जयराम शुक्ल
अपन के गुरदेव तो बजरंग बली हैं। गोस्वामी जी कह गए हैं- ‘’अउर देवता चित्त न धरई, हनुमत सेइ सर्व सुख करई।‘’ गोसाईं जी के लिए बजरंगबली देवता, ईश्वर नहीं बल्कि गुरु हैं। इसलिए जब भी अपने गुरु का बखान करते हैं तो समझिये हनुमान जी का करते हैं। हनुमान चालीसा का आरंभ- श्री गुरु चरण सरोज रज.. से करते हुए कामना करते हैं और ऐसी ही कामना की प्रेरणा देते है- जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाई
तो जब विश्व के इतने महान, यशस्वी साधक ने उन्हें ही अपना गुरु माना तो अपन भी तो उसी परंपरा के मसिजीवी हैं, अदने से ही सही। सच पूछिये तो जिंदगी में कोई लौकिक गुरु नहीं मिला, न ही किसी को गुरुबाबा बनाने का कभी ख्याल आया। अलबत्ता पहली से एम.एससी तक और पत्रकारिता में शिक्षक मिले, प्रेरक मिले, अगुवा मिले पर गुरु नहीं ।
आदमी की एक दूसरे से रिश्तदारी स्वार्थ की रस्सी से बँधी होती है। एक उम्र आते आते तो पिता और पुत्र के बीच में भी यही रिश्ता हो जाता है, दूसरों को क्या कहिए। दाढ़ी वाले कनफुकवा तोंदियल अपन की समझ में कभी नहीं आए। एक कान में जो मंत्र फूकते हैं वह दूसरे से निकल जाता है। फिर उनके आशीर्वाद का वजन भी भक्त की आर्थिक हैसियत के हिसाब से होता है। आजकल ऐसे महंत, पंडे भी अपनी महिमा की मार्केटिंग करते हैं। बाकायदा उनकी प्रोपेगंडा टीम होती है जो प्रचारित करती है कि ये कितने महान व चमत्कारी हैं। देश और बाजार के कौन कौन जोधा उनके चेले हैं। ऐसे ही एक गुरु हैं जो औद्योगिक घरानों के बीच आर्बिटेशन का काम करने के लिए जाने जाते हैं।
एक बार एक मित्र एक चमत्कारी संत के यहां ले गए। चुनाव का सीजन था। टिकटार्थी लाइन पर लगे थे। मित्र भी लाइन में लग गए। बात उन दिनों की है जब अपन को बस और रेल की टिकट के लिये भी लाले पड़ते थे। संतजी भगत के चढ़ावे के हिसाब से पार्षदी से लेकर सांसदी तक की टिकट के लिए मैय्या से विनती करते थे। मित्र के लिए मैय्या से विधायकी की सिफारिश की। अब तक मित्र के उम्र की मैय्यत भी निकल गई टिकट नहीं मिली।
चमत्कारी संत के लगुआ ने बताया कि मेरे मित्र के प्रतिद्वंद्वी ने ज्यादा भक्ति की सो टिकट उसको मिल गई। बस उसी दिन समझ में आ गया कि- जो ध्यावे फल पावे- का क्या अर्थ होता है। बहरहाल चाँदी तो इन्हीँ की कटती है। ये अपने अपने विश्वास की बात है। विश्वास जिंदा रहे, धर्म के नाम का धंधा फले फूले। इनकम टैक्स, इनफोर्समेंट की काली छाया इन पर कभी न पडे़। जनता टैक्स पर टैक्स दे देकर इनके दर पर जैकारा मारती रहे। सरकारें आती जाती रहें और आश्रमों का टर्नओवर इसी तरह दिनदूना रात चौगुना बढ़ता रहे।
बचपन में भागवत कथा सुनने जाता था। देवताओं राक्षसों के बीच ढिसुंग ढिसुंग की कहानियां सुनकर बड़ा मजा आता था। पर जब गुरुबाबा काम, क्रोध, मद, मोह और माया (धन दौलत) त्यागने का उपदेश देने लगते तो बोरियत होती थी। अपने गांव में देखा गुरुबाबा लालबिम्ब और जजमान मरियल सा। रहस्य था गुरुबाबा दस दिन देशी घी की हलवा पूरी छानते थे और उनके आदेश पर बपुरा जजमान उपासे कथा सुनता था। गए साल मित्र के यहां भागवत हुई। रिश्ता निभाना था सो गया। पता चला मोहमाया, लोभ त्यागने का उपदेश देने वाले पूरे दस लाख के करारनामे में आए थे।
सो ऐसे कई वाकए हैं कि न मेरा शिक्षा में कोई गुरु हुआ, न पेशे में और न ही कनफुकवा मंत्र देने वाला। मैं तलाशता रहा कि कोई गुरु मिले स्वामी रामानंद जैसा जो कान में यह फूंकते हुए हृदय में उतर जाऐ कि जाति पाँति पूछे नहि कोय, हरि को भजै सो हरि का होय। रैदास जैसा भी कोई नहीँ मिला जिसके मंत्र में क्षत्राणी मीरा, कृष्ण की दीवानी मीरा बन गई।कबीर, नानक जैसे सद्गुरु आज के दौर में होते और तकरीर देते तो उनकी मुंडी पर कितने फतवे और धर्मादेश जारी होते हिसाब न लगा पाते। नेकी कर दरिया में डाल जैसा उपदेश देने वाले बाबा फरीद होते तो यह देखकर स्वमेव समाधिस्थ हो जाते कि नेकी की सिर्फ़ बातकर, विज्ञापन छपा और टीवी में जनसेवा के ढोल बजा।
अपन ने बजरंग बली को गुरु इसलिए बनाया कि भक्तों से उनकी कोई डिमांड नहीं। सिंदूर चमेली का चोला व चने की दाल चढ़ाने वाले दोनों पर बराबर कृपा बरसाते हैं। वे सद्बुद्धि के अध्येता हैं। डरपोक सुग्रीव को राज दिलवा दिया। विभीषण को मति देकर राक्षस नगरी से निकाल लाए व लंकाधिपति बनवा दिया। वे गरीब गुरबों के भगवान हैं। लिखने पढने वालों के प्रेरक हैं। वे वास्तव में सद्गुरु हैं। हनुमत चरित अपने आप में ज्ञान का महासागर है सो साल का हर दिन ही मेरे लिए गुरु पूर्णिमा जैसा है। इसलिए हर दिन उन्हें ही स्मरण करता हूँ कि बजरंगबली सदा सहाय करें।