राकेश दुबे
आज पुत्र का जन्मदिन है। पत्नी के साथ रात 2 बजे वडोदरा पहुंचा। अभी आस्ट्रेलिया से बेटी-दामाद ने फोन किया। बेटी से बात करते हुए भारत के सदियों से चले आ रहे संस्कार और वर्तमान भारत में लैंगिक समानता और हमारे विचार का पुनरवलोकन किया। इसमें दो राय नहीं कि 21वीं सदी का भारत लैंगिक समानता के नये सोपान तय कर रहा है। आजादी के बाद देश में प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक के शीर्ष पद महिलाएं बखूबी संभाल चुकी हैं। आज उनकी वीरता व साहस देखकर ही सेना ने भी उनके लिये दरवाजे खोल दिये हैं।
लेकिन इस सबके बावजूद रूढ़िवादिता, अशिक्षा तथा पितृसत्तात्मक सोच के चलते कुछ गिने-चुने स्थानों में बेटियों से भेद होता नजर आता है और यह सुनना कष्टकारी होता है। सवाल उठता है कि जब लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई से लेकर बड़ी जनप्रतिनिधि संस्थाओं में भी महिलाओं की पर्याप्त निर्णायक भूमिका है तो फिर लिंगभेद की सोच क्यों?
देश के एक राज्य का आंकड़ा याद आया। जहाँ 18 से 19 वर्ष आयु वर्ग के नये मतदाताओं में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले चिंताजनक स्तर तक कम रही है। कुल 16699 नये मतदाता जुड़े, उसमें बड़ी संख्या पुरुष मतदाताओं की रही। जो करीब 11869 थी। इन नये मतदाताओं में केवल 5030 महिला मतदाता थीं। बताया गया कि नये मतदाताओं में लिंगानुपात प्रति हजार महज 423 रह गया है।
अधिकारियों ने इसकी वजह यह बतायी कि अभिभावक बेटियों की शादी के मद्देनजर उनका वोटर पहचान पत्र नहीं बनवाते। यह राज्य हरियाणा है। निस्संदेह, यह हमारे समाज के एक तबके में रूढ़िवादी सोच का परिचायक है जो कि बेटियों को नये वोटर तक बनाने से परहेज करता रहा है। निस्संदेह ऐसा तंग नजरिया बेटियों के लोकतांत्रिक अधिकार का हनन करता है। विश्वास किया जा रहा था कि साक्षरता के प्रसार और सूचना विस्फोट के युग में बेटियों के प्रति ऐसी भेदभाव वाली सोच पर अंकुश लगेगा, लेकिन कुछ इलाकों में रूढ़िवादिता बरकरार है।
खासकर राष्ट्रीय राजधानी के निकट स्थित राज्य में, जहां बेटियां आज खेलों से लेकर साहसिक अभियानों तक में पूरी दुनिया में सफलता का परचम लहरा रही हैं, वहां इस तरह का भेदभाव होना कहीं न कहीं हमारे सत्ताधीशों की भी असफलता है कि वे समाज में अंतिम व्यक्ति तक प्रगतिशील सोच विकसित करने की मुहिम युद्ध स्तर पर नहीं चला पाये हैं।
दिल्ली को तीन तरफ से घेरने वाले राज्य में विकास व प्रगतिशीलता की बयार अब तक बहुत कुछ बदल चुकी है। शहरों में तो स्थिति कमोबेश काफी सुखद है। खाप पंचायतों के भी कई प्रगतिशील फैसले देखने में आये हैं। साक्षरता का स्तर बढ़ा है और प्रति व्यक्ति आय देश के शेष राज्यों से बेहतर स्थिति में है। ऐसे में सदियों पुरानी रूढ़िवादिता के अवशेष मिटाने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है।
जरूरत इस बात की है कि इस सोच का प्रतिकार करने के लिये सरकार के अलावा सामाजिक संगठन भी आगे आयें। विडंबना ही है कि हाल-फिलहाल समाज में रचनात्मक चेतना जगाने वाले स्वयंसेवी संगठनों की सक्रियता में कमी आई है। एक समय नुक्कड़ नाटकों, सूचना व संस्कृति आदि विभागों की ओर से प्रगतिशील सोच विकसित करने के प्रयास किये जाते थे। कई राष्ट्रीय कार्यक्रमों को इनके जरिये आशातीत सफलता मिली भी है।
21 वीं सदी में किसी भी तरह का लैंगिक भेदभाव अस्वीकार्य है। भारतीय चुनाव आयोग की ओर से भी तंग सोच का प्रतिकार करने के लिये राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति केवल हरियाणा में ही नहीं है। कई संकीर्ण विचारधारा वाले वर्गों में भी ऐसी सोच पायी जाती है कि बेटी तो पराया धन है। वह तो घर में कुछ वर्षों की मेहमान है। दरअसल, यह समय कन्यादान को नये सिरे से परिभाषित करने की मांग करता है।
नये दौर में समझना चाहिए कि बेटी यदि जागरूक होगी, लोकतंत्र में सक्रिय होगी तो कल वह कहीं भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यह उसके सर्वांगीण विकास के लिये भी जरूरी है और अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी लोकतांत्रिक रूप से सचेत बनाने के लिये महत्वपूर्ण है। बेटी मायके से जितनी मजबूत और आत्मनिर्भर बनकर निकलेगी, ससुराल और समाज में वह उतनी मजबूती से अपने दायित्वों को निभा सकेगी। साथ ही किसी भी तरह के अन्याय का प्रतिकार कर सकेगी। काश सारा समाज राष्ट्र हित में यह सब समझे।
(मध्यमत)
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