मेट्रो मैन श्रीधरन के फैसले को हम किस नजरिये से देखें

गिरीश उपाध्‍याय

मेट्रो मैन ई. श्रीधरन ने भारतीय जनता पार्टी में जाने का फैसला क्‍या किया कि उन्‍हें लेकर बयानों की बाढ़ सी आ गई। उनके इस फैसले पर मुख्‍य तौर पर दो तरह की प्रतिक्रिया हुई या यूं कहें कि लोग दो धड़ों में बंट गए। एक धड़े ने उनके इस फैसले का स्‍वागत किया तो दूसरे धड़े ने इसे हिकारत की दृष्टि से देखा। ऐसे में सवाल उठता है कि वे लोग जो न स्‍वागत वाले धड़े के साथ हैं और न हिकारत वाले धड़े के साथ, वे श्रीधरन के फैसले को किस नजरिये से देखें?

चूंकि यह फैसला राजनीति से जुड़ा है इसलिए पहले इसकी पृष्‍ठभूमि को जान लेना जरूरी हे। श्रीधरन जिस राज्‍य केरल से आते हैं, वह पिछले कई दशकों से राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी, दो अलग-अलग विचारधाराओं की संघर्ष भूमि है। राज्‍य में सत्‍तारूढ़ गठबंधन अपनी वामपंथी विचारधारा के चलते भारतीय जनता पार्टी को सबसे बड़ा दुश्‍मन मानता है। और ऐसा ही भारतीय जनता पार्टी के साथ है, जो वामपंथ से सिर्फ राजनीति के मैदान में ही जीतना नहीं चाहती, बल्कि उससे भी आगे बढ़कर उस विचारधारा को ही परास्‍त करना चाहती है।

ऐसे में केरल विधानसभा का चुनाव होने से कुछ समय पहले श्रीधरन जैसे एक बहुत बड़े और चर्चित गैर राजनीतिक नाम का भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़ जाना निश्चित रूप से भाजपा के लिए उत्‍साह का कारण तो बनेगा ही। भाजपा को केरल में एक ऐसे चेहरे की तलाश लंबे समय से रही है जिस पर वह दांव लगा सके और संभवत: श्रीधरन में वह उस चेहरे को देख रही हो।

पर राजनीतिक समीकरणों, रणनीतियों, दावपेंच और उठापटक से इतर यदि श्रीधरन के इस फैसले को देखें तो कुछ बातें हैं जो विचारणीय हैं। श्रीधरन के भाजपा जॉइन करने के ऐलान पर केरल की वामपंथी सरकार और कांग्रेस के बड़े नेताओं ने अभी तक कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी है पर सोशल मीडिया में इस मसले पर प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आई हुई है। श्रीधरन के फैसले की आलोचना करने वाले लोग उनकी उम्र से लेकर अब उनकी योग्‍यता और क्षमता तक पर सवाल उठाने लगे हैं।

ऐसी भी कई प्रतिक्रियाएं देखने में आई हैं जिनमें कहा गया है कि श्रीधरन सठिया गए हैं और अपना बुढापा खराब करने जा रहे हैं। केरल के ही एक बहुत नामी साहित्‍यकार का कहना है कि श्रीधरन जैसे लोगों के दिमाग की एक ही फेकल्‍टी काम करती है। उन्‍होंने ऐसे लोगों को ‘खतरनाक मासूमियत’ (dangerous innocence) वाला बताया है। कुछ लोगों ने इस घटनाक्रम में श्रीधरन की ‘अतिमहत्‍वाकांक्षा’ का तत्‍व खोजा है।

पर इन आलोचनाओं और आरोपों से परे कुछ और सवाल हैं जो जवाब मांगते हैं। मसलन यदि श्रीधरन ने भारतीय जनता पार्टी में जाने के बजाय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी या कांग्रेस में जाने की बात कही होती तो उन लोगों की क्‍या प्रतिक्रिया होती जो आज उनके इस फैसले को खराब बता रहे हैं। शायद तब प्रतिक्रिया के पाले बदल जाते। जो लोग आज श्रीधरन का स्‍वागत कर रहे हैं वे उनका विरोध या उनकी आलोचना करते और जो लोग विरोध कर रहे हैं वे उनके स्‍वागत और साहस के कसीदे पढ़ रहे होते।

इस मामले में एक और खराब बात यह हुई है कि प्रतिक्रिया देने वाले श्रीधरन के योगदान को खारिज करने तक की हद तक जा पहुंचे। निश्चित रूप से राजनीति का अपना दायरा होता है और उसकी अपनी सीमाएं और अतिक्रमण हैं, लेकिन किसी व्‍यक्ति के किसी भी दल या विचार से जुड़ जाने की बात कहने से उसका पहले का किया धरा निरर्थक नहीं हो जाता। यदि इसी सोच के आधार पर बात होने लगे तो फिर एपीजे अब्‍दुल कलाम भी आलोचना के पात्र होंगे क्‍योंकि उन्‍हें भी अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार के समय राष्‍ट्रपति बनने का अवसर मिला था। एक वैज्ञानिक के तौर पर कलाम के अवदान को तो कभी राजनीतिक तराजू पर नहीं तौला गया। तो फिर एक राजनीतिक स्‍वरूप वाले फैसले से श्रीधरन के पुराने योगदान पर क्‍यों सवाल उठाए जा रहे हैं?

दरअसल व्‍यक्ति के योगदान का फैसला उसके कामों की सार्थकता और समाज की स्‍वीकार्यता से होता है, या होना चाहिए, न कि उसके राजनीतिक रुझान या जुड़ाव से। गांधी को देश ने उनके योगदान के आधार पर ही बापू माना, इसलिए नहीं कि वे कांग्रेसी थे। नेहरू को सराहने वाले बहुत लोग ऐसे हैं जो उन्‍हें उनके कामों के कारण सराहते हैं न कि उनके कांग्रेसी होने के कारण। अटलबिहारी वाजपेयी को यदि करीब-करीब सभी दलों के नेताओं का आदर मिला तो वह उनके भाजपा से जुड़े रहने के बावजूद मिला और उसके पीछे उनका अपना काम और उनकी राजनीतिक शैली थी।

दूसरी बात श्रीधरन के फैसले की है। यह भी कहा जा रहा है कि श्रीधरन ने इस उम्र में राजनीति में जाने का फैसला करके (इसमें भी ज्‍यादा आपत्ति उनके भाजपा से जुड़ने पर है) अपना बुढ़ापा खराब किया है। इस तरह की सोच भी विकृत ही कही जाएगी। क्‍योंकि किसी व्‍यक्ति को कब किस बात का फैसला करना है और किससे जुड़ना या दूर होना है यह उसका निजी फैसला होता है। आज जब निजता के अधिकार पर इतनी बहस हो रही है तो क्‍या हम किसी व्‍यक्ति को, भले ही वह उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, यह फैसला करने का हक भी नहीं देगे कि वह किसी विचार या राजनीतिक पार्टी से जुड़ सके?

उम्र से व्‍यक्ति के काम या उसके फैसले को जोड़ने और उसी आधार पर आकलन करने या निष्‍कर्ष निकालने का चलन ठीक नहीं है। ‘टूलकिट’ मामले में दिशा रवि पर हुई कार्रवाई को लेकर कहा गया कि 21 साल की लड़की पर ऐसा अत्‍याचार किया जा रहा है दूसरी तरफ श्रीधरन को लेकर कहा जा रहा है कि 88 साल की उम्र में उन्‍हें राजनीति का चस्‍का लग गया है, वे सठिया गए हैं। दरअसल उम्र चाहे कम हो या ज्‍यादा इस आधार पर न तो किसी के किए को सही ठहराया जा सकता है और न ही गलत।

रहा सवाल श्रीधरन के राजनीतिक भविष्‍य का तो इसका फैसला केरल की जनता पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। केरल वैसे भी हर तरह से जागरूक प्रदेश है। वहां लोग अपनी समझ और सोच के आधार पर राजनीतिक फैसले करते हैं, किसी के कहने सुनने या बहलाने फुसलाने का वहां ज्‍यादा असर नहीं होता। केरल ने अपने ही बीच से उठे लोगों को राजनीतिक रूप से खारिज भी किया है और बाहर से आने वालों को राजनीति के मैदान में जिताया भी है। श्रीधरन का फैसला सही है या गलत यह भी केरल की जनता ही तय करेगी, और हमें उसी को तय करने देना चाहिए।
(न्‍यूज 18 हिन्‍दी में प्रकाशित) 

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