क्‍या देश राष्‍ट्रीयकरण से निजीकरण की ओर बढ़ रहा है

मैं एक बात पहले ही साफ कर देना चाहता हूं कि मैं न तो कोई अर्थशास्‍त्री हूं और न ही आर्थिक मामलों का विश्‍लेषक। मेरी हैसियत सिर्फ एक ऐसे पत्रकार की है जो खबरों को पढ़ता, देखता और सुनता है और उनमें से यह खोजने की कोशिश करता है कि खबरों में जो कहा या बताया जा रहा है उसका अर्थ या संदेश वही है या फिर निगाहें कहीं और हैं… निशाना कहीं और…

इस लिहाज से पिछले करीब एक महीने में मुझे कुछ खबरों ने न सिर्फ चौंकाया है, बल्कि सोचने पर मजबूर भी किया है कि क्‍या देश के बदलते (या बिगड़ते) आर्थिक हालात ने हमें अपनी स्‍थापित नीतियों से अलग हटने पर मजबूर किया है। क्‍या हम एक स्‍वदेशी मजबूत आर्थिक ढांचा खड़ा करने का ऐलान करते करते कहीं विदेशी खाके और वित्‍त पर निर्भर आर्थिक ढांचे की ओर तो नहीं बढ़ रहे।

वैसे तो स्‍वदेशी बनाम विदेशी का यह मुद्दा लोकसभा चुनाव के दौरान भी जोर शोर से उठा था। लेकिन कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी ने उसे तार्किक और संवेदनशील तरीके से उठाने के बजाय बहुत ही भोंडे तरीके से और बहुत ही कमजोर आधार के साथ उठाया था। लिहाजा वह मुद्दा और कांग्रेस दोनों ही चुनाव में जमीन पर आ गिरे। वह मुद्दा था वायुसेना के लिए रॉफेल विमानों की खरीद का।

राहुल गांधी ने रॉफेल को लेकर बहुत सारे एंगल के साथ बहुत सारी बातें कही थीं। उनका एक एंगल यह था कि मोदी सरकार ने रॉफेल के लिए स्‍वदेशी सार्वजनिक उपक्रम हिन्‍दुस्‍तान एयरोनॉटिक्‍स लिमिटेड (हाल) को चुनने के बजाय निजी क्षेत्र की कंपनी रिलायंस को चुना। राहुल यदि अपनी बात इस बुनियादी मुद्दे पर केंद्रित रखते तो हो सकता है कांग्रेस को उसका कुछ फायदा होता लेकिन उन्‍होंने इसे प्रधानमंत्री द्वारा रिलायंस के अनिल अंबानी की जेब में 30 हजार करोड़ रुपए डालने का भ्रष्‍टाचार बताकर मूल उद्देश्‍य से भटका दिया।

खैर.. अब वह पुरानी बात हो गई है। चुनाव बीत चुके हैं और भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्‍ता पर फिर काबिज है। अब न कांग्रेस में दम बचा है कि वह रॉफेल मुद्दे को दुबारा उस ऊंचाई तक ले जा सके और न ही भाजपा उसे यह अवसर देने वाली है। एक बार को यदि मान भी लें कि रॉफेल में कुछ काला-पीला हुआ भी है तो उसका खुलासा अब तभी होगा जब देश में कांग्रेस की सरकार बने। और ऐसा होना फिलहाल बहुत दूर की कौड़ी लगता है।

लेकिन चुनाव भले ही हो चुका हो पर स्‍वदेशी बनाम विदेशी अथवा सार्वजनिक बनाम निजी वाला मुद्दा मरा नहीं है। इसी कारण मैंने ऊपर कहा कि इस सिलसिले में हाल की कुछ घटनाओं ने मेरा ध्‍यान खींचा है। ताजा घटना अभी 27 जून की है जब देश की नई और पहली स्‍वतंत्र महिला वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमन ने पूर्व प्रधानमंत्री और जाने माने अर्थशास्‍त्री डॉ. मनमोहनसिंह से मुलाकात की। हालांकि इस मुलाकात में क्‍या हुआ इसका ब्‍योरा सार्वजनिक नहीं किया गया लेकिन 5 जुलाई को संसद में देश के बजट की प्रस्‍तुति से पहले वित्‍त मंत्री की यूपीए के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह से मुलाकात के मायने समझे जाने चाहिए।

यह मैंने क्‍यों कहा इसे समझाने के लिए मैं आपको करीब एक महीने पहले ले जाना चाहूंगा। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने पहले कार्यकाल में बनाए गए नीति आयोग के उपाध्‍यक्ष डॉ. अरविंद पनगडि़या का अमेरिका से एक बयान आया था। यहां यह बताना भी जरूरी है कि डॉ. पनगडि़या अपना पद, कार्यकाल के बीच में ही छोड़कर, यह कहते हुए वापस अमेरिका चले गए थे कि वे फिर से अपनी अकादमिक दुनिया में लौट जाना चाहते हैं।

पनगडि़या के बीच में ही चले जाने की वो कहानी अलग है उस पर फिर कभी बात करेंगे। लेकिन उनके जाने का दौर वो दौर था जब मोदी सरकार अपने आर्थिक सुधारों को नई दिशा देने में लगी थी। उस समय की मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया था कि पनगडि़या सरकार की रीति नीतियों और काम के तरीके से खुश नहीं थे। खास तौर से आर्थिक सुधारों की गति को लेकर…

इन्‍हीं पनगडि़या ने भारत में 17 वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम आने से दो दिन पहले यानी 21 मई को अमेरिका में एक बयान दिया कि भारत में बनने वाली नई सरकार को सार्वजनिक उपक्रमों का तेजी से निजीकरण करना चाहिए। उनका ‘क्रांतिकारी’ सुझाव तो यह था कि हर सप्‍ताह कम से कम एक सार्वजनिक उपक्रम का निजीकरण किया जाए। साथ ही उन्‍होंने यह भी जोड़ा था कि ऐसा करना संभव है क्‍योंकि करीब दो दर्जन सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की तो केबिनेट से मंजूरी भी मिल चुकी है। वे बोले थे- ‘’करो एयर इंडिया का निजीकरण..’’

इतना ही नहीं पनगडि़या ने नई सरकार को यह भी ‘सुझाव’ दिया था कि “व्यापार समझौतों पर बातचीत करने के लिए एक नई पदस्‍थापना की जाए और उसके प्रभारी को यूएसटीआर (यूएस ट्रेड प्रतिनिधि) की तर्ज पर प्रधान मंत्री कार्यालय में रखा जाए।‘’ यानी पनगडि़या नई बनने वाली सरकार से कह रहे थे कि वो व्‍यापार समझौतों पर बातचीत की वैसी ही व्‍यवस्‍था करे जैसी ट्रंप प्रशासन में है। मतलब भारत इस मामले में अमेरिका की नीतियों और कार्यप्रणाली को अपनाए।

पनगडि़या ने एक और बात की जोरदार वकालत करते हुए कहा था कि सरकार के मंत्रालयों में नौकरशाहों के साथ ही ‘लेटरल एंट्री’ के रूप में पेशेवरों को नियुक्‍त किया जाए ताकि गवर्नेंस में ‘यंग ब्‍लड’ की भागीदारी हो। उन्‍होंने निजी क्षेत्र को निवेश हेतु पूंजी उपलब्‍ध कराने के लिए राजकोषीय ढांचे में भी आवश्‍यक परिवर्तन की बात कही थी।

अब इन बातों को मोदी-02 से जोड़कर देखें तो क्‍या आपको नहीं लगता कि सरकार कमोबेश इसी लाइन पर आगे बढ़ती नजर आ रही है। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि पनगडि़या के बयान और सीतारमन-मनमोहन मुलाकात का क्‍या कनेक्‍शन है… इस पर आगे बात करेंगे…

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