सवाल तो अखिलेश के पास ज्‍यादा होने चाहिए…

बसपा सुप्रीमो मायावती आज भले ही लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन को गलती बता कर, अखिलेश यादव को कोसते हुए उन्‍हें अपरिपक्‍व कह रही हों, लेकिन दोनों पार्टियों के गठबंधन से लेकर चुनाव परिणामों तक अखिलेश और मायावती का व्‍यवहार यदि बारीकी से देखें तो महसूस होगा कि अखिलेश यादव ने तुलनात्‍मक रूप से गठबंधन को निभाने की पूरी ईमानदारी से कोशिश की। वरना भारत की राजनीति का और खासतौर से उत्‍तरप्रदेश की राजनीति का वह ऐतिहासिक फोटो कभी देखने को नहीं मिलता जिसमें सपा अध्‍यक्ष और राज्‍य के पूर्व मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव की पत्‍नी और दिग्‍गज नेता मुलायमसिंह यादव की बहू डिंपल यादव मायावती के पैर छूती नजर आईं थीं।

सामाजिक और जातिगत समीकरणों के लिहाज से भी वह फोटो भारतीय राजनीति की बदलती करवट का प्रतीक बनकर उभरा था। जो लोग उत्‍तरप्रदेश के सामाजिक ताने बाने या उसके मिजाज को जानते हैं वे इस बात को और अधिक गहराई और गंभीरता से अनुभव कर सकते हैं कि सत्‍ता और प्रभुतासंपन्‍न यादव परिवार की बहू के दलित की बेटी के पैर छूने के मायने क्‍या हैं?

लेकिन चुनाव में अपेक्षित परिणाम न मिलने से बौखलाईं मायावती आज कह रही हैं- ‘’अखिलेश यादव गठबंधन के लिए पूरी तरह अपरिपक्व हैं। चुनाव के बाद कई दिनों तक मैं इंतजार करती रही कि वह आएंगे और बात करेंगे, लेकिन वह नहीं आए। ऐसी सूरत में एसपी के साथ गठबंधन बरकरार नहीं रखा जा सकता। एसपी की तरफ से जो सहयोग चाहिए था, वह नहीं मिला। मैंने अखिलेश यादव को कई बार इसके लिए आगाह भी किया पर वह समझ नहीं सके और भितरघात होता रहा। लोगों में यह फैलाया जा रहा है कि हमारे 10 सांसद एसपी के सहयोग से जीते, लेकिन हकीकत यह नहीं है। अगर यह सच्चाई है तो यादव परिवार के लोग ही क्यों चुनाव हार गए? अखिलेश क्यों डिंपल को भी जितवा नहीं सके?’’

दरअसल अखिलेश डिंपल को भी क्‍यों नहीं जितवा सके, यह सवाल अखिलेश से ज्‍यादा मायावती की तरफ उछलता है। मायावती के बजाय सवाल तो उलटे अखिलेश को पूछना चाहिए कि आखिर बसपा के जीतने वाले सांसदों की संख्‍या दस और सपा की पांच ही कैसे रहीं। मोदी की जबरदस्‍त लहर के बावजूद, पिछले चुनाव की तुलना में, कैसे मायावती शून्‍य से दस पर चली गईं और सपा दो से घिसटते हुए सिर्फ पांच सीटों तक ही पहुंच सकी।

2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्‍तरप्रदेश में 19.60 प्रतिशत वोट ही मिले थे और इस बार उसने 19.26 फीसदी वोट पाकर सिर्फ 0.34 फीसदी वोटों का ही नुकसान उठाया है। जबकि समाजवादी पार्टी की स्थिति को देखें तो उसकी दुर्दशा ज्‍यादा हुई है। 2014 में सपा ने 22.20 फीसदी वोट हासिल किये थे जबकि इस बार उसका वोट घटकर 17.96 फीसदी रह गया। यानी सपा को इस चुनाव में 4.24 फीसदी वोटों का घाटा हुआ।

अब कहने को कहा जा सकता है कि इसके लिए समाजवादी पार्टी का अंदरूनी या पारिवारिक घमासान भी जिम्‍मेदार है। लेकिन चुनाव के रसायन पर बात करने के बजाय सिर्फ उसके अंकगणित पर ही बात करें तो क्‍या एक तर्क यह नहीं दिया जा सकता कि वोट ट्रांसफर न कराने का जो आरोप मायावती, अखिलेश पर लगा रही हैं, वह सपा से ज्‍यादा बसपा पर लागू होता है। क्‍या यह नहीं कहा जा सकता कि बसपा ने सपा की तुलना में जो दुगुनी सीटें जीती हैं उनमें बहन जी के उम्‍मीदवारों की जीत इसलिए भी संभव हो सकी क्‍योंकि वहां सपा का वोट उन्‍हें ट्रांसफर हुआ। और सपा के उम्‍मीदवार कम इसलिए जीत पाए क्‍योंकि बसपा वोटों का सपोर्ट उन्‍हें नहीं मिला।

खैर… अब ऐसी बाल की खालें कई हैं और समय समय पर वे उधेड़ी या निकाली जाती रहेंगी। लेकिन कुल मिलाकर सपा और बसपा के मेल से एक वोट बैंक तैयार कर भाजपा को हराने का ताना-बाना गूंथने या मंसूबा बांधने का आधार भी अब खत्‍म हो गया है। उत्‍तरप्रदेश की राजनीति इन बदली हुई परिस्थितियों में क्‍या करवट लेती है इसका थोड़ा और साफ परिदृश्‍य विधानसभा के लिए होने वाले उपचुनावों के परिणामों से पता चलेगा, जिसमें दोनों पार्टियों ने अपने अलग उम्‍मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है।

पर इस गठबंधन के टूटने का असर केवल सपा-बसपा अथवा मायावती-अखिलेश अथवा सिर्फ उत्‍तरप्रदेश पर ही नहीं पूरे देश के राजनीतिक परिदृश्‍य पर पड़ने वाला है। क्‍योंकि 17वीं लोकसभा के चुनाव ने देश के सबसे बड़े और केंद्र की सरकार बनाने में सबसे अहम रोल अदा करने वाले राज्‍य में ही इस मिथक को तोड़ दिया है कि यदि विपक्ष एकजुट हो जाए तो भाजपा को हराया जा सकता है। परिणाम बता रहे हैं कि सपा-बसपा ही नहीं यदि कांग्रेस भी इस गठजोड़ में शामिल हो जाती तो भी तीनों मिलकर उतने वोट नहीं जुटा पाते जितने भाजपा ने अकेले जुटा लिए हैं।

जरा एक बार फिर आंकड़ों पर निगाह डालिये। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उत्‍तरप्रदेश में 7.50 फीसदी वोट मिले थे, जबकि इस बार यानी 2019 में उसे 6.31 फीसदी वोट ही मिले। मतलब पिछले चुनाव की तुलना में कांग्रेस को इस बार 1.19 फीसदी वोटों का नुकसान उठाना पड़ा। और वोटों के इस नुकसान से भी कहीं कहीं बड़ा नुकसान उसे गांधी परिवार की परंपरागत सीट अमेठी में राहुल गांधी की हार से हुआ।

अब जरा भाजपा के वोटों पर नजर घुमाएं। 2014 में भाजपा ने 42.30 फीसदी वोटों के साथ उत्‍तरप्रदेश की 80 में से 71 सीटें जीतकर विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया था। सीट के लिहाज से उस समय बहनजी की पार्टी का नामोनिशान तक मिट गया था। सपा और कांग्रेस क्रमश: 5 और 2 सीटें जीतकर किसी तरह अपनी नाक कटने से बचा सके थे।

इस बार भाजपा ने 80 में से 62 सीटें जीती हैं। इस लिहाज से उसे भले ही 9 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा हो लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में उसने इस बार 7.26 फीसदी वोट ज्‍यादा लेकर कुल 49.56 फीसदी वोट अपनी झोली में डाले हैं। 2014 के चुनाव में सपा-बसपा-कांग्रेस तीनों के कुल वोटों का प्रतिशत 49.30 था जो इस बार घटकर 43.53 फीसदी रह गया है। यानी सपा-बसपा ही नहीं, यदि कांग्रेस भी उनके साथ मिलकर 2019 का चुनाव लड़ती तो भी तीनों को उतने वोट नहीं मिलते जितने अकेली भाजपा ने झटक लिए हैं।

ऐसे में अब क्‍याइस पर आगे बात करेंगे…

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