसकी बात को रिकार्ड पर तो लीजिये। लवासा का यह कहना बिल‍कुल तार्किक और औचित्‍यपूर्ण है कि उनकी बात को कम से कम रिकार्ड पर तो लिया जाए। सुप्रीम कोर्ट तक में इस प्रक्रिया को अपनाया जाता है। वहां बहुसदस्‍यीय खंडपीठ में बहुमत का फैसला मान्‍य या लागू होता है लेकिन विपरीत मत रखने वाले जज ने क्‍या कहा इसे न सिर्फ रिकार्ड पर लिया जाता है बल्कि उसे बताया भी जाता है।

यदि चुनाव आयोग में इस प्रक्रिया का पालन नहीं हो रहा तो यह आयोग के फैसलों पर संदेह का घेरा बनाने का मौका देने जैसा है। आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस मामले को लेकर लवासा ने सवाल उठाया है वह कोई छोटा मोटा नहीं बल्कि प्रधानमंत्री से जुड़ा मामला है। यही कारण है कि कांग्रेस ने लवासा प्रसंग में चुनाव आयोग को सरकार/भाजपा का पिट्ठू बता दिया है। यदि लवासा का अभिमत सामने आ भी जाता है तो उससे कोई पहाड़ नहीं टूटने वाला, न ही फैसले का स्‍वरूप बदलने वाला है। उससे तो आयोग की निष्‍पक्षता और पारदर्शिता पर ही मुहर लगेगी। लेकिन ऐसा लगता है कि आयोग स्‍वयं ही ऐसा नहीं चाहता।

लवासा के पत्र के जवाब में मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त सुनील अरोरा ने कहा है कि आयोग के सदस्‍य एक दूसरे के क्‍लोन नहीं हो सकते। बिलकुल ठीक है, उन्‍हें क्‍लोन होना भी नहीं चाहिए। लेकिन जब व्‍यक्ति के बारे में हम क्‍लोन न हो सकने वाला तर्क देते हैं तो फिर हम यह क्‍यों चाहते हैं कि हमारा फैसला एक दूसरे का क्‍लोन हो?

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