अजय बोकिल
यह देश की पुलिस के मानवीय व्यवहार पर भी भरोसा न कर पाने का असली ट्रैजिक किस्सा है। मामला यूपी की राजधानी लखनऊ का है। वहां ट्रैफिक पुलिस यातायात सुरक्षा सप्ताह के तहत दुपहिया वाहन चालकों को हेलमेट पहनने के लिए प्रेरित कर रही थी। जो वाहन चालक बगैर हेलमेट के थे, उन्हें हेलमेट दिए जा रहे थे।
जो हेलमेट लगाए हुए थे, उन्हें पुलिस की ओर से अभिनंदन स्वरूप गुलाब का फूल भेंट किया जा रहा था। साथ ही यातायात नियमों के पालन के लिए धन्यवाद भी दिया जा रहा था। यानी सब कुछ दिन में दिखे सपने जैसा। ऐसे में यातायात पुलिस ने सिंकंदर बाग चौराहे पर एक दुपहिया सवार युवक हेलमेट लगाए देखा तो उसे गुलाब का फूल दिया और साथ में धन्यवाद भी।
पुलिस के इस अनपेक्षित सद्व्यवहार से खुश वह युवक घर गया और पत्नी को गुलाब का फूल दिखाया। यह देखते ही पत्नी भड़क उठी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जब-तब डंडा फटकारने वाली पुलिस इतनी दरियादिल कैसे हो सकती है? खिले फूल का हुलिया बिगाड़ने वाली पुलिस किसी को गुलाब क्यों देगी? जरूर कुछ गड़बड़ है।
उसे लगा कि पति झूठ बोल रहा है। पति समझा-समझा कर हार गया कि भागवान यह पुलिस का दिया हुआ फूल ही है। लेकिन पत्नी नहीं मानी। घर में झगड़े से परेशान युवक दूसरे दिन वापस पुलिस के पास पहुंचा और गुजारिश की कि साहेबान आपने गुलाब का फूल क्या दिया, मेरी तो पारिवारिक जिंदगी ही खतरे में पड़ गई। पत्नी मानने को ही तैयार नहीं कि पुलिस किसी को गुलाब भी दे सकती है।
एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने उसकी परेशानी को समझा। उसने अपने मोबाइल से वह फोटो ढूंढ निकाला, जो पुलिस द्वारा चेकिंग के दौरान युवक को गुलाब का फूल देते वक्त लिया गया था। उस एसआई ने कहा कि जाओ इसे अपनी पत्नी को दिखा दो। उसे यकीन आ जाएगा कि हां, यह गुलाब पुलिस ने ही दिया है और युवक (महिला के पति) द्वारा यातायात नियम के पालन के लिए अभिनंदन स्वरूप दिया है। उस सब इंस्पेक्टर ने यह दिलचस्प किस्सा फेसबुक पर भी पोस्ट किया।
युवक ने घर जाकर बतौर सबूत यह तस्वीर अपनी पत्नी को दिखाई ताकि उसके मन का शक दूर हो सके। बाद में क्या हुआ? पत्नी मानी या नहीं मानी, इसका उल्लेख खबर में नहीं है। लेकिन इस दिलचस्प घटनाक्रम से सवाल यह खड़ा होता है कि क्यों हमें हमारी पुलिस की संवेदनशीलता पर भी भरोसा नहीं होता?
क्यों पुलिस आजादी के 70 साल बाद भी हमारे लिए केवल डंडे और हड़काने का प्रतीक है? क्यों पुलिस का गुलाब का फूल भी हमें केक्टस का फूल लगता है? क्यों पुलिस में हमें इंसान नजर नहीं आता? क्यों वर्दी हमारी सुरक्षा के बजाए राजदंड का प्रतीक बन कर रह गई है?
इसके लिए हमे पीछे जाना होगा। अंग्रेजों ने पुलिस सेवा का गठन वास्तव में राजसत्ता को संरक्षित करने के लिए किया था। जनता की सुरक्षा और कानून का पालन प्राथमिकता में दूसरे नंबर पर थे। हमारी पुलिस आज भी बुनियादी तौर पर उन्हीं उसूलों को ढो रही है। बेशक आजादी के बाद पुलिस के स्वरूप और व्यवहार को बदलने के कई प्रयास हुए हैं, लेकिन पुलिस की छवि जनमानस में आज भी सत्ता के पहरेदार की ही है न कि जनता के पहरेदार की।
भारत में पुलिसिंग के इतिहास और पुलिस के एटीट्यूड में आए बदलाव की पूर्व आईपीएस अधिकारी गिरिराज शाह ने अपनी पुस्तक ‘इमेज मेकर्स’ में विस्तार से चर्चा की है। वो लिखते हैं कि भारतीय पुलिस का गठन अंग्रेजों ने अपराध को दबाने की बजाए लोगों को दबाने की नीयत से ज्यादा किया था। इसी के चलते कालांतर में पुलिस की छवि भ्रष्ट और संवेदनहीन तंत्र की बनती गई और इसमें आज भी कोई बहुत ज्यादा बुनियादी बदलाव नहीं है।
बावजूद इसके कि स्वतंत्रता के बाद पुलिस को ज्यादा जनोन्मुखी और जवाबदेह बनाने के लिए कई कमेटियां बनी और पुलिस व्यवस्था को समाज रक्षक बनाने के प्रयास अभी भी जारी हैं।
यह भी सही है कि देश में पुलिस को अपना काम कई चुनौतियों और दबावों के बीच करना होता है। क्योंकि समाज खुद अभी उतना ‘सिविल’ नहीं हुआ है, जितनी अपेक्षा वह पुलिस से करता है।
पुलिस ज्यादातर जिन परिस्थितियों और तनावों में काम करती है, उनकी ओर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो। अमानवीय परिस्थितियों में काम करने वाली पुलिस से हरदम मानवीय व्यवहार की अपेक्षा भी कुछ ज्यादती ही है। बावजूद इन सबके पुलिस जब-तब अपना मानवीय मुखौटा लेकर समाज से दो-चार होती है।
लखनऊ जैसा मामला देश के अन्य शहरों में भी होता होगा। वहां यातायात पुलिस वही कर रही थी, जो मध्यप्रदेश या किसी और राज्य की पुलिस भी करती है। लोगों को यातायात नियम बताना, जो इसका पालन करते हैं, उनका आदर करना और उन्हें स्नेह स्वरूप गुलाब का फूल भेंट करना। जो यातायात नियमों को तोड़ते हैं, उन्हें दंडित करना भी पुलिस का ही काम है। यहां पुलिस वाकई कानून के पालन के साथ लोगों के जीवन की सुरक्षा की नेक नीयत से काम कर रही होती है।
परेशान युवक की मदद करने वाला वह एसआई भी संवेदनशील ही होगा। यह बात अलग है कि कुछ पुलिसकर्मी इसमें भी कमाई की पतली गली तलाश लेते हैं। इसके बाद भी अगर तोहफे में गुलाब पाने वाले युवक की पत्नी को पुलिस के इस ‘स्नेह भाव’ पर संदेह हुआ तो यह न सिर्फ पुलिस के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए संजीदा सवाल है।
क्या पुलिस किसी को गुलाब भी भेंट नहीं कर सकती? क्या पुलिस से ऐसी कोमल अभिव्यक्ति अपेक्षित ही नहीं है? क्या ऐसा करने से पुलिस का इकबाल बढ़ता या घटता है? क्या पुलिस को मानवीयता की भाषा बोलने का हक नहीं है? क्या वह केवल वर्दी ओढ़े एक निर्जीव डंडा है, जो मात्र सत्ता को बचाने और अवाम के दमन के लिए चलता है?
पुलिस के सामने मुश्किल यह है कि वह लोगों को यह भरोसा कैसे दिलाए कि उसके द्वारा भेंट किया गया गुलाब का फूल जनमानस के कलेजे पर चोट करने वाला ‘फुल गेंदवा’ नहीं है, बल्कि हकीकत में कानून का सम्मान करने वालों के प्रति निर्मल मन से किया कृतज्ञता ज्ञापन है, जिसकी इस देश को सचमुच जरूरत है।
(सुबह सवेरे से साभार)