सियापति रामचंद्र की जय- संदेश साफ है

प्रो. उमेश कुमार सिंह

‘सियापति रामचन्द्र की जय’ ने 492 वर्ष के जय श्री राम के संघर्ष की सन्नद्धता को क्या सचमुच तरल और स्निग्ध कर दिया। क्या यह यात्रा की पूर्णता है या अल्प विराम! क्या यह 492 वर्ष की अनन्त क्रूरताओं की पीड़ा के समाधान का राम के स्पर्श का मरहम है?

इसे समझने के लिए पूरे भाषण को विश्लेषित करने के पूर्व प्रतिक्रया पर ध्यान देना होगा! “वहां मस्जिद थी, है और रहेगी।” अपेक्षित भी यही था। किन्तु ‘सियापति रामचंद्र की जय’ कुछ शर्तों के साथ है। आप कह सकते हैं कि नहीं। तो फिर ध्यान दें-‘राम काज किन्हें बिनु मोहिं कहां विश्राम’ का अर्थ क्या है?

क्या यह समान नागरिक संहिता है? क्या यह सर्वपंथसमभाव की मुद्रा है? क्या यह भारत माता के जय का आह्वान है? क्या यह हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति का संवर्द्धन है या हिन्दू समाज का हित संरक्षण और उसके माध्यम से समस्त मानव ही नहीं जीवमात्र को अपने चरित्र से शिक्षित करने का पूर्वजों का स्वप्न ‘वसुधैव कुटुंबकम्’  और ‘कृण्वंन्तो विश्वऽर्याम्’ है?

‘सियापति रामचन्द्र की जय।’ संकल्पित यजमान की घोषणा है। यजमान हूं। नौ चांदी की शिलाओं, नवग्रहों के पूजन का या 1989 में पूजित दो लाख पचहत्तर हजार शिलाओं के माध्यम से कोटि-कोटि भारतीयों के बहुप्रतीक्षित नींव से भव्य भवन के सपने का!!

क्या यह सचमुच सामान्य शिलान्यास या भूमिपूजन है! तब आइये गहराई से जरा सनातन परम्परा की वैज्ञानिकता को भी समझते चलें। यह गर्भगृह है क्या? इसमें चांदी की ईंट और तांबे का अर्थ क्या है? वस्तुत: जब मंदिर पूर्ण होगा और उसके विमान से, प्रधान गुम्बज से होकर जो अनन्त ब्रह्मांडीय ऊर्जा आयेगी वह गर्भगृह में संकलित हो निरन्तर दिव्यचेतनाओं की चैतन्य ऊर्जा को यहां आराधनारत साधकों, जन सामान्य को स्पर्श कर उनके द्वारा लोक में प्रवाहित होगी। यह रहस्य आज तक सामी पंथ को, वामपंथ को,  सत्ताभोगी पंथ को समझ आ ही नहीं सका।

स्पष्ट हो जाता है, जब वाक्य आता है,’भगवान भास्कर के सामने एक स्वर्णिम अध्याय रखा जा रहा है। “लक्ष्यद्वीप से लेह तक।.. अंडमान से अजमेर तक।‘’ क्या यह भारत अर्थात् प्रकाश (ज्ञान) में रत उस भारत का स्वप्न है जहां न केवल सभी सनातन पंथों की उपस्थिति है, बल्कि सामी पंथों के लिए भी स्पेस है!! क्योंकि यह शिलान्यास अनन्त चैतन्यमयी आकाशीय ऊर्जा को ‘स्वस्थ’ करने की भूमि है। मूलाधार से भी गहरे स्वयंभू की भूमि है।

सदियों का इंतजार आज समाप्त हो रहा है। क्या यह इंतजार इसी रामराज्य का था? या वर्षों से टाट के नीचे रहे राम को भव्य मंदिर में बिठाने का। या देश की जनभावना के रूप में शक्ति की प्रतीक बनीं शिलाओं के सशक्त संदेश का। ऐत: ‘न भूतो न भविष्यति:।’ वस्तुत: यह इतिहास का न्याय है, जो हर बार नये प्रतीकों के साथ आता है। इसे समझना ही होगा।

‘श्री राम सम्पूर्ण हैं। प्रकाश स्तंभ हैं। इसीलिए मंदिर के लिए कई-कई सदियों तक कई-कई पीढ़ियों ने जो अखंड अविरल प्रयास किया, जिसमें अर्पण भी था, तर्पण भी। संघर्ष भी था संकल्प भी।’ क्या यह राम की सम्पूर्णता मंदिर के साथ पूर्ण होगी या इसके पहले पूज्य सरसंघचालक मा. मोहन जी भागवत के अनुसार पहले मन के मंदिर को ठीक करना होगा?

आखिर किसके मन को ठीक करने की बात कही जा रही है? क्या केवल रामभक्तों के मन मंदिर की बात है या कुछ आगे भी। संकेत स्पष्ट है, महर्षि अरविन्द के शब्दों में,”स्वदेश और स्वधर्म की वास्तविक जाग्रति भगवान श्रीराम के माध्यम से होगी।” और यह समस्त भारतीयों के लिए होगी। वर्षों का संकल्प-अभारतीयों का भारतीयकरण, भारतीयों का राष्ट्रीयकरण।

इसीलिए आगे समझें-“इमारतें नष्ट हुईं, अस्तित्व मिटाने का प्रयास हुआ, पर उसके बाद भी राम का अस्तित्व है। दो बातें- किस राम का अस्तित्व बचा है? और किसके द्वारा नष्ट किया जा रहा था? उत्तर साफ है-राम अर्थात् मंगल राष्ट्र। रा से राष्ट्र और म से मंगल। इसको नष्ट करनेवाले सामी पंथ?

क्या भविष्य दृष्टा बाल्मीकि को यह ज्ञात था? अन्यथा राम के मंगलकारी, मर्यादित चरित्र को वे पहले कवि के रूप में स्थापित क्यों कर गये होते? उत्तर हां ही होगा। समझना होगा इस जाग्रत राष्ट्र में मंदिर का नष्ट किया जाना, हिन्दुत्व के प्रतीक का नष्ट किया जाना था। चाहे वह सोमनाथ रहा हो, अयोध्या, काशी व मथुरा हो। उनमें से दो प्रतीक खड़े हो चुके हैं।

“मस्जिद थी, है और रहेगी’ यह कथन सामाजिक अपराध है। इसे इतिहास अपने को दुहराकर भूल सुधार करवायेगा। आज कालव्यापी अतीत सुधारा जा रहा है तो दूसरी ओर अखंड मंडलाकार व्याप्त चैतन्य सदा प्रवाहित है जिन्हें ऐसे अवसरों पर अनुभव किया जा सकता है। और काल की निरन्तता के साथ सुधार को भी। सफलता क्यों मिली? क्योंकि राम हमारे भीतर घुल मिल गए हैं। हनुमान गढ़ी का संदेश साफ है, रामराज्य के लिए हनुमान चाहिए।”राम के सब काम हनुमान ही तो करते हैं।”

“राम का मंदिर हमारी संस्कृति का आधुनिक प्रतीक बनेगा। करोड़ों लोगों के सामूहिक संघर्ष का प्रतीक बनेगा। राम मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया दिग्दिगंत तक गूंजेगी क्योंकि यह है न्याय और आस्था की अनुपम भेंट।” अतः संदेश साफ है, राम मंदिर निर्माण तक वही मर्यादा चाहिए अर्थात् वही शांति चाहिए जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के समय थी और कोरोना के आज के समय भी वही मर्यादा। संकेत दोनों को है। भूत से सीख भी है और भविष्य के लिए चेतावनी भी।

स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्रता दिवस पर भी बात समाप्त हो सकती थी, किन्तु बात बहुत पीछे राम रावण युद्ध में वानर भालू के सहयोग से, महाराज सुहेलदेव तक आती है। स्मरण रखना होगा, गांधी आते हैं तो हिन्दू पदपातशाही के संस्थापक शिवाजी महाराज भी उपस्थित हैं। इस बात की पुष्टि होती है, “नया इतिहास रचा ही नहीं जा रहा, दुहराया भी जा रहा है।” इसके मायने अपने-अपने हो सकते हैं।

बात बहुत साफ है, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मर्यादा में कुछ समझाइश भी है तो कुछ चेतावनी भी। देश काल अवसर के अनुसार सोच और व्यवहार को बदलने की समझाइश है तो चेतावनी भी कि अभी भी मौका है, “शरण में आने वाले को प्राण की तरह रखूंगा।”

याद यह भी रखना होगा यह भोग भूमि नहीं, यह जननी है, स्वर्ग से भी महान है। राम का अंतिम संदेश “बिना भय के प्रीति नहीं होती।‘’ अतः “निर्भय यज्ञ (मंदिर (राष्ट्र) निर्माण)  करहु तुम जाई।” अब तक पूछने वालों को उत्तर मिल ही चुका होगा कि रा.स्व.संघ के पूज्य सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत वहां क्यों थे!! बोलो, ‘सियापति रामचन्द्र की जय।’ है न 2020 !!!

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