रमाशंकर सिंह
जब भारत गोरों की ग़ुलामी से निकल कर एक संविधानसम्मत लोकतांत्रिक राष्ट्र बना, तो यह नीतिनिर्धारण हुआ कि चुनी हुयी सरकार के नेतृत्व में सेनायें, पुलिस और अन्य प्रशासनिक निकाय काम करेंगें। नीति का फ़ैसला सरकार करेगी और सारी प्रशासनिक बाँहें उस पर अमल सुनिश्चित करेंगी। यही व्यवस्था 1947 से आज तक चल रही है। सभी 13 प्रधानमंत्री और राज्यों के सैकड़ों मुख्यमंत्री इसी तरह काम करते आये हैं।
राष्ट्रपति, भारतीय सेनाओं के सुप्रीम कमांडर ज़रूर कहे जाते हैं पर यह आपको मालूम है कि राष्ट्रपति स्वविवेक से कोई निर्णय नहीं लेते, वे मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करते हैं। भारतीय सेना, रक्षामंत्री व प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है और उन्हीं के आदेश पर काम करती है।
इसे इस तरह भी समझें कि सेनाओं को बाहरी व आंतरिक दवाबों से मुक्त रखने के लिये नैतिक जवाबदेही मंत्रियों की ही रही है। वाहवाही भी तो मंत्री, प्रधानमंत्री लूटते हैं और पूरा एक चुनाव तक लूट ले जाते रहे हैं। सैनिकों को सम्मान व मैडल का अधिकार भर रहता है और सैन्य इतिहास में नामजदगी। मातृभूमि हित व इतिहास के इसी अंश के लिये वे सब अपना सर्वोच्च बलिदान तक देते रहे हैं। ज्ञात इतिहास में देश का हर सैनिक इसी विशेष कारण से सम्मान का पात्र होता आया है।
इसी कारण सेनायें ज़िम्मेदार नहीं कही जायेंगी, मंत्री कहे जायेंगे, कहे जाते रहे हैं। और कई बार पूरा शानदार कॅरियर एक ख़राब फैसले से ख़त्म भी हुआ है जैसे वी. कृष्णमेनन का। नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में सबसे गहरा दाग तो यही रहा 1962 का… जब अतिआत्मविश्वास में विदेश दौरे पर जाते जाते चलते चलते वे आदेश दे गये कि ‘थ्रो दि चाइनीज़ आउट’। शेष राष्ट्रीय शर्म का अध्याय है।
और नैतिकता का शिखर भी मंत्री छूते रहे हैं, जैसे रेल दुर्घटना पर रेलमंत्री शास्त्री जी का इस्तीफ़ा। ऐसे कई उदाहरण हैं दूसरे भी कि कभी भी ज़िम्मेदारी न लेना और बेशर्मी से पद पर बने रहना।
यहां से हम दूसरी बात पर आते हैं जो कि बहुत ही ख़तरनाक होनी शुरू हो गई और जिसे भांड टुच्ची मीडिया शुरू कर रही है। यह सोचकर कि न्यूइंडिया में यह न्यूनार्मल बन जायेगा। यह अभियान शुरू हो गया है कि सीमा पर जो कुछ होगा उसके लिये सेना ज़िम्मेदार होगी, सरकार नहीं।
मैं फिर कह रहा हूँ कि सरकार के स्पष्ट आदेशों के बावजूद यदि सेना की कोई टुकड़ी क्रियान्वयन ठीक से नहीं कर पाये तो वह विभागीय ज़िम्मेदारी का विषय सदैव बना रहता है पर इससे रक्षामंत्री व प्रधानमंत्री क्यों ज़िम्मेदारी से बचें? मीडिया नेताओं का कवच क्यों बने?
सेनाओं के नेता यथा मंत्री, कमांडर, जनरल, कर्नल, मेजर, सूबेदार आदि वे ही उत्कृष्ट माने जाते हैं, जो आगे बढ़कर कमान सँभालता हो। पीछे रहकर अपनी फ़ौज को मरने देने वाले न सिर्फ़ कायर कहलाते हैं बल्कि इतिहास में उसी दाग के साथ दर्ज होते हैं।
मान लीजिये कि सेना की ही ज़िम्मेदारी निश्चित कर दी जाये और सेनाओं की टुकड़ियों को स्वायत्त सार्वभौम कर दिया तो किस पैमाने की अंतर्राष्ट्रीय अराजकता हो जायेगी एवं सीमाओं पर और रोज़ रोज़ युद्ध के हालात बनते रहेंगें।
एक प्रचंड मूर्ख एंकरनी ने कल किसी नादानी में नहीं, बाक़ायदा किसी बड़े षड्यंत्र के पुर्ज़े की भाँति यह कहा कि सीमा पर ज़िम्मेदारी तो सैनिकों की होनी चाहिये, सरकार की नहीं। यहां ‘सरकार की नहीं’ पर गौर फरमाना चाहिये। इससे बड़ा भारत-द्रोह क्या कुछ और हो सकता है? क्या विनोद दुआ या रवीश कुमार के द्वारा कभी ऐसा बोलना सोचा जा सकता है? यदि वैसा होता तो ‘राष्ट्रवादी’ गिरोह आज सड़कों पर उनकी फाँसी की माँग कर रहे होते!
ये एंकरनी अपनी अखंड मूर्खताओं के लिये लगातार हास्यास्पद होती रहती है। पर जब कोई व्यापक षडयंत्र का हिस्सा बनने को तैयार हो तो उसे कभी इसका इल्हाम भी नहीं होता है। 2000 के नये नोटों पर चिप की खोज कर लेना कोई मामूली ‘प्रतिभा’ का काम नहीं होता। एक समस्या यह भी है कि ऐसी ही प्रतिभाओं का नियमित आना-जाना, मिलना, भारत के सर्वोच्च शक्तिशाली पद पर आसीन व्यक्ति से होता रहता है।
चुनावों में तो इन वैशाखनंदनों का इस्तेमाल चल भी जाये पर हर समय, चुनाव जैसी गैर-गंभीरता का नहीं होता। कोई ढंग का सच्चा राष्ट्रवादी पुलिस अधिकारी कहीं भी देश में होता तो ऐसे एंकर-एंकरनी पर क्या मुक़दमा लगाकर जेल में डाल दिया होता? मेरी राय में कभी नहीं। पर देश भर से इतनी लानतें तो ज़रूर भेजी जातीं कि भांड-भांडनियों को भविष्य के लिये सबक मिल गया होता!
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)
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टीम मध्यमत