लोकसभा चुनाव के बाद ऐसा लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी का ‘कांग्रेस मुक्त‘भारत का सपना धीरे-धीरे ‘विपक्ष मुक्त’ भारत में तब्दील होता जा रहा है। आश्चर्य यह है कि इस राजनीतिक बदलाव में भाजपा उतनी सक्रिय नहीं है, जितना खुद को खत्म करने के लिए विपक्ष आतुर दिख रहा है। लोकसभा चुनाव के परिणामों ने विपक्षी दलों को सन्निपात जैसी स्थिति में ला खड़ा किया है और उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि राजनीति के इस युद्ध क्षेत्र में लड़ना तो दूर टिके भी कैसे रहें?
रविवार और सोमवार को उत्तरप्रदेश में हुए घटनाक्रम इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं। सपा और बसपा ने लोकसभा चुनाव से पहले बड़े जोर-शोर से एक दूसरे के साथ चुनावी गठबंधन किया था और चुनावी प्रेक्षक इस गठबंधन को भाजपा के लिए बड़े खतरे के रूप में देख रहे थे। लेकिन उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों ने न सिर्फ ऐसे सारे कयासों को बल्कि ‘बुआ और बबुआ’ की तमाम उम्मीदों को भी धो कर रख दिया।
जब तक पूरे परिणाम नहीं आए थे, तब तक विपक्षी दलों ने ईवीएम में गड़बड़ी का बहुत राग अलापा था। एक्जिट पोल अनुमानों के बाद से ही वे यह हवा बनाने में लगे थे कि भाजपा यदि जीत रही है तो निश्चित तौर पर यह ईवीएम में की गई गड़बड़ी या धांधली का ही परिणाम है। लेकिन विपक्ष को शायद अनुमान ही नहीं था कि भाजपा इतनी प्रचंड जीत के साथ सामने आकर खड़ी हो जाएगी। भाजपा प्रत्याशियों की जीत का अंतर भी इतना अधिक रहा है कि उसने ईवीएम से लेकर चुनाव में फर्जीवाड़े सहित तमाम आरोपों के टिके रहने के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी है।
यही कारण है कि विपक्ष को अब कुछ नहीं सूझ रहा। भविष्य की राजनीति अब कैसे करें, इसी अबूझ पहेली को सुलझाने के लिए बसपा सुप्रीमो मायावती ने रविवार को पहले पार्टी के सांगठनिक ढांचे में बदलाव किया और सोमवार को वे इस बयान के साथ सामने आईं कि सपा के साथ उनका गठबंधन अब जारी नहीं रहेगा, बसपा अब सारे चुनाव अपने बूते पर लड़ेगी।
हालांकि मायावती सपा से अलग राह चुनने का संकेत उत्तरप्रदेश में होने वाले विधानसभा उपचुनाव को लेकर पहले ही दे चुकी थीं जब उन्होंने कोई भी उपचुनाव न लड़ने की पार्टी की घोषित नीति में बदलाव करते हुए न सिर्फ इस बार मैदान में उतरने का ऐलान किया था बल्कि यह भी कहा था कि बसपा ये उपचुनाव सपा के साथ मिलकर नहीं लड़ेगी। सपा नेता अखिलेश यादव ने उस समय मायावती के इस ऐलान पर अपनी सधी हुई प्रतिक्रिया में कहा था कि- ‘’अगर रास्ते अलग हो चुके हैं तो इसके लिए बधाई और उसका भी स्वागत।‘’
यह याद दिलाने की कतई जरूरत नहीं है कि चुनाव से पहले अखिलेश और मायावती ने एक दूसरे के लिए कैसे कसीदे पढ़े थे। वो अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव का मायावती के पैर छूना, वो मायावती का मुलायमसिंह के लिए मैनपुरी जाकर जनता से वोट मांगना, वो मुलायमसिंह का मायावती के प्रति आभार जताना, ये सब कुछ अभी-अभी की ही तो बात है। लेकिन चंद दिनों में ही सबकुछ बदल गया है। अब तो बीस दिन पहले वाला संवाद का वो भाव भी नहीं रहा है जिसमें अखिलेश यादव की ओर से कहा गया था कि रास्ते अगर अलग हो गए हैं तो उसके लिए भी बधाई और स्वागत।
अब मीडिया रिपोर्ट्स कह रही हैं कि मायावती ने बसपा की अखिल भारतीय बैठक में कहा- ‘’मुझे ताज कॉरिडोर केस में फंसाने वालों में न केवल बीजेपी, बल्कि मुलायम सिंह यादव का भी रोल था। इसे भूलकर मैं मुलायम के लिए वोट मांगने गई थी,लेकिन अखिलेश ने इसकी कद्र नहीं की। सतीश मिश्रा के कहने के बावजूद अखिलेश ने चुनाव के बाद मुझे फोन नहीं किया। जबकि मैंने नतीजों के बाद अखिलेश को फोन कर उनके परिवार के हारने पर अफसोस जताया था।‘’
लेकिन मायावती का सबसे खतरनाक बयान यह आया है कि चुनाव के दौरान अखिलेश यादव ने उनसे (मायावती) कहा था कि वे मुसलमानों को ज्यादा टिकट न दें। इस बयान के जरिये मायावती ने दोहरी मार की है। एक तरफ उन्होंने अखिलेश और उनकी पार्टी को मुसलिम विरोधी ठहराया है तो, दूसरी तरफ एक बार फिर दलित-मुसलिम गठजोड़ में अपने राजनीतिक भविष्य की संभावना को देखते हुए मुसलमानों को संकेत दिया है कि बसपा ही उनकी असली खैरख्वाह है।
बसपा के आरोपों पर सोमवार को सपा की ओर से आए जवाब की भाषा भी परिस्थितियों के मुताबिक बदली हुई थी। सपा ने बसपा के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि ‘’हमने गठबंधन सदस्यों को जिताने के हरसंभव प्रयास किए पर बसपा ही अपना कोर वोट बैंक समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को ट्रांसफर कराने में नाकाम रही। बसपा की अपने दलित वोट बैंक पर पकड़ कमजोर होने लगी है।‘’
कुल मिलाकर बसपा-सपा की ताजा तू-तू, मैं-मैं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उस भविष्यवाणी को ही सच कर दिया है जो उन्होंने लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान 20 अप्रैल को एटा की चुनावी रैली में की थी। मोदी ने कहा था- ‘’एक और दोस्ती (सपा-बसपा गठबंधन) हुई है, उसके टूटने की तारीख भी तय है। यह फर्जी दोस्ती 23 मई (लोकसभा चुनाव परिणाम का दिन) को टूट जाएगी। उस दिन बुआ और बबुआ,ये दोनों अपनी दुश्मनी का पार्ट-टू शुरू कर देंगे। एक दूसरे को तबाह करने की धमकियां देने लगेंगे।” ठीक यही हो रहा है…
सपा से रिश्ते तोड़कर मायावती ने जहां विपक्षी दलों के बीच गठबंधन की राजनीति की संभावनाओं को पलीता लगाया है, वहीं पार्टी के नए सांगठनिक ढांचे का ऐलान कर खुद को ही परिवारवाद के आरोपों से घेर लिया है। पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने बसपा को परिवारवाद से दूर रखने की भरसक कोशिश की थी। मायावती भी शुरुआत में इसी रास्ते पर चलीं, लेकिन रविवार को उन्होंने अपने भाई को उपाध्यक्ष और भतीजे को राष्ट्रीय संयोजक बनाकर साबित कर दिया कि बसपा कार्यकर्ताओं के जानाधार वाली पार्टी नहीं बल्कि एक परिवार की जेबी पार्टी है। कांग्रेस पर तो इस तरह का आरोप लंबे समय से लगता ही रहा है, मायावती ने अब खुद पर भी यह आरोप लगाने का अवसर तश्तरी में रखकर भाजपा को दे दिया है।