वाम पड़ताल-6
आज वाम विचारक जब आंबेडकर को अपनाने और सिर्फ अपनाने ही नहीं बल्कि आंबेडकर विचार को रेडिकल बनाते हुए अपनाने की बात करते हैं तो परोक्ष रूप से वे अपनी विरासत के मूल आधार को ही चुनौती देते या उसे नकारते हुए लगते हैं। आंबेडकर मूल रूप से न तो वाम विचार के हैं और न दक्षिण विचार के। वाम और दक्षिण सहित भारतीय राजनीतिक दलों ने हाल के वर्षों में जब जब भी आंबेडकर को आगे लाने या उनकी स्वीकार्यता को महिमामंडित करने की कोशिश की है, उसके पीछे एकमेव उद्देश्य भारत की जातीय राजनीति, विशेषकर दलित राजनीति में आंबेडकर के नाम का फायदा उठाने की ही नीयत रही है।
पिछले कुछ सालों में एक और बात भारत की राजनीति में प्रमुखता से देखी जा रही है और वो है सामाजिक, बौद्धिक, अकादमिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक मेधाओं की राजनीतिक छीना झपटी। अपनी छतरी को इंद्रधनुषी बनाने के लिए, जिसके पास जिस भी रंग की कमी है, वह उस रंग को दूसरे के रंगभंडार से लूट लेना चाहता है। और इसी प्रयास में हर क्षेत्र के महापुरुषों और मेधाओं की फजीहत भी हो रही है। ऐसा लगता है कि बड़े नामों को अपने बाड़े में खींच लेने की होड़ सी मची है। ऐसी छीना झपटी वे लोग ज्यादा कर रहे हैं जिनकी विरासत में ऐसे लोगों की सूची बहुत छोटी है।
लेकिन बौद्धिक और साहित्यिक जगत में अच्छी खासी लंबी चौड़ी सूची रखने वाला वाम भी जब अपनी विरासत और आज के समय पर विचार करते समय यह कहता है कि ’’अब हमारे लेखकों की पहचान बदली जा रही है। चाहे सूरदास हों, निराला हों, सबको ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध किया जा रहा है…‘’ तो समझ में नहीं आता कि वह इस होड़ और दौड़ में क्यों है और इससे आखिर हासिल क्या करना चाहता है?
इस सारी बहस के बीच सबसे बड़ा सवाल यह उभरता है कि क्या अब हम अपने लेखकों, साहित्यकारों और अन्य क्षेत्रों की प्रतिभाओं को भी इस तरह अपने खेमों में या अपने पराए की शब्दावली में बांट कर देखेंगे? आप उन्हें किसी भी बाड़े में रख देने या विचार की रस्साकशी में अपनी ओर खींच लेने के लिए आतुर हों, लेकिन सूर और तुलसी तो समग्र भारत के हैं। भले ही आप उनके लेखन और विचारों से सहमत हों अथवा न हों।
और यह बात सिर्फ सूर और तुलसी पर ही लागू नहीं होती, भारत की हर भाषा और क्षेत्र के हर साहित्य और हर रचनाकर्म पर लागू होती है। हमारे तुम्हारे की यह भाषा और शब्दावली देश को जोड़ने का नहीं बल्कि और अधिक बांटने का काम करती है। हमारा वर्तमान तो बंटा हुआ है ही, हम अपने अतीत और इतिहास को भी क्यों बांटने पर तुले हैं।
दिल्ली की गोष्ठी में एक बात और कही गई कि- ‘’हम वामपंथियों का इतिहास समझौतों का इतिहास है। हमने विभाजन के वक्त अपनी भूमिका न ठीक से पहचानी और न अपने दायित्व का निर्वाह किया। नास्तिकता हमारी जमीन हो सकती थी, लेकिन ऐसा करने से हम बचते रहे।‘’ हालांकि इस वक्तव्य का पूरा संदर्भ मेरे पास उपलब्ध नहीं है लेकिन इसके अंतिम वाक्य को इसी स्वरूप में ग्रहण किया जाए तो इसमें दक्षिण के उद्भव और वाम के पराभव का एक बड़ा कारण ढूंढा जा सकता है।
भारत की मूल प्रवृत्ति आस्तिक रही है। वह न केवल देवी देवताओं को लेकर, बल्कि प्रकृति को लेकर भी आस्तिक भाव से लिप्त रहा है। इसीलिए उसने मूर्तियों को भी पूजा और नदियों, पहाड़ों को भी। एक दृष्टि से वह आनुवांशिक रूप से आस्तिक है। ऐसे में जब उसे आस्तिक भाव से अलग करने या उसके आस्तिक भाव को नकारने अथवा उसका मखौल उड़ाने की कोशिश हुई तो उसकी प्रतिक्रिया अच्छी नहीं रही। हां कुछ लोग थे जो इस विचार के समर्थक बने, लेकिन समग्रता में नास्तिकता का विचार भारत में कभी अपनी जगह नहीं बना पाया।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का द्वंद्व वाम के आने से पहले नहीं था। उससे पहले भी कुछ दूसरे रूप में यह भाव हमें भक्तिकाल की सगुण और निर्गुण धारा में दिखाई देता है। कबीर निर्गुण धारा के ही थे। लेकिन कालांतर में सगुण धारा का वर्चस्व बढ़ता चला गया। धीरे धीरे वह देवी देवताओं से उतर कर व्यक्तियों पर आ गया और देवी देवताओं का पूजक समाज व्यक्तिपूजक हो गया। अब जिस समाज में व्यक्तिपूजा का चलन चल पड़ा हो वहां आप यदि नास्तिकता को अपनी जमीन बनाने की कोशिश करेंगे तो कहां तक टिक पाएंगे।
जरूरत इस बात की है कि वाम खुद की पड़ताल करने के साथ साथ नए संदर्भों में आज के भारत और भारतीय समाज की, व्यक्ति और राजनीतिक मानसिकता की भी पड़ताल करे। पिछले सौ सालों में सिर्फ इतना ही नहीं हुआ है कि वाम का सूरज ढल गया हो और दक्षिण का सूरज चढ़ चला हो। भारत एक विचित्र विसंगति की ओर बढ़ा है, जिसमें उसका एक पांव आधुनिकता की ओर है तो दूसरा और अधिक पुरातन की ओर बढ़ता हुआ।
रही बात ‘प्रगतिशीलता’ की तो यहां महान लेखक प्रेमचंद के उस भाषण को याद करना जरूरी है जो उन्होंने 9 अप्रैल 1936 को लखनऊ में ‘ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ की बैठक में दिया था। उन्होंने कहा था- ‘’प्रगतिशील लेखक संघ, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छंदता की जिस अवस्था में देखना चाहता है, वह उसे दिखाई नहीं देती। इसलिए, वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अंत कर देना चाहता है, जिसमें दुनिया जीने और मरने के लिए इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाए।‘’
करना क्या है, इसका जवाब भी खुद प्रेमचंद ही देकर गए हैं। अपने इसी भाषण में उन्होंने कहा था- ‘’साधारण वकीलों की तरह साहित्यकार अपने मुवक्किल की ओर से उचित-अनुचित सब तरह के दावे पेश नहीं करता, अतिरंजना से काम नहीं लेता, अपनी ओर से बातें गढ़ता नहीं। वह जानता है कि इन युक्तियों से वह समाज की अदालत पर असर नहीं डाल सकता। उस अदालत का हृदय परिवर्तन तभी संभव है जब आप सत्य से तनिक भी विमुख न हों, नहीं तो अदालत की धारणा आपकी ओर से खराब हो जाएगी और वह आपके खिलाफ फैसला सुना देगी।‘’
अब यह वाम को सोचना है कि जनता की अदालत से अपने खिलाफ आए फैसले को अपने पक्ष में करने के लिए जिस ‘सत्य’ की जरूरत है, वह उसे पहचानने और अपनाने की ताकत रखता है या नहीं… (समाप्त)