अजय बोकिल
दो बातें साफ हैं। कोरोना की हर लहर हमें नए सबक सिखाती जाएगी और हमारी स्वास्थ्य तैयारियों, दूरदर्शिता, नैतिकता और प्राथमिकताओं की पोल खोलती जाएगी। पहली लहर ने सख्त लॉक डाउन के फैसले के आर्थिक और भुखमरी के पक्ष को बेनकाब किया तो दूसरी लहर ने आत्ममुग्धता, लापरवाही, सख्त लॉक डाउन को लेकर राजनीतिक दुविधा तथा मेडिकल सिस्टम की हकीकत उधेड़ कर रख दी। इतनी जानें (जिनमें से कई को बचाया जा सकता था, अगर समय पर ऑक्सीजन, रेमडिसीवर इंजेक्शन व अस्पतालों में समुचित बेड, वेंटीलेटर मिल जाते) जाने तथा असमय और बेबसी के कारण होने वाली मौतों के इस तांडव में भी हमारे कुछ नेताओं और शैतानों ने आपदा में अवसर खोजने में कोई कोताही नहीं की।
जिनकी मनुष्यता मर गई है, उनके बारे में तो कुछ कहना ही बेकार है, लेकिन वो नेता जो खुद को जनसेवक बताते हैं, वो या उनके परिजन भी दवा और ऑक्सीजन की बेशर्मी से कालाबाजारी करते दिखे, जिन्हें जनता ने चुना ही इसलिए था कि आड़े वक्त पर वो पब्लिक के साथ खड़े हों। खुद इंजेक्शन, सिलेंडर ब्लैक करने की बजाए ब्लैक के इंजेक्शन को व्हाइट में मुहैया कराने का नेक काम करें। अफसोस इस बात का कि वो खड़े भी हुए तो दो नंबर में ऑक्सीजन सिलेंडर और जीवन रक्षक इंजेक्शन लेकर। और इस अड़ीबाजी के साथ कि चार गुना ज्यादा दाम में ऑक्सीजन या इंजेक्शन दिलवा रहे हैं, यह क्या कम है? हमारे इस अहसान को मानो और अगले चुनाव में हमको फिर वोट दो। प्रशासन के हाथ इन कालाबाजारी जनप्रतिनिधियों के दरवाजों के भीतर अभी तक नहीं जा सके हैं। जा पाएंगे, इसकी संभावना भी नहीं के बराबर है।
कोरोना की दूसरी लहर हमें कई न मिटने वाले दर्द दे रही है तो कई सबक भी सिखा रही है। पहला तो यह कि कोरोना वायरस किसी का सगा नहीं है। यह किसी को और कभी भी शिकार बना सकता है। ऐहतियात आपको बचा तो सकता है, लेकिन बचने की सौ फीसदी गारंटी नहीं दे सकता। दूसरा, मुश्किल वक्त में वाचाल नेता या कोई भी काम राजनीतिक लाभ के बिना न करने वाले नेताओं पर भरोसा न करें। तीसरा, बेईमानी का एक कोरोना हमारे भीतर पहले से पल रहा है, उसकी ‘प्लाज्मा थेरेपी’ पहले करें। तीसरे, हम फायर ब्रिगेड लेकर तभी दौड़ेंगे, जब आग फैलने लगे। अग्रिम रोग निरोधक और महामारी से लड़ने के इंतजामों की कोई गारंटी नहीं है।
चौथा, शहरों के साथ-साथ गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं पर भी पर्याप्त ध्यान देना होगा। ‘अन्नदाता’ को महामारी से बचाने का सुरक्षा चक्र भी प्रभावी ढंग से उपलब्ध कराना होगा। पांचवां, कुछेक अपवाद छोड़ दें तो कोरोना के दूसरे महायुद्ध में देवदूत बनकर वो लोग ज्यादा उतरे, जिनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं नहीं है और जिन्होंने केवल मानवता की आर्त पुकार पर दूसरों की जान बचाने के लिए खुद की जान भी खतरे में डालने से गुरेज नहीं किया। कुछ तो इस परोपकार में अपनी जान भी गंवा बैठे। इस श्रेणी में कई समाजसेवी, मीडियाकर्मी, डॉक्टर, मेडिकल स्टाफ, पुलिस व प्रशासनकर्मी, स्थानीय निकायों के कर्मचारी, बैंक व अन्य आवश्यक सेवाएं देने वाले लोगों से लेकर श्मशानों और कब्रिस्तानों में काम करने वाले भी शामिल हैं। इन कोशिशों के पीछे एक ही ध्येय वाक्य रहा है कि ‘भइया, अपनों को ही अपनों की जान बचानी है। बाकी सब तो माया है।‘
अगर मध्यप्रदेश सरकार की बात करें तो शिवराज सरकार को इतना श्रेय तो देना ही होगा कि कुछ देर से ही सही, उसने सवा महिने का सख्त लॉक डाउन लागू कर कोरोना की चेन कुछ हद तक ब्रेक कर दी है। इस पूरे घटनाक्रम का सबक यह है कि जैसे ही प्रदेश या क्षेत्र विशेष में कोरोना पॉजिटिविटी रेट 5 फीसदी को छूता लगे, सरकार और प्रशासन को तुरंत सख्त लॉक डाउन लागू करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। इसके राजनीतिक और आर्थिक लाभ-हानि के गुणा भाग के बजाए संक्रमण किसी भी कीमत पर फैलने से रोकना ही प्राथमिकता होनी चाहिए। इसमें भी गरीब वर्ग भुखमरी का शिकार न हो, इसकी जिम्मेदारी सरकार को लेनी होगी। इस बारे में एक स्थायी गाइड लाइन जारी की जानी चाहिए। बावजूद इसके शिवराज सरकार इस इल्जाम से नहीं बच सकती कि अगर दमोह उपचुनाव हर कीमत पर जीतने का मोह छोड़कर वह मार्च अंत में ही सख्त लॉक डाउन लगा देती तो शायद प्रदेश में कोरोना की दूसरी लहर से मौतों का आंकड़ा (अभी तक) 8 हजार तक न पहुंचता।
कोरोना की दूसरी लहर की एक नसीहत यह भी है कि कोरोना अपने साथ ‘आपदाओं का पैकेज’ लेकर आता है। यानी आप अगर कोविड संक्रमण से यदि ठीक हो गए (बिल्कुल हल्के संक्रमितों को छोड़ दें) तो भी यह ह्रदयाघात, फेफड़ों और शरीर के दूसरे अंगों को बेकाम कर देता है। जो जी गए, वो भी उतने सक्षम नहीं रह पाते, जितने कोरोनाग्रस्त होने से पहले थे। अब दूसरी बड़ी चुनौती कोरोना पीडि़तों के सामने ब्लैक फंगस बीमारी की है और बीमारी से भी बड़ी चुनौती इस रोग के इलाज के लिए जरूरी इंजेक्शनों का भयंकर टोटा है। टोटा क्या बल्कि अस्पतालों और बाजार से यह इंजेक्शन नदारद ही है।
इंजेक्शन जल्द कैसे और कहां से मिलें, इसको लेकर राज्य सरकारें परेशान हैं। इस मामले में भी केन्द्र सरकार का जवाब बहुत संतोषजनक नहीं है। कहा जा रहा है कि व्यवस्था हो जाएगी। कब होगी, कितने दिन में होगी, यह स्पष्ट नहीं है। ब्लैक फंगस के कई गंभीर मरीजों तक जब यह पहुंचेगी तब तक वो ये दुनिया छोड़ चुके होंगे। होना यह चाहिए था कि जैसे ही ब्लैक फंगस के इंजेक्शन एम्फोटेरेसिन बी की मांग बढ़ी, वैसे ही इसकी उत्पादन वृद्धि और आयात के बारे में निर्णय लिया जाना चाहिए था। अब तो बिहार में बेहद खतरनाक समझे जा रहे ‘व्हाइट फंगस’ के मरीज मिलना भी शुरू हो गए हैं।
यानी ठीक हो चुके पेशंट में भी पोस्ट कोविड नई और घातक बीमारियां चिन्हित हो सकती हैं। इनका राष्ट्रीय स्तर लगातार और व्यवस्थित अध्ययन होना चाहिए। आम लोगों को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए। इन सब के बारे में सरकारें क्या सोच रही हैं और कर रही हैं, अभी बहुत साफ नहीं है। बेहतर तो यही होगा कि ज्यादा इंतजार न किया जाए और अभी से इसके इलाज और दवाओं की व्यवस्था शुरू कर दी जाए। मध्यप्रदेश में भी ब्लैक फंगस के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन राज्य सरकार अभी पर्याप्त इंजेक्शनों की व्यवस्था नहीं कर पा रही है। उसने इसे अभी महामारी भी घोषित नहीं किया है। ध्यान रहे कि आश्वासनों से हिम्मत भले बंधती हो, रोगाणु नहीं मरते।
इस कोरोना काल का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि राजनेता इस पर भी राजनीति का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दे रहे हैं। मानकर कि दुनिया खत्म हो जाए, सियासत और राजनेता अमर रहेंगे। गोया दुनिया बनी ही उनके लिए है। वे फिर मूर्ख जनता से अपने वोट कबाड़ लेंगे। बेशर्मी का यह खेल केन्द्र और सभी राज्यों में सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल आपस में खेले जा रहे हैं। बस नाम भर अलग-अलग हैं, लेकिन उद्दंडता, निर्लज्जता और संवेदनहीनता एक-सी है। एक-दूसरे को बदनाम करना, खुद को फरिश्ता बताना और सत्ता की चाभी छीनने के लिए हरसंभव सेंध लगाना। कोरोना के तांडव से लहूलुहान जनता को तो इन नेताओं का नंगा नाच देखने की भी फुर्सत नहीं है। वह अपने में ही परेशान है, आहत है, बेबस है।
दूसरी तरफ अपनी नंगई उघड़ने से बौखलाया हर सत्तारूढ़ दल अपनी नाकामी को देश या प्रदेश को बदनाम करने से जोड़कर गटरगंगा स्नान कर पवित्र दिखना चाहता है। देश का एक आम नागरिक होने के नाते हमारे लिए यही सबसे बड़ा सबक है। कोरोना की तीसरी लहर (अगर आई तो) का सबक क्या होगा और हमें कैसे कैसे खेल देखने को मिलेंगे, यह आप खुद सोच सकते हैं। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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