अजय बोकिल
बीते सप्ताह मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में घटी दो शर्मनाक घटनाओं ने इस बात पुनर्विचार पर विवश कर दिया कि ‘बेटियों को बचाने’ की दिशा में हम आगे जा रहे हैं या पीछे? सरकार और सामाजिक संस्थाओं की तमाम कोशिशों का समाज पर कोई सकारात्मक असर हो भी रहा है या नहीं? क्योंकि इन दोनों घटनाओं में असमय मौत का शिकार होने वाली भी बेटियां हैं और उन्हें मारने वाली भी ‘बेटियां’ ही हैं। पहले मामले में एक मां सिर्फ इसलिए अपनी ही एक माह की बेटी को पानी की टंकी में डुबोकर मार देती है कि उसे बेटा चाहिए था तो दूसरे मामले में एक मां अपने प्रेमी के साथ भाग जाने के लिए अपनी 6 माह की बेटी को सरेआम तालाब में यूं फेंक देती है मानो वो कचरे की थैली हो (हालांकि तालाब में कचरा फेंकना भी गुनाह है)। क्षुब्ध करने वाली बात यह है कि अपनी ही बेटियों के प्राण लेते वक्त इन दोनों मांओं के हाथ जरा भी नहीं कांपे, लेकिन जिसने भी इस हकीकत को सुना उसके रोंगटे जरूर खड़े हो गए।
ये दो घटनाएं इस कड़वी सच्चाई का प्रतीक हैं कि सामाजिक जागरूकता, जेंडर समानता, महिलाओं को आगे बढ़ाने, उन्हें बचाने की तमाम कोशिशें समाज में रूढ़ गलत मान्यताओं और कु-मानसिकता के आगे निष्प्रभ हैं। ये घटनाक्रम इस मान्यता को भी गलत साबित करता है कि अशिक्षा, गरीबी और रू़ढि़वादी सोच ही समाज में महिलाओं के प्रति अन्याय के मुख्य कारक हैं। भोपाल में हुए इन दो ह्रदयविदारक हादसों में महिलाएं न तो अशिक्षित थीं और न ही उनकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि वो अपनी बेटियों को इस लोक में पालने के बजाए खुद ही परलोक भेज दें।
इन दोनो प्रकरणों में ये चौंकाने वाले ‘खुलासे’ पुलिस की सख्ती के बाद हुए। दोनों के ही मूल में असल कारण नफरत था। पहले में अपने पति से नफरत तो दूसरे में स्त्री जाति से नफरत। कड़ाई से पूछताछ में जो सच्चाई सामने आई, उसने पुलिस को भी विचलित कर दिया। पहले मामले में एक विवाहित महिला ने अपनी एक साल की जिंदा बेटी को दिनदहाड़े तालाब में फेंक दिया। वहां मौजूद गोताखोरों ने उसे रोकने की कोशिश की तो महिला ने उन्हें भी गुमराह किया। वह अपने प्रेमी के साथ भाग जाना चाहती थी। लेकिन पति द्वारा पत्नी और बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद पुलिस को महिला की हरकतों पर शक हुआ।
पूछताछ में उस पुत्रीहंता महिला ने बताया कि वह अपने पति से दुखी थी, क्योंकि वह उससे मारपीट करता था। इसी बीच वह अपने पूर्व प्रेमी के जाल में फंसती चली गई। प्रेमी के प्यार में इतनी पागल हो गई कि उसने अपनी ही जाई बेटी को तालाब में डुबोकर मार दिया। उस महिला ने पुलिस को बताया कि उसे अपने किए पर कोई अफसोस नहीं है, क्योंकि वह अपने प्रेमी को खोना नहीं चाहती। इसके लिए उसने बेटी को ही रास्ते से हटा दिया। बेटी की इस हत्या में प्रेमी भी शामिल था। दोनों भोपाल से भागने की फिराक में थे कि पकड़े गए।
दूसरी घटना और भी दर्दनाक है। एक निर्दयी मां ने अपनी ही एक महीने की बेटी को पानी की टंकी में डुबोकर मार डाला। ऊपर से ढक्कन लगा दिया। वह मासूम चीख भी न सकी। ऊपर से बेटी गुम होने का हल्ला मचाया। पुलिस को उस मां पर ही शक हुआ। सख्ती से पूछताछ में उस मां ने गुनाह कबूल लिया। उसने माना कि उसकी चाहत बेटे की थी, लेकिन बेटी हो गई। उन नवजात बेटी के प्रति उस मां में इतनी घृणा थी कि उसने घर में ही उसे मार डाला। उसे भी कोई पश्चाताप हो, ऐसा नहीं लगता।
दरसअसल ये हमारे समाज की वो काली तस्वीर है, जहां सारी समझाइश, प्रोत्साहन और प्रबोधन फेल हो जाते हैं। कहां तो मध्यप्रदेश की बेटियां नए नए क्षेत्रों में प्रदेश का नाम रोशन कर रही हैं और कहां ये औरतें जो अपनी ही बेटियों की जान लेने में संकोच नहीं कर रहीं। बहुतों को ये बात चुभने वाली लगे, लेकिन ये दो ताजा घटनाएं इसी की ओर इशारा करती हैं। आज जबकि देश में चौतरफा बेटियों को बचाने, पढ़ाने और बढ़ाने की बात हो रही है, उनके संरक्षण और अधिकारों के लिए कई कानून बने हैं, लेकिन समाज में निचले स्तर पर वही सब कुछ हो रहा है, जिसे हम जड़ से खत्म करना चाहते हैं।
एक तर्क यह हो सकता है कि इन घटनाओं के मूल में भी पुरुष ही हैं। पहली घटना में महिला का अपने प्रेमी पुरुष के प्यार में पागल हो जाना और अपने पति से नफरत करना है। पति के अमानवीय सलूक का बदला उसने अपनी बेटी को मारकर लिया। जबकि दूसरी घटना में महिला पुत्र आकर्षण में इतना ज्यादा घिर गई थी कि उसे अपनी नवजात बेटी डुबोकर मारने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। दोनों मामलों में निर्दयता की पराकाष्ठा है। वरना बच्चे को खरोंच भी लग जाए तो मां का कलेजा रो उठता है, लेकिन यहां तो मांएं ही हत्यारिन का चोला स्वेच्छा से पहनती दिखाई पड़ती हैं।
यहां उन आंकड़ों की तो बात ही नहीं की जा रही है, जो भारत सरकार के रजिस्ट्रार जनरल ने मई 2020 के सेम्पल सर्वे के रूप में जारी किए थे। उन आंकड़ों में बताया गया था कि शिशु मृत्यु दर में मप्र देश में अव्वल है। दूसरा नंबर छत्तीसगढ़ का है। इसके पहले हम इस बात पर राहत महसूस कर रहे थे कि मध्य प्रदेश में ओवरऑल लड़कियों की शिशु मृत्यु दर लड़कों की अपेक्षा कम है। लेकिन जो घटनाएं सामने आई हैं, वो हमारे समाज की सोच को बेनकाब करती हैं कि जमीनी स्तर पर हम स्त्री पुरुष समानता के रास्ते पर कितना आगे बढ़े हैं।
यह कोई राजनीति का विषय नहीं है बल्कि गहरे आत्मचिंतन का मुद्दा है। महिलाओं को लेकर जो सोच समाज में गहरे पैठी हुई है, वो निकाले से नहीं निकल रही। बदलने से नहीं बदल रही। खुद महिलाएं भी महिलाओं के प्रति अपने भाव को नहीं बदल रहीं। क्योंकि उपरोक्त घटनाओं से एक में तो इश्कबाजी का मामला था, लेकिन दूसरे में तो ऐसा कुछ भी नहीं था। फिर भी एक ईश्वर प्रदत्त उपहार को उस बेरहम मां ने पानी में खुद ही डुबोकर इस तरह मार दिया कि जैसे कोई वह ऐसा खिलौना हो, जिससे मन ऊब गया हो। ऐसा एकांगी और निर्दय सोच कैसे और क्यों उपजता है? क्या लोगों की विवेक बुद्धि ने काम करना ही बंद कर दिया है या फिर हमें अब उसकी जरूरत ही नहीं रही?
सवाल यह है कि समाज में इतना विरोधाभास और घृणा क्यों है? बावजूद सारी कोशिशों के बालिका हत्या, जेंडर विषमता और महिलाओं की सामाजिक स्थिति और मानसिकता में अपेक्षित बदलाव क्यों नहीं आ रहा है? इससे भी बढ़कर ये कि आखिर महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन महिलाएं ही क्यों हैं? यह बात ही अपने आप में मन को विचलित करने वाली है। क्योंकि नफरत और प्यार की भी एक सीमा होती है। कोई इसके लिए अपनी संतानों की बलि देने को राजी हो, इसे मानसिक विकृति कहें या फिर निष्ठुरता की परिसीमा? दरसअल ये वो महिलाएं हैं, जिन्हें ‘मां’ कहना भी ‘मां’ शब्द का अपमान है।