अजय बोकिल
मोदी सरकार ने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में भारत में कोरोना से हुई अनुमानित मौतों के आंकड़ों को तथ्यहीन बताते हुए खारिज भले कर दिया हो, लेकिन इतना तय है कि देश में कोरोना महामारी से होने वाली बर्बादी की तस्वीर उससे कहीं ज्यादा भयावह है, जो सरकार ‘ऑन रिकॉर्ड’ स्वीकारती आ रही है। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के आंकड़े बहुत विश्वसनीय इसलिए नहीं हैं कि वो शुद्ध रूप से अनुमान पर आधारित हैं। मृत्यु दर की उसकी आनुपातिक गणना भी गलत हो सकती है, लेकिन हमारे यहां कई राज्य और केन्द्र सरकार भी कोरोना से होने वाली मौतों और संक्रमण के सही आंकड़े अभी भी देने से बच रही हैं। बावजूद तमाम खतरे और दबावों के भारतीय मीडिया अपना काम (कुछेक अपवाद छोड़ दें) पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ कर रहा है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना महामारी के साथ जारी इस महासंग्राम में विगत दो साल में 300 से ज्यादा (कुछ के अनुसार 426) पत्रकारों ने प्राणों की आहुति दी है और यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। इस आंकड़े में कर्तव्यनिर्वहन करने वाले पत्रकारों और फोटोजर्नलिस्टों के परिजनों की संख्या शामिल नहीं है, जो कोविड से संक्रमित हुए या जिनकी जानें चली गईं। इसमें हिंदी के पत्रकार भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता की उस जुझारू विरासत को कायम रखा और अपने काम को ईमानदारी से अंजाम देने के लिए प्राणों की परवाह नहीं की।
इस लिहाज से ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ (30 मई) पर हमें ऐसे उन सभी पत्रकारों को दिल से नमन करना चाहिए। फिर चाहे वो ख्यात लेखक, पत्रकार, चित्रकार प्रभु जोशी हों, आज तक के रोहित सरदाना हों या राजकुमार केसवानी हों, कमल दीक्षित हों, शेष नारायण सिंह हों, भगवतीधर वाजपेयी हों, अनिल यादव हों, महेन्द्र गगन हों, शिवअनुराग पटरैया हों, प्रवीण श्रीवास्तव हों, हिमांशु जोशी हों, सभी कोरोना से संघर्ष करते हुए ‘काल के गाल’ में समा गए। इनमें से कुछ को तो वक्त पर सही मेडिकल मदद भी नहीं मिल पाई। ये तो चंद चर्चित नाम हैं, सैकड़ों पत्रकार और फोटो पत्रकार ऐसे हैं, जो मैदानी स्तर पर कोरोना महामारी की रिपोर्टिंग/फोटोग्राफी करते हुए संक्रमितों के संपर्क में आए और खुद उसका शिकार हो बैठे।
लेकिन इतना भारी नुकसान उठाने के बाद भी हिंदी (और भाषायी भी) पत्रकारों का हौसला कम नहीं हुआ है। पत्रकार अभी भी जान का जोखिम उठाकर कोरोना काल में देश के मेडिकल सिस्टम की बदहाली, दवाओं और वैक्सीन की कमी, कोरोना जांच व टीकों को लेकर गांवों में फैले अंधविश्वास, राजनेताओं के दोहरे चरित्र तथा आपदा में मनुष्य के दो चेहरों को सामने लाने का काम पूरी जिद और निष्ठा के साथ कर रहे हैं। और यह रिपोर्टिंग एक तरफा नहीं है। जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं, जिनमें इंसानियत बाकी है, मीडिया उन्हें भी सामने ला रहा है बावजूद इसके कि इस लड़ाई को भी ‘एलोपैथी बनाम देसीपैथी’ की अंतहीन बहस चलवा कर भटकाने की कोशिश की जा रही है। शायद यह भी हिंदू-मुसलमान महाभारत का नया एपीसोड है, जिसका डोज देने की भरपूर कोशिश की जा रही है। वरना इस संकट की घड़ी में चिकित्सा पैथियों को आपस में लड़ाने के पीछे क्या मंगल भाव हो सकता है?
इसमें शक नहीं कि कोरोना समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह मीडिया पर भी भारी पड़ रहा है। ‘इंडिया टुडे’ में हाल में छपी एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया था कि कोरोना की दूसरी लहर में औसतन प्रतिदिन तीन से चार पत्रकारों की देश में मौत हो रही है। इनमें से ज्यादातर हिंदी और भाषायी पत्रकार हैं, जो जमीनी स्तर पर जाकर रिपोर्टिंग करके सत्ताधीशों को आईना दिखा रहे हैं। महामारी की रिपोर्टिंग बहुत चुनौती भरी होती है, क्योंकि इसमें पत्रकार को सदा मौत के घेरे में ही रिपोर्टिंग करनी होती है। फिर चाहे कोरोना से मृत व्यक्ति की अंत्येष्टि की हो, अस्पतालों में जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहे मरीजों का हाल हो, दवाओं की कालाबाजारी हो, कोरोना के गंभीर मरीजों के बीच रात-दिन काम करते डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ से बात हो या फिर किसी संक्रमित बस्ती का हाल बताना हो, पत्रकारों को जान का खतरा पल-पल है।
यहां सवाल उठता है कि महायुद्धों और प्राकृतिक आपदाओं के अलावा मीडिया के सामने रिपोर्टिंग का इतना जोखिम कब आया होगा? इस प्रश्न का एक उत्तर 1918 से 1919 के बीच दुनिया भर में फैली स्पेनिश फ्लू (एनफ्लू्एंजा) महामारी का है। इस महामारी से तब पूरी दुनिया में करीब 5 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। करीब डेढ़ करोड़ से अधिक लोग तो अकेले भारत में ही इसका शिकार हुए थे। यदि इसकी तुलना आज की कोविड 19 महामारी से करें तो अब तक विश्व में कोरोना से (डब्लूएचओ के अनुसार) 35 लाख से अधिक मौतें हुई हैं तथा करीब 17 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हुए हैं, जोकि स्पेनिश फ्लू से मरने वालों की तुलना में काफी कम है। इसका बड़ा कारण दुनिया के कई देशों में हेल्थ सिस्टम में पर्याप्त सुधार, जनजागरूकता और चिकित्सा सुविधाएं हैं।
स्पेनिश फ्लू के जमाने में हमे एंटीबायोटिक्स के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, न वेंटीलेटर्स थे और न ही विषाणुओं के व्यवहार के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी थी। जाने-माने पत्रकार सौतिक विश्वास ने एक शोध लेख में बताया कि सौ साल पहले भी भारतीय मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी निबाही थी और लोगों को स्पेनिश फ्लू से बचने तथा सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने को लेकर शिक्षित किया था। यही नहीं, उसने उस महामारी के दौरान उस पर नियंत्रण के प्रभावी कदम उठाने के बजाए कई अंग्रेज अफसरों के हिल स्टेशनों पर जा बैठने की भी कड़ी आलोचना की थी। दुर्भाग्य से उस समय भी मूढ़ लोगों ने गंगा में लाशें खूब बहाई थीं, लेकिन तब की तस्वीरें उपलब्ध शायद इसलिए नहीं है,क्योंकि मीडिया की पहुंच तब इतने माइक्रो लेवल पर नहीं थी। पर्यावरण जागरूकता कम थी और इस बात का अहसास नहीं था कि गंगा का पवित्र जल हम ही प्रदूषित कर रहे हैं।
गौरतलब है कि गांधीजी कुछ समय पहले ही दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे थे। उन्होंने स्वयं स्पेनिश फ्लू से मुकाबले के लिए लोगों को साथ लेकर मुहिम शुरू की थी। स्पेनिश फ्लू से तत्कालीन भारत में कितने पत्रकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था, इसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है (यदि हो तो बताएं) लेकिन हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पत्नी का निधन स्पेनिश फ्लू से ही हुआ था। स्पेनिश फ्लू से दुनिया भर में अपने प्राण गंवाने वाले तत्कालीन सेलेब्रिटीज (जिनमें लेखक, कलाकार, खिलाड़ी, सेनापति, कारोबारी, राजनेता शामिल हैं) में किसी बड़े पत्रकार का नाम नहीं दिखाई देता। इस पर अलग से अध्ययन आवश्यक है।
वैसे महामारियों के फैलने, फैलाने और उससे निपटने के लिए कॉरपोरेट और राजनीतिक षड्यंत्रों की बात की जाती है। सौ साल पहले फैली उस वैश्विक महामारी को ‘स्पेनिश फ्लू’ का नाम देने के पीछे भी शायद यही मानसिकता रही होगी। क्योंकि स्पेन से पहले यह महारोग यूरोप के दूसरे देशों में फैल चुका था, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के चलते इन देशों की सरकारें फ्लू से मौतों की खबरों को दबा रही थीं। स्पेन उस विश्वयुद्ध में तटस्थ था। वहां के राजा ने फ्लू की खबरों को छपने से नहीं रोका। जब वहां फ्लू से मौतों की खबरें मीडिया में आने लगी तो दूसरे देशों ने परोक्ष रूप से इसका ठीकरा स्पेन पर फोड़ते हुए इसे ‘स्पेनिश फ्लू’ नाम दे दिया। लेकिन स्पेन में खबरों के छपने से पूरी दुनिया को स्पेनिश फ्लू‘ के बारे में जानकारी मिली, उसके संक्रमण और बचने के तरीके शेयर हुए। बाकी दुनिया सतर्क हुई।
अमूमन सत्ताएं अपना चेहरा बचाने मीडिया पर ‘गलत या तथ्यहीन’ रिपोर्टिंग का टैग लगाकर उसे खारिज या अंडर एस्टीमेट करने की कोशिश करती हैं। क्योंकि सच सत्ताओं को परेशान करता है। लेकिन किसी भी देश और जनता के दूरगामी हितों की दृष्टि से यह निहायत आत्मघाती और मूर्खतापूर्ण रवैया है। कुछेक मामलों में फर्जी रिपोर्टिंग भी होती है, हो भी रही है, लेकिन तुलनात्मक रूप में ऐसे मामले कम हैं। ज्यादातर मामलों में जमीनी हकीकत बेनकाब करने का काम हिंदी और भाषायी पत्रकारिता कर रही है। लिहाजा कोविड काल में कर्तव्य की वेदी पर जान गंवाने वाले पत्रकारों में इनकी संख्या ही ज्यादा है।
जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक कोरोना काल में देश में पत्रकारों और फोटो पत्रकारों की सर्वाधिक मौतें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में हुई हैं। इनमें टीवी, प्रिंट, डिजीटल, स्वतंत्र आदि सभी मीडिया के लोग शामिल हैं। इतना होने के बाद भी भारत सरकार ने अभी तक पत्रकारों को ‘कोरोना फ्रंटियर्स’ का दर्जा नहीं दिया है। लेकिन केन्द्र के प्रेस सूचना ब्यूरो ने कोरोना काल में दिवंगत हुए 67 पत्रकारों के परिजनो की आर्थिक मदद की है। जबकि मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने अधिमान्य पत्रकारों को कोरोना योद्धा मानकर कोरोना से संघर्ष करते हुए प्राण गंवाने वाले पत्रकारों की आर्थिक मदद की है। इतना ही नहीं भोपाल व इंदौर में पत्रकारों की कुछ संस्थाएं अपने पत्रकार भाइयों और उनके परिजनों की यथाशक्य मदद कर रही हैं।
भोपाल में विश्व संवाद केन्द्र ने कोरोना काल में दिवंगत पत्रकारों के लिए वैचारिक आग्रहों से हटकर एक साथ ऑनलाइन श्रद्धांजलि सभा आयोजित कर अच्छा उदाहरण पेश किया है। हिंदी पत्रकारिता का यह वह मानवीय चेहरा है। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि कोरोना काल में ही हमने कुछ पत्रकारों के निधन पर समाज को ‘श्रद्धांजलि’ और ‘गरियांजलि’ में बंटते देखा था, जोकि अस्वीकार्य है।
हमें ध्यान रखना होगा कि देश में हिंदी पत्रकारिता का यह 195 वां साल है। देश में हिंदी से पुरानी केवल अंग्रेजी, बांगला और उर्दू पत्रकारिता है। इस महामारी ने पूरी दुनिया के साथ हिंदी पत्रकारिता को भी बहुत कुछ सिखाया है। कोरोना काल में जिस चुनौतीपूर्ण और आत्मसयंमित पत्रकारिता की दरकार रही है, उसे अंग्रेजी में ‘मेटाजर्नलिस्टिक डिस्कोर्स’ की संज्ञा दी गई है। हिंदी में कहें तो यह ‘अधिपत्रकारीय संवाद’ है, जिसमें पत्रकार को महामारी के बीच ही आत्मनियमन, आत्मनिर्णय और स्वनिर्धारित मर्यादाओं के साथ यथार्थ रिपोर्टिंग करनी होती है।
दूसरा सबक यह है कि पत्रकारों के कई मित्र होते हुए भी ठेठ महामारी के समय में उसे अकेले ही जूझना और सच को उघाड़ना होता है। सत्ता साकेत से लेकर गरीब की कुटिया तक और वेंटीलेटर से लेकर श्मशानघाट तक पत्रकारिता का सफर उसे अपने दम पर ही पूरा करना है। फिर चाहे वह स्पेनिश फ्लू हो, स्वाइन फ्लू हो या फिर कोविड-19 (मध्यमत)
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