सलीम खान की माफी से सब ठीक कैसे हो सकता है?

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श्रीधर

कहते है सिनेमा समाज का दर्पण होता है और सिनेमा के सितारे उसे परदे पर जीते है और ऐसा करते-करते कभी-कभी वो समाज के उस दोहरे मापदंड की सीमाओं को भूल जाते हैं। शायद सलमान खान ने भी यही कर दिया। जी हां,  मैंने सुना है, आप भी अगर खुद से सच बोलेंगे तो यकीन मानिए आपने भी सुना होगा और इसे पढ़ने वाले और ना पढ़नेवाले ना जाने कितने लोगों ने बोला भी होगा कि यार! आज तो रेप हो गया, वैसे ही जैसे एक इंटरव्यू में अपनी आने वाली फिल्म-सुल्तान को लेकर सलमान ने कहा “जब मैं शूटिंग के बाद रिंग से बाहर निकलता था तो बलात्कार की शिकार एक महिला की तरह महसूस करता था, मैं सीधा नहीं चल पाता था” शायद सलमान ने आपसी बोलचाल में ना जाने ऐसा कितनी बार बोला होगा और इसी लगी में वो ये बात मीडिया में बोल गया और फिर क्या था, मच गया हंगामा। इस मुद्दे पर जहां सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना हो रही है, वहीं राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी सलमान ख़ान को नोटिस भेजकर सात दिन में जवाब दाख़िल करने को कहा है।

जब मैं ऐसा लिख रहा हूं तो यकीन मानिए मैं कोई सलमान के प्रति सहानुभूति नहीं जता रहा। बल्कि मेरा तो ये मानना है कि वो एक सफल एंटरटेनर है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। जिस तरह का उसका जीवन रहा है उससे मैं उसको यूथ आइकन भी नहीं मानता और वो आदमी आइकन हो भी कैसे सकता है जिसके गैरजिम्मेदाराना बयान के चलते उसके पिता को माफी मांगनी पड़ी हो, ये कहना पड़ा हो कि बेटे से गलती हो गई।

हो सकता है कि एक बाप की माफी ने सारे पाप सेटल कर दिए हों, हो सकता है सब ठीक हो गया हो। लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि एक माफी से सब कुछ ठीक कैसे हो सकता है, जब बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउसेज में, बड़े- बड़े मीडिया हाउसेज में, बड़े-बड़े वाइस प्रेसीडेंट, सीईओ और तमाम बॉसेज की बातचीत अंग्रेजी के “एफ” अक्षऱ से शुरू होने वाले शब्द के बिना पूरी नहीं होती। पढ़ी-लिखी अंग्रेजी बोलने वाली महिलाओं में भी इसका चलन खूब है।

सलीम खान के माफी मांगने से सब ठीक कैसे हो सकता है जब इस देश के गली-मोहल्लों से लेकर सरकारी दफ्तरों में,  मवाली टाइप के लोगों से लेकर तथाकथित संभ्रांत वर्ग के लोगों तक, गुस्से और हंसी मजाक तक में लोग मां-बहन की गालियों का इस्तेमाल सहायक क्रिया के तौर पर करते हों।

सलीम खान के माफी मांगने से सब ठीक कैसे हो सकता है जब इस देश के बुध्दिजीवियों में ही दो भाषा का चलन हो। एक संसदीय भाषा का और एक असंसदीय भाषा का। संसद में अगर किसी नेता ने अंससदीय भाषा का इस्तेमाल कर लिया तो उसे रिकॉर्ड से हटा दिया जाता है, लेकिन एक अभिनेता ने असंसदीय भाषा का इस्तेमाल किया तो उसे रिकॉर्ड की तरह मीडिया ने बजा दिया और बना दिया राष्ट्रीय मुद्दा ।

जिस देश में, जिस समाज में लोग ऑन द रिकॉर्ड कुछ बोलते हो और ऑफ द रिकॉर्ड कुछ वहां आप यकीन के साथ कैसे कह सकते हैं कि सब ठीक है ।

सलमान के साथ-साथ अपनी रोजमर्रा की बातचीत पर भी जरा गौर करिएगा और फिर सोचिएगा- क्या सब ठीक है?

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(श्रीधर पिछले 17 सालों से आकाशवाणी, दूरदर्शन, ईटीवी, स्टार न्यूज, आजतक औऱ स्टार इंडिया जैसी संस्थाओं से जुड़ कर काम कर चुके है। इस दौरान श्रीधऱ ने राजनीतिक,सामाजिक, अपराध, सिनेमा और खेल पत्रकारिता में अहम भूमिका निभाई है। वर्तमान में श्रीधऱ स्टार स्पोर्ट्स के प्रो कबड्डी सीजन फोर के लिए काम कर रहे हैं।) 

1 COMMENT

  1. कुछ ीक तो नहीं पर आपके लेख से एक बात तो साफ हुई की षुरूशों को इस दद् का शारीरिक रूप से एहसास तो हैं, बस सामाजिक और भावनात्मक अहसास बकाया है।।

    आशा है ये अनुभूति भी शीधृ ही होगी।।।

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