मातृभाषा: अपना गौरव अपनी पहचान 

डॉ. पवन सिंह मलिक

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने स्वयं के अनुभव के आधार पर कहा है कि ‘मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की’ और यह अटल सत्य भी है कि भाषा केवल संवाद की ही नहीं अपितु संस्कृति एवं संस्कारों की भी संवाहिका है। भारत एक बहुभाषी देश है। सभी भारतीय भाषाएँ समान रूप से हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक अस्मिता की अभिव्यक्ति करती हैं। यद्यपि बहुभाषी होना एक गुण है किंतु मातृभाषा में शिक्षण वैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है। मातृभाषा में शिक्षित विद्यार्थी दूसरी भाषाओं को भी सहज रूप से ग्रहण कर सकता है।

प्रारंभिक शिक्षण किसी विदेशी भाषा में करने पर जहाँ व्यक्ति अपने परिवेश, परंपरा, संस्कृति व जीवन मूल्यों से कटता है वहीं पूर्वजों से प्राप्त होने वाले ज्ञान, शास्त्र, साहित्य आदि से अनभिज्ञ रहकर अपनी पहचान खो देता है। कोई भी देश तब तक विकास नहीं कर सकता जब तक कि उसकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खुद की भाषा न हो। हम सारी भाषाओं का स्वागत करते हैं। क्योंकि भाषा किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता की संवाहक होती है। राष्ट्र निर्माण में भाषा की क्या भूमिका हो सकती है वह हमें चीन, कोरिया, जापान, इजराइल जैसे देशों से बखूबी सीखना चाहिए।

भारत के ख्याति प्राप्त अधिकतर वैज्ञानिकों ने अपनी शिक्षा मातृभाषा में ही प्राप्त की है। महामना मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री माँ, डॉ. भीमराव आम्बेडकर, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे मूर्धन्य चिंतकों से लेकर चंद्रशेखर वेंकट रामन, प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र बसु जैसे वैज्ञानिकों, कई प्रमुख शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने मातृभाषा में शिक्षण को ही नैसर्गिक एवं वैज्ञानिक बताया है। इसी प्रकार वर्तमान में विभिन्न राज्यों की बोर्ड की परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी, मातृभाषा में पढ़ने वाले ही अधिक हैं।

शिक्षा के विभिन्न आयोगों एवं देश के महापुरुषों ने भी मातृभाषा में शिक्षा होनी चाहिए, ऐसे सुझाव दिये है। महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा हैः-‘बच्चों के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है, जितना शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध’। देश में मैकाले की शिक्षा पद्धति हिन्दुस्तानियों को हिंदुस्तानी अंग्रेज बनाने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। आज भी अंग्रेजी बोलने वाले को श्रेष्ठ जबकि अन्य भारतीय भाषा बोलने वाले लोग दोयम दर्जे के समझे जाते हैं। हिन्दी भाषा मां के समान है। हिन्दी अन्य भाषाओं को अपने में समाहित कर लेती है। हिन्दी में प्रशासनिक निपुणता है। उदारता तथा आत्मीयता के स्तर पर हिन्दी अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ है। जब हम अपनी भाषा में लिखते है,पढ़ते है, तो हमें आत्मीय आनंद की अनुभूति होती है।

विश्व में विगत 40 वर्षों में लगभग 150 अध्ययनों के निष्कर्ष हैं कि मातृभाषा में ही शिक्षा होनी चाहिए, क्योंकि बालक को माता के गर्भ से ही मातृभाषा के संस्कार प्राप्त होते हैं। भारतीय वैज्ञानिक सी.वी.श्रीनाथ शास्त्री के अनुभव  के अनुसार अंग्रेजी माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वाले की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र, अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं। राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र की डॉ. नन्दिनी सिंह के अध्ययन (अनुसंधान) के अनुसार, अंग्रेजी की पढ़ाई से मस्तिष्क का एक ही हिस्सा सक्रिय होता है, जबकि हिन्दी की पढ़ाई से मस्तिष्क के दोनों भाग सक्रिय होते हैं।

सर आइजेक पिटमैन ने कहा है कि संसार में यदि कोई सर्वांग पूर्ण लिपि है तो वह देवनागरी है। गूगल के अनुसार हिन्दी दुनिया की ऐसी भाषा है जिसमें सर्वाधिक कंटेंट (पाठ्य सामग्री) का निर्माण होता है। हिन्दी सभी भाषाओं की बड़ी बहन है इसका यह अर्थ नहीं है कि हम दूसरी भाषाओं को लघुतर मानें। संस्कृत मातृभाषा है और सभी भ्रातृभाषाएं हैं। संख्यात्मक रूप से सबसे ज्यादा लोग हिन्दी जानते हैं, बोलते हैं। संस्कृति के सबसे निकट भी हिन्दी ही है। सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा भी हिन्दी ही है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में भी हिन्दी ने देश को एकजुट करने में सशक्त भूमिका का निर्वहन किया। असहयोग आंदोलन, अवज्ञा आंदोलन जैसे शब्दों ने देश में आजादी की अलख जगाने का कार्य किया।

हिंदी के प्रति हीनता का भाव होने के कारण हम प्राचीन ज्ञान विरासत से अलग हो गए, भारतीयता से विमुख हो गए। हमें अपनी भाषा को सम्मान देना चाहिए। जब तक कोई मजबूरी न हो, तब तक देवनागरी लिपि में ही हिंदी लिखें और अपनी भाषा को विकृत न होने दें। तुर्क, अरबी और अफगानी हमलावरों ने भारत में सबसे पहले संस्कृत पाठशालाएं बंद कीं और फिर तक्षशिला एवं नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को जलाकर भोजन पकाया। पुस्तकों के नष्ट होने से हमारा ज्ञान राख में मिल गया। सोच-विचार कर हमारे ज्ञान और भाषा को समाप्त करने के लिए ऐसा  किया गया था।

संस्कृत भाषा हमसे छीन ली गई, जिसके कारण संस्कृत में रचा गया ज्ञान-विज्ञान भी हमसे छिन गया। संस्कृत में रचा गया साहित्य और ज्ञान हमारे सामने नहीं है। हमें यह तो पढ़ाया जाता है कि शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट ने किया, लेकिन हमारे पाठ्यक्रम में आर्यभट्ट के गणित को नहीं पढ़ाया जाता, क्योंकि वह संस्कृत में है। अंग्रेजों के 200 वर्ष के शासनकाल और स्वतंत्रता के बाद 73 वर्षों में हमें अंग्रेजी पढ़ाई गई। इसके बावजूद भारत में दो प्रतिशत से अधिक लोग अंग्रेजी नहीं जानते।

हमने यह मान लिया है कि भारत में कुछ है ही नहीं या फिर जो कुछ है, वह निम्न कोटि का है। इस मानसिकता के कारण हम अपनी भाषा से ही नहीं, वरन भारतीयता से भी विमुख हो गए। जब कमाल पाशा ने सत्ता संभाली तो उसने सबसे पहले तुर्की भाषा को अनिवार्य किया। माओ त्से तुंग ने चीन में चीनी भाषा को लागू किया और इसी तरह इजरायल ने लगभग समाप्त हो चुकी अपनी भाषा हिब्रू को जीवित किया। आज दुनिया में हिंदी भाषा-भाषियों की संख्या करोड़ों में है, लेकिन यह लोग अपनी भाषा में लिखते-पढ़ते नहीं है।

जब हम हिंदी में लिखेंगे-पढ़ेंगे नहीं, तब वह समृद्ध कैसे होगी?  हमें कटिबद्ध होना चाहिए कि अपनी भाषा से प्रेम करेंगे, सम्मान करेंगे और उसे विकृत नहीं होने देंगे। मातृभाषा में शिक्षण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का भी एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी प्रयास है। इस शिक्षा नीति में भाषा के सामर्थ्य को स्पष्ट रूप से इंगित करते हुए कम से कम कक्षा पाँच तक मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर विशेष बल दिया गया है तथा कक्षा आठ और उसके आगे भी भारतीय भाषाओं में अध्ययन का प्रावधान किया गया है।

इसके साथ ही विद्यालयीन एवं उच्च शिक्षा में त्रिभाषा फ़ार्मूले के अंतर्गत देवभाषा संस्कृत तथा भारत की अन्य पारंपरिक भाषाओं में से विकल्प चुनने का प्रावधान है। आज अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर प्रत्येक देशवासी को संकल्पबद्ध होना होगा की हम भारत के समुचित विकास, राष्ट्रीय एकात्मता एवं गौरव को बढ़ाने हेतु शिक्षण, दैनंदिन कार्य तथा लोक-व्यवहार में मातृभाषा को प्रतिष्ठित करने हेतु प्रभावी भूमिका निभाएंगे। इस विषय में परिवार की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। अभिभावक अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी ही भाषा में देने के प्रति दृढ़ निश्चयी बनें। हम सबके छोटे-छोटे प्रयासों से ही यह कार्य संभव हो पाएगा।

हमें शुद्ध हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। उसे संवारना और समृद्ध करना चाहिए। नये शब्द गढ़ना चाहिए। जनसंचार माध्यमों को समाज का अनुकरण नहीं, बल्कि नेतृत्व करना चाहिए। भाषा और विचार के क्षेत्र में भी जनसंचार माध्यमों को समाज को दिशा देनी चाहिए। हम श्रेष्ठता को चुनते हैं। इसलिए बोलचाल के नाम पर हिंदी को बिगाड़े नहीं, बल्कि शुद्ध हिंदी शब्दों का उपयोग करें। जनमानस यदि तय कर ले कि मातृभाषा के प्रयोग को बढ़ाना है, तब राजनीति स्वत: उसका अनुकरण करेगी। देश हित में अंग्रेजी और अंग्रेजियत से छुटकारा पाना है, तो उसके लिए मातृभाषा के व्यावहारिक प्रयोग तथा उसके संरक्षण व संवर्धन हेतु भाषा प्रेमी सभी नागरिकों एवं सामाजिक, राजनैतिक नेतृत्व एवं संस्था, संगठनों को अपनी-अपनी भूमिका तय करनी होगी।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में वरिष्ठ  सहायक प्राध्यापक हैंं)

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