कोरोना से बचने, प्रकृति के पास ही जाना होगा

प्रमोद शर्मा

एक बात हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक ग्रंथ और संत-महात्मा सदियों से बताते चले आ रहे हैं कि यह संसार मिथ्या है, केवल ईश्वर ही सत्य है। यहां तक कि संसार के सारे रिश्ते-नाते भी मोह-माया है, इसे त्यागो और प्रभु का भजन करो, उस परम सत्ता से नाता जोड़ो, जिसने यह सारी सृष्टि बनाई है और वही इसको संचालित भी करता है। हमारे दर्शन में तो यहां तक कहा जाता है और विश्वास भी किया जाता है कि उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। यह बात भी कोरोना ने पूरी दुनिया को अंदाज में समझा दी। इस सृष्टि के एक इतने सूक्ष्म जीव ने जो खुली आंखों से देखा भी नहीं जा सकता है, उसने मानव सभ्यता की हजारों-लाखों वर्षों पुरानी कथित विकास की कहानी को मिथ्या सिद्ध कर दिया।

उस परम सत्ता ने कोरोना जीव या निर्जीव जो भी है, उसके माध्यम से समूचे मानव समाज को यह विचार करने के लिए विवश कर दिया कि तेरे विकास की तमाम अट्टालिकाओं की नींव को हिलाने के लिए एक अदृश्य जीव ही पर्याप्त है। कोरोना महामारी के दौर में इस अदृश्य जीव के सामने हमने विज्ञान को विवश देखा। स्वयं को विश्व का चौधरी समझने वाली सत्ताओं को घुटनों के बल देखा है। विकसित देशों की पांत में खुद को सबसे आगे समझने वाले देशों को रोते-बिलखते और गिड़गिड़ाते हुए देखा है। मानव को मानव से दूर होते देखा है। जो लोग खुद अपने रसूख पर इतराते थे, जिनके आगे-पीछे जी-हजूरियों की फौज होती थी, बीमारी के दौर में उन्हें एक तीमारदार तक नसीब नहीं हुआ और न ही मरने के बाद चार लोगों का कंधा ही मिला।

ऐसे निराशा भरे और भयाक्रांत कर देने वाले वातावरण में फिर एक बार हमारे दर्शन, जीवन पद्धति और विचारधारा ने ही हमें संबल और सहारा दिया। आज लगता है कि केवल और केवल भारतीय दर्शन ही विश्व का मार्गदर्शन कर सकता है और वही इस मानव समाज को उचित मार्ग दिखा सकता है। इस आपदा के दौर में एक बात विशेष रूप से गौर करने वाली है कि समूची सृष्टि में मानव समाज के अतिरिक्त किसी भी जड़-चेतन को किसी भी प्रकार का कोई क्‍लेश या कष्ट नहीं हुआ, बल्कि महामारी के डर से जब पूरी दुनिया के अधिकांश देशों में लॉकडाउन का ऐलान हुआ तो सृष्टि में मौजूद तमाम जीव-जंतु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदियां-तालाब, धरती-आसमान, पर्वत-पहाड़, हवा सभी पुष्ट हो रहे थे।

इससे क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य यह समझ में आया कि स्वयं को प्रकृति का सबसे समझदार जीव कहने वाला मानव ही ऐसा जीव है, जो प्रकृति के संविधान के विपरीत नियमों को ताकपर रखते हुए आचरण करता रहा है। हम मानवों के अतिरिक्त धरती पर मौजूद सभी जीव प्रकृति के नियमों का, संविधान का अक्षरशः पालन करते हैं और उसी अनुसार अपना जीवन जीते हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसने अपनी लिप्सा के कारण मूक प्रकृति के संविधान को कभी नहीं स्वीकारा। यही कारण रहा कि इस आपदा के दौरान केवल मनुष्यों को ही कष्ट हुआ, बाकी प्रकृति आनंद में रही।

हम प्रकृति को ही ईश्वर मानने वाले लोग हैं। इस सृष्टि के कण-कण में हमने परमसत्ता के अंश को देखा है। यह बात अलग है कि हमने पग-पग पर उसकी उपेक्षा की और करते ही चले गए। केवल उपेक्षा ही होती तो भी ठीक था, लेकिन हमने इससे भी आगे बढ़कर उसे नष्ट करना भी शुरू कर दिया। यहीं से सारी गड़बड़ शुरू हुई। प्रकृति और मनुष्यों के बीच जो एक भावनात्मक मूक संबंध था, जो एक तादात्म्य था, जो आपसी नेह का एक रिश्ता था वह दरकता चला गया। एक कहावत है- ‘आशनाई चीकनी और सौदा करकरा।‘ यानी प्रेम में चिकनापन या लचीलापन फबता है, लेकिन सौदा यानी व्यापार में खरी-खरी बात ही अच्छी लगती है।

जब तक हमने प्रकृति से प्रेम का नाता रखा, जब तक प्रकृति भी प्रेम बरसाती रही, लेकिन जैसे ही हमने प्रेम को त्यागकर प्रकृति से सौदा करना शुरू किया, प्रकृति रूठ गई। अब बात प्रेम की नहीं लेन-देन की है। जो लिया है, वह सूद समेत देना ही होगा। यह लेनदार का मिजाज है कि वह कब, कैसे और कितना लेता है। एक कहावत है- ‘बख्शीश सौ-सौ, हिसाब जौं-जौं।‘ तात्पर्य यह है कि यदि किसी को ईनाम देना है तो सौ रुपए भी दे दिए जा सकते हैं, लेकिन बात जब हिसाब की आती है तो जौ के एक दाने का भी हिसाब किया जाता है। लगता है कि कोरोना में भी प्रकृति इस फार्मूले के अनुसार काम कर रही है।

प्रकृति ने एक मां की भांति मानव को पूरी उदारता से सौगातें दीं। किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखी। मानव सहित सभी जीवों के जीवन-यापन के लिए प्रकृति ने अपने भंडार खोले हुए हैं। उसके आवास के लिए, उसके भोजन-पानी के लिए, उसके मनोरंजन सहित सुख-सुविधा में कोई कमी नहीं रखी। पर हतभाग्य! मनुष्य इससे संतुष्ट नहीं हुआ और उसने इन सौगातों का तो अंधाधुंध दोहन किया ही, दुशासन की तरह प्रकृति मां के आंचल को ही खींचना शुरू कर दिया। सदियों से चला आ रहा प्रकृति का चीरहरण कहीं रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब प्रकृति ने यह कोप दिखाया है।

कहते भी हैं कि यदि किसी से कोई रकम उधार ली जाए तो उसे मयब्याज के चुकाना पड़ता है। हम मनुष्यों ने सदियों तक प्रकृति से लिया तो बहुत कुछ है, लेकिन देने के नाम पर कन्नी काटते रहे हैं। अब प्रकृति जौ-जौ का हिसाब कर खुद ही वसूली कर रही है तो कष्ट बहुत हो रहा है। वास्तव में यह जो कष्ट है, जो पीड़ा है, यह हमारे प्रकृति के साथ किए गए अन्याय और अत्याचार का ही परिणाम है।

प्रकृति के कोप से हमें सिर्फ प्रकृति की बचा सकती है। हमारी चिंतनधारा में हमने ईश्वर को प्रकृति रूप ही माना है। प्रकृति में मौजूद समस्त जड़-चेतन में हम उस परमसत्ता को ही देखते रहे हैं। हालांकि लोभ के वशीभूत होकर हम उस सत्य को झुठलाकर स्वयं को उस परमसत्ता यानी प्रकृति से श्रेष्ठ समझने की भूल कर बैठे। बस, एक बार जो राह भटकते तो फिर भटकते ही चले गए और इतनी दूर आ गए कि लौटना संभव नहीं रहा। रामचरित मानस का एक प्रसंग है। इंद्र का बेटा जयंत भगवान राम के बल की परीक्षा लेना चाहता था। वह सीताजी के चरण में चोंच मारकर भागता है। भगवान ने सीताजी के चरण से रक्त बहते हुए देखा तो सींक के धनुष से ही बाण का संधान कर दिया।

कथा आगे कहती है कि जयंत तीनों लोकों में सबके पास सहायता मांगने गया, लेकिन उसे कहीं भी शरण नहीं मिली। बाद में उसे यह बात समझ में आ गई कि इस समस्या का निराकरण भगवान राम की शरण में जाने से ही हो सकेगा। अपनी भूल स्वीकार करके वह भगवान की शरण में आया तो भगवान ने उसे ‘एकाक्ष‘ करके छोड़ दिया। हमारी गति भी आज जयंत की भांति ही है। हमने अपराध प्रकृति का किया है और उसका हल कहीं और खोज रहे हैं। जबकि इसका स्थायी हल हमें प्रकृति में ही मिलेगा। हमें प्रकृति की ही शरण में जाना होगा, तभी कोरोना और इस जैसी भावी आपदाओं से मुक्ति संभव है। इसके लिए हमें कुछ अधिक करने की आवश्यकता भी नहीं है। हमें सिर्फ एक ही संकल्प करना होगा कि अब हम प्रकृति का कोई अपराध नहीं करेंगे। उससे उतना ही लेंगे, जो हमारे जीने के लिए पर्याप्त होगा। तभी हमारे अपराधों का शमन हो सकेगा और भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए सही संदेश भी। साथ ही उनके लिए हमारी सबसे श्रेष्ठ धरोहर भी यही होगी। (क्रमशः)
(मध्‍यमत)
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