देश में इन दिनों दो ही मामले चर्चित हैं एक सियासत और दूसरा सेहत। एक तरफ बिहार में चमकी बुखार से बच्चे मर रहे हैं, तो दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों की हड़ताल के चलते इलाज न मिलने से मरीज मरने को मजबूर हैं। ऐसा लग रहा है कि या तो सियासत लोगों की बलि ले रही है या फिर उसने लोगों को मरने के लिए अपने हाल पर छोड़ दिया है।
बिहार में दिमागी बुखार या एन्सेफलाइटिस जिसे स्थानीय लोग चमकी बुखार भी कहते हैं, से 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। और मौतों का यह सिलसिला जारी है। इस बीमारी का सबसे ज्यादा असर लीची की पैदावार के लिए मशहूर मुजफ्फरपुर जिले में हुआ है। ऐसा नहीं है कि इस इलाके में यह बीमारी पहली बार हुई हो। पहले भी यह महामारी कई लोगों की जान ले चुकी है और यह कतई नहीं कहा या माना जा सकता कि बिहार के राजनीतिक नेतृत्व से लेकर स्वास्थ्य विभाग और स्थानीय प्रशासन इसकी भयावहता से वाकिफ न हों।
दूसरा मामला बंगाल का है जहां पिछले छह दिनों से सरकारी डॉक्टरों की हड़ताल चल रही है। यह कॉलम लिखे जाने तक समस्या का कोई हल नहीं निकल पाया है। एक तरफ सरकार अपनी नाक पर अड़ी हुई है दूसरी तरफ डॉक्टर अपनी मांग पर डटे हैं। मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने डॉक्टरों की मांगे मानने का ऐलान करते हुए कहा है कि वे सचिवालय में आएं और बात करें, उधर डॉक्टरों का कहना है कि ममता पहले अपने डॉक्टर विरोधी बयानों के लिए माफी मांगें और खुद आकर उनसे बात करें।
रविवार को हड़ताल का छठा दिन था और डाक्टरों की हड़ताल खत्म होने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। बंगाल से आने वाली खबरें बता रही हैं कि दोनों पक्षों की इस खींचतान के बीच इलाज की उम्मीद में दूरदराज के इलाकों से हर रोज हजारों की तादाद में कोलकाता पहुंचने वाले गरीब मरीजों को निराश होकर बगैर इलाज के ही लौटना पड़ रहा है।
जो लोग पहले से इन अस्पतालों में दाखिल थे वे भी अपने परिजनों के साथ अस्पताल छोड़ रहे हैं। हड़ताल के दो चार दिन तो वे इस आस में टिके रहे कि शायद मामले का हल निकल आए और स्वास्थ्य सेवाएं बहाल हो जाएं लेकिन अब उन्होंने भी उम्मीद छोड़ दी है। अब लोग खुद ही अपने बीमार परिजनों को डिस्चार्ज करवा रहे हैं। हालत यह है कि उन तमाम सरकारी अस्पतालों में जहां पहले पांव रखने की जगह तक नहीं होती थी, ज्यादातर बिस्तर खाली दिख रहे हैं।
चाहे बिहार का मामला हो या कोलकाता का, सरकारी तंत्र और उसके रिस्पांस की क्या हालत है यह जानना हो तो बिहार में पत्रकारिता कर रहे मेरे पुराने सहयोगी पुष्यमित्र की फेसबुक वॉल पर जाकर आप देख सकते हैं। वे कई दिनों से चमकी बुखार और उससे जुड़ी बातों को लेकर लगातार अपडेट कर रहे हैं। रविवार को उनकी एक पोस्ट ने तो एक तरह से हिलाकर रख दिया।
उन्होंने लिखा- अगर आप मुजफ्फरपुर में बीमार बच्चों की मदद के इरादे से जा रहे हैं तो चार चीजें अपने साथ लेकर जाएं, थर्मामीटर, ग्लूकोज/ ओआरएस, पैरासिटामॉल और सूती कपड़े का टुकड़ा। मुजफ्फरपुर की गरीब बस्तियों में इस वक्त इन चार चीजों की जरूरत है। हर मुहल्ले में एक या दो थर्मामीटर बांटें और लोगों को बुखार चेक करने का तरीका बतायें। उनसे कहें कि बुखार 100 डिग्री से अधिक बढ़ने न दें। पट्टी रखना सिखाएं। बुखार बढ़ने पर पैरासिटामॉल देने को कहें।
पुष्यमित्र लिखते हैं- ‘’लोगों से कहें कि अगर बच्चे के शरीर में ऐंठन हो तो पास के सरकारी अस्पताल जाएं। पट्टी रखना, ग्लूकोज या ओआरएस पिलाना किसी सूरत में बन्द न करें। बच्चे को दांती आने या झटके आने पर दांत के बीच कपड़ा दबाने को कहें।‘’ उन्होंने बताया है कि ये सारे उपाय सरकार की ओर से लोगों को 2015-16 में बांटे गए ब्रोशर से लिए गए हैं। इन्हीं तरीकों से सरकार ने 2015 से 2018 तक इस रोग को काबू किया। इस बार यह काम नहीं हुआ इसलिये मौतें हुईं।
बताइये, जो देश स्पेस स्टेशन स्थापित करने की बात कर रहा हो, जो देश अपनी अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर तक ले जाने के सपने देख रहा हो, वहां बच्चों को मरने से बचाने के लिए एक अदद थर्मामीटर, सूती कपड़े, ग्लूकोज और पैरासिटामॉल की गोली की जरूरत बताई जा रही है। कहां हैं सरकारें, कहां हैं शासन प्रशासन व्यवस्था, कहां है इसी समाज और देश से अरबों खरबों रुपए कमाने (या लूटने) वाले लोग। यदि बिहार के बीमार बच्चों की जरूरतें यही हैं तो क्या देश इन्हें भी जुटाने की हैसियत नहीं रखता?
पर शायद सरकारों की प्राथमिकताएं अलग हैं। जिस समय बिहार में बच्चे चमकी बुखार से मर रहे हैं वहां की सत्तारूढ़ पार्टी को तीन तलाक बिल की ज्यादा चिंता है। जिस समय बंगाल के तमाम सरकारी अस्पतालों में इलाज की आस लिए पहुंचने वाले मरीज हताश होकर लौट रहे हैं वहां मुख्यमंत्री को अपने पद की संवैधानिक गरिमा की ज्यादा चिंता है।
तभी तो एक तरफ बच्चों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार, यह सवाल पूछने पर बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय कह रहे हैं कि न सरकार जिम्मेदार है न प्रशासन, इसके लिए नियति और मौसम जिम्मेदार है। तभी तो डॉक्टरों की इस मांग पर कि ममता बैनर्जी उनसे आकर बात करें, मुख्यमंत्री का बयान आता है कि उन्हें (डॉक्टरों को) संवैधानिक पद की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए।
सत्ता के अहंकार में डूबे इन लोगों को कौन बताए कि इन मौतों के लिए नियति नहीं नीति-नियंता जिम्मेदार हैं। और रही बात पद की संवैधानिक गरिमा की तो, कोई भी पद जनता और लोगों की जान से बड़ा नहीं होता। आप यदि उसे जनता की तकलीफों और उसके जीवन से जुड़े सवालों से भी बड़ा मानते हैं तो रख लीजिए उसकी पुंगी बनाकर, जब कुर्सी पर न रहेंगे तो फुरसत में बजाने के काम आएगी।