अजय बोकिल
इसे भारत सरकार की सख्ती का नतीजा कहें या फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन की सक्रियता कि उसने कोरोना के कथित भारतीय वेरिएंट का नामकरण अब ‘डेल्टा कोविड 19’ कर दिया है। वरना इस वेरिएंट को ‘भारतीय’ कहे जाने पर भारत सरकार सख्त नाराज हुई थी और तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को उसने चेतावनी भी जारी कर दी थी कि वह कोविड के किसी वेरिएंट को ‘इंडियन वेरिएंट’ कहने से बचें और ऐसी किसी भी सामग्री को अपने प्लेटफार्म पर से हटाएं। यह बात अलग है कि सरकार के एक हाथ को दूसरे हाथ का पता नहीं होता। क्योंकि सवाल यह है कि कोविड के लिए यह ‘इंडियन वेरिएंट’ शब्द आया कहां से? पता चला कि मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोविड वैक्सीनेशन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चार दिन पहले जो हलफनामा दायर किया था, उसमें खुद सरकार ने भारत में मिले कोरोना स्ट्रेन को ‘इंडियन स्ट्रेन’ बताया था। जबकि इसको लेकर देश में भाजपा और कांग्रेस में जमकर राजनीतिक तलवारबाजी भी हो गई। भाजपा ने कांग्रेस को भारत विरोधी भी बता दिया, बिना यह जाने कि खुद उसकी सरकार ही इसे ‘इंडियन वेरिएंट’ बता चुकी है।
कहते हैं कि बद अच्छा, बदनाम बुरा। कोविड मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। यह वायरस इतना खतरनाक है कि कोई भी देश इससे अपना नाम किसी सूरत में नहीं जो़ड़ना चाहता। लेकिन जब तक किसी वायरस का वैज्ञानिक नामकरण न हो, तब तक उसे क्या कहा जाए। देशों के नाम से पुकारें तो यह उस देश के लिए ‘चिढ़’ जैसा हो जाता है। याद करें कि पिछले साल जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोविड को ‘चीनी वायरस’ कहा था तो चीन भड़क गया था। जबकि इस वायरस का सबसे पहले पता चीन के वुहान शहर में ही चला था।
पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केन्द्र सरकार को वायरस के कथित ‘सिंगापुर स्ट्रेन’ के बारे में चेताया था तो सिंगापुर सरकार ने नाराज होकर वहां भारतीय उच्चायु्क्त को तलब कर लिया था। वहां के विदेश मंत्री विवियन बालकृष्णन ने ट्वीट कर कहा कि सिंगापुर वेरिएंट जैसा कोई वायरस नहीं है और न ही ऐसे किसी वायरस से बच्चों को खतरा है। मामला इतना गर्माया कि भारत के विदेश मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी कि केजरीवाल के बयान को भारत सरकार का बयान न समझें। यह उनकी निजी राय है। इसके समांतर हम मीडिया में कोविड 19 के अलग-अलग वेरिएंट्स के नाम मुख्यत: वो जहां पहली बार मिले, उन देशों के नाम से जानते आ रहे हैं। मसलन ब्राजील वेरिएंट, यूके वेरिएंट, अफ्रीकन वेरिएंट आदि।
इसी आम बोलचाल में भारत में मिले स्ट्रेन को ‘इंडियन स्ट्रेन’ कहा गया। हालांकि यह कोई अधिकृत नामकरण नहीं है, लेकिन यह वैसा ही है कि किसी नवजात बच्चे का विधिवत नामकरण होने से पहले परिजन उसे मनचाहे नामों से पुकारते हैं। क्योंकि हर जीव फिर चाहे वह वायरस ही क्यों न हो, उसे पहचान तो चाहिए ही। और लोग हैं कि तब तक रुकते नहीं है कि भई अधिकृत नामकरण तो हो जाने दें। अब बच्चे का नामकरण तो मां-बाप करते हैं, संस्थानों, वास्तु आदि का नाम सरकारें तय करती हैं, लेकिन वायरस जैसे अत्यंत सूक्ष्म विषाणु का नाम कौन और किस विधि से रखता है? तो जान लें कि किसी वायरस का नामकरण भी उसकी वैज्ञानिक कुंडली देखकर किया जाता है। इसके लिए एक वैश्विक कोरोना वायरस स्टडी ग्रुप काम करता है। यह स्टडी ग्रुप इंटरनेशनल कमेटी ऑन टैक्सॉनामी ऑफ वायरसेस के तहत काम करता है। यह कमेटी सार्स कोविड 2 वायरस के नामकरण के लिए जवाबदेह है।
नामकरण भी वायरस की पहचान और इससे होने वाली बीमारी को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। मसलन हम जिसे कोविड-19 के नाम से जानते हैं, उसमें ‘को’ से तात्पर्य कोरोना, ‘वि’ से तात्पर्य वायरस, ‘डी’ से तात्पर्य डिसीज तथा ‘19’ से तात्पर्य वो वर्ष, जिसमें यह वायरस खोजा गया। लेकिन अब यह वायरस भी अलग अलग देशों में अपने भीतर उत्परिवर्तन कर रहा है। यानी अपना रंग-रूप और मारकता बदल रहा है। इसलिए अब इसके अलग-अलग स्ट्रेनों का अलग-अलग नामकरण जरूरी हो गया है। लेकिन इसके पहले जब तक इस वायरस के विभिन्न रूपों का कोई अधिकृत नाम सामने नहीं आया था, तब तक लोगों ने जिस देश में जो वेरिएंट मिला, उसे उसी के नाम से पुकारना शुरू कर दिया। सारे बवाल की जड़ यही है।
लेकिन वैज्ञानिक क्षेत्र में ऐसी हड़बड़ाहट या सियासत काम नहीं करती। हमारे देश में तो किसी भी मुद्दे पर राजनीति हो सकती है। लिहाजा ‘इंडियन वेरिएंट’ पर भी घमासान मचा। मानो इसका भी कोई राजनीतिक लाभ हो सकता है। जब पाकिस्तानी मीडिया में खबर चमकी कि वहां कोरोना का पहला ‘इंडियन स्ट्रेन’ मिला तो भाजपा प्रवक्ता डॉ. संबित पात्रा ने इसके लिए कांग्रेस सांसद राहुल गांधी को घेर लिया। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि राहुल की मंशा पूरी हुई। आशय यह कि राहुल ने कोरोना वायरस को ‘इंडियन’ बताकर भारत को बदनाम किया। यही काम मप्र भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ पर हमला कर और उनके खिलाफ एफआईआर करके किया (अब उस एफआईआर का क्या होगा, देखने की बात है)। यानी जो कुछ हुआ, वह राजनीतिक मूर्खता और हमारे नेताओं के दिमागी दिवालियापन के अलावा कुछ नहीं है।
अब सवाल यह कि राहुल गांधी ने इसे ‘इंडियन स्ट्रेन’ क्यों कहा तो इसका जवाब खुद मोदी सरकार के कोर्ट में दिए हलफनामे में था। ‘द हिंदू ‘की रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 9 मई के एक हलफनामे में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) ने देश में कोवैक्सीन विकसित करने के लिए उठाए गए कदमों का विवरण देते हुए कोरोना वायरस के लिए ‘इंडियन डबल म्यूटेंट स्ट्रेन’ शब्द का उल्लेख किया। आईसीएमआर के इस हलफनामे पर कांग्रेस नेता शशि थरूर ने आपत्ति जताई थी, लेकिन सरकार और भाजपा को इसकी गंभीरता समझ नहीं आई। परंतु इस हलफनामे के तीन दिन बाद ही केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने उन मीडिया रिपोर्ट्स पर कड़ी आपत्ति जताई, जिसमें कोरोना वायरस के एक स्वरूप बी.1.617 को ‘इंडियन वेरिएंट’ कहा गया था।
मंत्रालय ने कहा कि डब्लूएचओ ने इस वेरिएंट को इंडियन जैसा कोई नाम नहीं दिया है। उधर ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने भी सफाई दी कि वह वायरस के किसी वेरिएंट को किसी देश के नाम से नहीं जोड़ता है। बहरहाल, अब डब्लूएचओ ने बदनाम कोरोना वायरस के वैज्ञानिक नामकरण की पद्धति तय कर दी है। इसके मुताबिक ग्रीक अल्फाबेट (वर्णाक्षर) को आधार बनाकर सभी कोविड वेरिएंट्स का नामकरण किया जाएगा। ग्रीक वर्णमाला में 24 अक्षर हैं। इसी के तहत कथित इंडियन वेरिएंट यानी B.1.617.2 का नाम ‘डेल्टा वेरिएंट’ कर दिया गया है तथा देश में मिले एक और वेरिएंट B.1.617.1 का नाम ‘कप्पा’ रख दिया गया है। इसी प्रकार ब्रिटिश वेरिएंट ‘अल्फा’, साउथ अफ्रीकन वेरिएंट ‘बीटा’, ब्राजील वेरिएंट ‘गामा’, फिलीपीन्स वेरिएंट ‘थीटा’ व यूएस वेरिएंट ‘एप्सिलान’ कहलाएगा। यदि ग्रीक अल्फाबेट के वर्ण भी खत्म हो जाएंगे तो नामकरण की नई सीरिज शुरू होगी। लेकिन अब किसी देश के नाम से कोई वायरस नहीं जाना जाएगा।
यहां प्रश्न किया जा सकता है कि क्या ग्रीक लोग इस नामकरण के लिए तैयार हैं? या वो लोग भी हमारे नेताओं की तरह बवाल मचाएंगे? उनकी संस्कृति खतरे में आ जाएगी। क्योंकि मान लीजिए यदि डब्लूएचओ तय करता कि वह देवनागरी के वर्णों (या ऐसी ही किसी और भाषा) का इस्तेमाल कोविड नामकरण के लिए करेगा तो हमारे देश में कितना बवाल मचता? लेकिन ग्रीस या उस जैसे देशों में ऐसा कुछ नहीं होगा, क्योंकि उनकी सांस्कृतिक, वैज्ञानिक समझ व दृष्टि हमसे कई गुना ज्यादा और व्यापक है। वायरस से जोड़े जाने पर ग्रीक अल्फाबेट की महत्ता और ग्रीस की महान संस्कृति पर कोई आंच नहीं आने वाली है। यही वैश्विक समझ और वैज्ञानिक सहिष्णुता भी है।