आचार्य नरेंद्र देवः क्या कभी जीत पाएगी उनकी नैतिकता?

अरुण कुमार त्रिपाठी

अमेरिका से भारत तक फैले झूठ, पाखंड और राजनीतिक अनैतिकता के इस दौर में आचार्य नरेंद्र देव बहुत याद आते हैं। इस स्तंभकार से जब कोई कहता है कि इस दौर में ऐसे लोगों को याद करने का क्या मतलब है तब मैं यही कहता हूं कि पतन के इसी दौर में तो उनका स्मरण सार्थक हो सकता है। आचार्य नरेंद्र देव को याद करते हुए लखनऊ के अस्सी के दशक की स्मृतियां कौंध जाती हैं। कुछ विद्यार्थी, शिक्षक और राजनीतिक कार्यकर्ता 31 अक्तूबर को पड़ने वाली उनकी जयंती मनाते थे और उसमें सभी धाराओं के लोग जुट जाते थे। तब सरदार पटेल की जयंती मनाने का उतना जोर नहीं था।

ऐसी गोष्ठियों में कुछ लोग तो वैसे लोग होते ही थे जो शहर की हर गोष्ठी में मौका मिलने पर पहुंचने की तलाश में रहते हैं, लेकिन आचार्य जी के नाम पर कई ऐसे लोग आते थे जो अपनी उम्र और व्यस्तता के कारण आमतौर पर किसी गोष्ठी में नहीं जाते थे या फिर वैचारिक भिन्नता के कारण भी बचते रहते थे। विशेष तौर पर सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट एक दूसरे की गोष्ठियों में जाने से बचते थे कि क्योंकि कब गंभीर बहस हो जाए और टकराव की स्थिति आ जाए।

आचार्य नरेंद्र देव का कद ऐसा संधिबिंदु था कि उनके नाम पर सीपीआई के रमेश सिन्हा, अतुल अनजान भी आ जाते थे और सोशलिस्ट पार्टी के सुरेंद्र मोहन, आचार्य जी के सहयोगी रहे सर्वजीत लाल वर्मा, रेडिकल ह्यूमैनिस्ट चंद्रोदय दीक्षित, मुंशीजी, प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा और कला समीक्षक कृष्ण नारायण कक्कड़ भी आते थे। कभी कभी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य जेड.ए. अहमद भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे। प्रोफेसर रमेश दीक्षित, प्रोफेसर भुवनेश मिश्र, प्रोफेसर प्रमोद कुमार, राजीव हेमकेशव, प्रोफेसर आशुतोष मिश्र और दूसरे तमाम विद्वान प्राध्यापकों को स्वतः स्मरण रहता था और वे अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर आचार्य जी को याद करने आ जाते थे।

उसी गोष्ठी में एक वक्ता ने जब सवाल पूछा कि आप लोग आचार्य नरेंद्र देव की नैतिकता की बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं तो बताइए आज वैसे लोग क्यों नहीं पैदा होते? आखिर क्या खाकर आचार्य नरेंद्र देव जैसे लोग पैदा होते हैं? इस प्रश्न का किसी के पास उत्तर नहीं था, लेकिन यही उस गोष्ठी का हासिल बन गया था।

आज जब समाजवादी आंदोलन ढलान पर है और उसका नाम लेते ही मंडलवादी नेताओं की परिवारवादी, जातिवादी और सत्तालोलुप भ्रष्ट छवि उभरती है, जिसको निशाने पर लेकर पूरे आंदोलन को खारिज किया जाता है, तब नरेंद्र देव जैसे विचारक राजनेता बहुत याद आते हैं। नरेंद्र देव उस समय भी बहुत याद आते हैं जब भारत के कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट आंदोलन के बीच चौड़ी हो चुकी वैचारिक खाई दिखती है और कहा जाता है कि लोहिया और जेपी जैसे सोशलिस्टों ने कम्युनिस्टों को झटक कर फासिस्टों का दामन पकड़ लिया और उसी के कारण आज की राजनीति तानाशाही की ओर जा रही है।

आचार्य नरेंद्र देव उस समय भी याद आते हैं जब कहा जाता है कि मार्क्सवादियों के विचार यूरोप से आए हैं और उन्हें भारतीय दर्शन और समाज की कोई समझ ही नहीं है। आचार्य जी उस समय भी प्रासंगिक हो जाते हैं जब कोई मार्क्सवादी महात्मा गांधी के करीब जाता है और उनके जीवन में प्रेरणा के तत्व देखता है।

यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि 31 अक्तूबर 1889 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर में जन्मे और 19 फरवरी 1956 को मद्रास प्रांत के कोयंबटूर से कुछ दूरी पर इरोड में अंतिम सांस लेने वाले आचार्य नरेंद्र देव ने 67 साल की उम्र में भारतीय राजनीति, चिंतन और शैक्षणिक जगत पर जो छाप छोड़ी वह अमिट है। उससे भी बड़ी बात है कि वे अपनी मार्क्सवादी वैचारिक प्रतिबद्धता से कभी डिगे नहीं और सत्ता लोलुपता के कारण कभी कोई समझौता नहीं किया।

अपनी असाधारण विद्वता, सरलता, साहस और नैतिकता के कारण उन्होंने जो राष्ट्रीय ख्याति कमाई थी उसके कारण उन्हें राजनीति का कोई भी पद दुर्लभ नहीं था। आजादी के बाद समाजवादियों की ओर झुकते हुए स्वयं महात्मा गांधी उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन दमे की मर्ज और सरदार पटेल के वैचारिक विरोध के कारण वैसा हो न सका। आचार्य जी जिनका बचपन का नाम अविनाशी लाल था, वे पहले अरविंद घोष की क्रांतिकारी धारा से प्रभावित हुए लेकिन बाद में मार्क्सवादी बन गए और जीवन पर्यंत मार्क्सवादी रहे।

हालांकि उन्होंने कभी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता नहीं ली और देशभक्ति के कारण आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के भीतर सक्रिय रहे। इस दौरान जब मानवेंद्र नाथ राय और देश के दूसरे कम्युनिस्ट नेता सोवियत संघ के प्रभाव में काम करने वाली थर्ड इंटरनेशनल की लाइन के आधार पर गांधी के नेतृत्व को पूंजीपतियों और अंग्रेजों का दलाल बता रहे थे तब उन्होंने गांधी का बचाव किया।

लेकिन वे कांग्रेस की नीतियों से सहमत नहीं थे और इसीलिए उसके भीतर रहकर समाजवादी धारा चलाना चाहते थे। उन्होंने संपूर्णानंद के साथ मिलकर 1929 में जो एग्रेरियन प्रोग्राम बनाया उसे बाद में कांग्रेस पार्टी ने 1931 के कराची अधिवेशन में स्वीकार किया। इसी क्रम में आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में 17 मई 1934 को पटना में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। आचार्य नरेंद्र देव, जेपी और अच्युत पटवर्धन की समझ और सक्रियता से प्रभावित होकर ही जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें 1936 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनाया। यहां आचार्य नरेंद्र देव पर शोध करने वाले अनिल नौरिया एक सवाल उठाते हुए उसका जवाब आचार्य जी के माध्यम से ही देते हैं। सवाल यह है कि क्या आचार्य नरेंद्र देव गांधीवाद और मार्क्सवाद का समन्वय कर रहे थे। इसका जवाब 1950 में स्वयं आचार्य जी ने अपने एक लेख में इस प्रकार दिया है।

वे कहते हैं- “सत्याग्रह स्वीकार करके मार्क्सवाद के किसी सिद्धांत के साथ कोई अन्याय नहीं किया गया। न ही इसे मार्क्सवाद और गांधीवाद का समन्वय कहा जा सकता है। मार्क्सवाद कभी भी हिंसा का शौकीन नहीं रहा। अगर उद्देश्य को अहिंसक तरीके से प्राप्त किया जा सकता है तो मार्क्सवाद इसे (अहिंसा को) सबसे ज्यादा महत्व देता है।’’

इसी तर्क के आधार पर उन्होंने भूदान आंदोलन का भी समर्थन किया। जबकि तमाम कम्युनिस्ट नेता उसका विरोध कर रहे थे। जब दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलनों में चीन के अलावा कहीं भी किसानों को अहमियत नहीं दी जाती थी, तब आचार्य नरेंद्र देव ने अखिल भारतीय किसान सभा का नेतृत्व करते हुए किसानों की क्रांतिकारी भूमिका को रेखांकित किया। वे किसानों और भूमिहीन मजदूरों के बीच अंतर्विरोध देखने के हिमायती नहीं थे। हालांकि उन्होंने 1939 में गया सम्मेलन में भूमिहीन किसानों और मजदूरों के हितों पर ध्यान देने की बात कही। उनकी इस बात को ‘गया थीसिस’ के नाम से जाना जाता है।

इसी के साथ वे क्रांतिकारी लोकतंत्र की बात भी करते हैं। जहां संसदीय राजनीति में भटक जाने के बजाय निरंतर परिवर्तन करते रहना जरूरी है। वे इसके लिए बौद्ध धर्म के शील के सिद्धांत की मदद लेने का सुझाव देते हैं जिसके माध्यम से हृदय परिवर्तन किया जा सकता है। नरेंद्र देव नहीं मानते थे कि भूदान समाजवाद का विरोधी है। वे मानते थे कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन पूरक कभी मूल का विकल्प नहीं हो सकता।

अनिल नौरिया लिखते हैं कि नरेंद्र देव को एक भ्रमित सोशल डेमोक्रेट नहीं कहा जा सकता। वे मार्क्सवाद में संशोधन नहीं कर रहे थे। राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें ऐसा मार्क्सवादी माना है जिन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन से अपने को अलग रखा, लेकिन विचार के साथ समझौता नहीं किया। आचार्य जी ने राहुल सांकृत्यायन के साथ मिलकर 1930 के दशक में कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो का पहला हिंदी अनुवाद किया था।

दरअसल आचार्य नरेंद्र देव ऐसी विलक्षण प्रतिभा हैं जिनके भीतर राष्ट्रीयता, अंतरराष्ट्रीयता, मार्क्सवाद और बौद्ध दर्शन समाया हुआ है। उनके भीतर इन विचारों को लेकर कोई भ्रम और टकराव नहीं हैं। वे जानते हैं कि किसे कहां किस खाने में रखना है। वे सरल थे, विनम्र थे लेकिन क्रांतिकारिता और विचारों की प्रखरता में शिखर पर बैठे हुए थे। उन्हें संघर्ष से डर नहीं लगता था और न ही किसी भी पद और अवसर को त्याग करके चल देने में किसी प्रकार की झिझक होती थी।

नरेंद्र देव सन 1920 से ही काशी विद्यापीठ से जुड़ गए थे और आचार्य भगवानदास के बाद वहां के प्राचार्य बने। हालांकि वे कांग्रेस में 1916 से ही शामिल हो गए थे और पहली बार कांग्रेस के अधिवेशन में तब गए जब दस साल के थे, लेकिन गांधी जी से उनकी निजी भेंट 1929 में हुई। श्रीप्रकाश जी के माध्यम से जब यह भेंट हुई तो गांधी जी ने श्रीप्रकाश जी से कहा आपने यह रत्न कहां छुपा रखा था। श्रीप्रकाश जी ने कहा कि महात्मा जी, रत्न अपना प्रचार करते नहीं घूमते, उन्हें तो जौहरी ढूंढकर ले जाता है। उसके बाद गांधी जी ने उन्हें छोड़ा नहीं।

आचार्य नरेंद्र देव की राजनीति के साथ शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में गहरी पैठ थी। बौद्ध धर्म दर्शन तो उनकी अद्भुत किताब है ही लेकिन उन्होंने आचार्य बसुबंधु द्वारा रचित ‘अभिधर्म कोष’ जैसे कठिन बौद्ध ग्रंथ का फ्रांसीसी भाषा से हिंदी में अनुवाद करके महान कार्य किया। वह कोष भारत में विलुप्त हो गया था और चीनी भाषा से फ्रांस में जो अनुवाद हुआ था वही बचा था। इस काम को करके आचार्य ने एक दुर्लभ ज्ञान संपदा को जीवित किया। इस दौरान उनकी आंखों पर भी प्रतिकूल असर पड़ा क्योंकि उन्होंने यह काम जेल के अंधेरे में किया था।

वे हिंदी, उर्दू, पाली, फ्रांसीसी और जर्मन भाषाओं के ज्ञाता थे। वे हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में अद्भुत व्याख्यान देते थे और जब एक भाषा में बोल रहे होते तो दूसरी भाषा का शब्द नहीं आता था। तभी तो 1936 में कांग्रेस के अधिवेशन में उनका भाषण सुनकर ईएमएस नंबूदिरीपाद, मार्क्सवादी समाजवाद की ओर आकर्षित हुए।

इतने विलक्षण ज्ञान वाले आचार्य नरेंद्र देव ने सारी शिक्षा देश में ही पाई थी। वे उस समय के अन्य नेताओं की तरह अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी शिक्षा प्राप्त करने नहीं गए। वे पहले इलाहाबाद, फिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय और बीएचयू के कुलपति भी बने। लखनऊ में जिन लोगों ने उन्हें देखा था वे बताते थे कि कुलपति रहते हुए आचार्य जी कक्षाएं भी लेते थे। विश्वविद्यालय में टहलते रहते थे और देखा जहां कक्षा खाली है वहीं घुस जाते थे। विज्ञान के कुछ मूल विषयों को छोड़कर समाज विज्ञान, दर्शन और भाषा के किसी भी विषय पर धारा प्रवाह व्याख्यान देने लगते थे।

यही कारण था, जब एक बार विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलित हुए तो आचार्य जी ने उन्हें संक्षिप्त सा संबोधन दिया और वे अपनी कक्षाओं में चले गए। 1951 में जब वे लखनऊ विश्वविद्यालय से जाने लगे तो भावुक छात्रों ने उनका रास्ता रोका कि वे उन्हें नहीं जाने देंगे। यह था किसी कुलपति के लिए छात्रों का प्यार।

लेकिन रिटायर होने के बाद भी लोग उन्हें छोड़ने वाले नहीं थे। केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जी से कृष्णाम्माचारी और पंडित हृदय नाथ कुंजरू ने अनुरोध किया कि वे आचार्य नरेंद्र देव को बीएचयू का कुलपति नियुक्त कराएं। वे राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के पास गए। राष्ट्रपति ने कहा, ”आप लेट हो गए। हमने अभी-अभी फाइल क्लीयर की है और किसी अन्य को कुलपति बना दिया। आप जानते हैं कि हम आचार्य जी का कितना आदर करते हैं। लेकिन वे अपनी समाजवादी राजनीति नहीं छोड़ेंगे और दमा उन्हें नहीं छोड़ेगा। हमें ऐसा कुलपति चाहिए जो विश्वविद्यालय में अधिकतम समय दे।’’

लेकिन कुलपति की नियुक्ति की फाइल जब शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के पास पहुंची तो उसे लेकर वापस राष्ट्रपति के पास गए और उनका फैसला पलटवा कर आचार्य नरेंद्र देव को कुलपति नियुक्त करवाया। पर सिद्धांतों की राजनीति करने वाले नरेंद्र देव सिद्धांतहीनता की राजनीति से हार गए। 1948 में जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ी तो कांग्रेस पार्टी के माध्यम से प्राप्त हुई विधानसभा की सदस्यता भी छोड़ दी। वह सदस्यता छोड़ने का कार्यक्रम वैसा नहीं था जैसे आजकल कर्नाटक और मध्यप्रदेश में विधायक पाला बदलने के लिए इस्तीफा देते हैं। तब कांग्रेस का जलवा था और कांग्रेस को छोड़ने का मतलब था राजनीतिक हाराकीरी करना। लेकिन आचार्य जी ने अपने साथियों समवेत इस्तीफा देते हुए यह शेर पढ़ा- हमीं न होंगे क्या रंगे महफिल, किसे देखकर आप शर्माइएगा।

वे अयोध्या से उपचुनाव में खड़े हुए और उनके खिलाफ मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभपंत ने पूरी सांप्रदायिक राजनीति खेली और उस मामले पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी चुप रहे। बाबा राघव दास को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया और प्रचार किया गया कि आचार्य जी बहुत विद्वान हैं लेकिन वे नास्तिक हैं और अगर वे यहां से जीत गए तो अयोध्या का महत्व कम हो जाए। यह भी कहा गया कि अगर वे हनुमान गढ़ी पर माथा टेक दें तो उन्हें चुनाव जितवा दीजिए। आचार्य नरेंद्र सांप्रदायिकता के साथ तो क्या, धर्म के साथ भी समझौता करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा, ”अपनी साझी राष्ट्रीयता सिद्ध करने के लिए हमें किसी पारलौकिक चमत्कार का सहारा लेने की जरूरत नहीं है। इस तरह के चमत्कार के दिन जा चुके हैं। उनका परीक्षण हो चुका है और वे उन परीक्षणों में फेल हुए हैं।’’

आज जब लोकतंत्र को भटकाने के लिए धर्म की राजनीति और अवतारवाद का जोर चल पड़ा है तब आचार्य नरेंद्र देव के इस कथन के माध्यम से यह पूछने का मौका बनता है कि आखिर 1948 में पाखंड की राजनीति से हारने वाले आचार्य नरेंद्र देव कब जीतेंगे?

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