विजयबहादुर सिंह
आजादी मिलने के बाद और संविधान लागू हो चुकने पर ‘हम भारत के लोग’ यानी भारत का नागरिक समाज, सरकारों को वोट देने वाली जनता, निरन्तर अपनी सत्ता खोती चली गयी और उसके द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि सरकार बनकर उसे अपना गुलाम बनाते चले गये। इस मायने में संघर्ष के दिनों वाले जनप्रतिनिधियों के मन में थोड़ा-बहुत संकोच और लिहाज जरूर था पर प्रवृत्ति के स्तर पर आत्मप्रतिष्ठा वाली बीमारी तो शुरू हो ही चुकी थी। फिर भी इतनी नेकनीयती उन्होंने जरूर बरती कि एक से एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्थाएं भारत के लोगों के हितसाधन के पक्ष में खड़ी कीं और यह कोशिश भी की कि नागरिक समूहों के सपने एकदम से क्षत-विक्षत न हों। इसलिए प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू से लेकर, गांधी के आदर्शों को जीने वाले तपःपूत प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और एक हद तक शुरुआती इन्दिरा गांधी तक भारत के लोगों का भरोसा टूटा नहीं। यह जरूर है कि भारतीय समाज में चिंताबोझिल सजगता का भाव घर कर गया और बहुतों में सरकारों में बैठे लोगों के प्रति संदेह और अनास्था पैदा होने लगी।
याद करें तो हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, यहाँ तक कि कथा-लेखिका मन्नू भण्डारी के लेखन में भी इसे देखा जा सकता है। मुक्तिबोध ने अपनी असाधारण कविता ‘अंधेरे में’ और ‘भूल गलती’ नेहरू शासन के अन्तिम दिनों में लिखी। आज इन्दिरा गाँधी द्वारा लगाये गए आपातकाल को बार-बार अपनी तानाशाही के पक्ष में याद करवाया जाता है किन्तु यह भुला ही दिया जाता है कि सत्ता से बेदखली के दो एक सालों बाद ही इसी भारतीय समाज ने उन्हें दुबारा सत्ता में क्यों बिठा दिया था?
राजीव गांधी तक आते आते देश के लोग अपने अन्दरूनी संघर्षों में डूबे ही थे कि पश्चिमी ताकतों ने भारत को अच्छे चारागाह के रूप में अपने निशाने पर ले लिया था। पहले डंकल प्रस्ताव यानी उदारीकरण, फिर भूमंडलीकरण ऐसी योजनाएं थीं कि बगैर किसी फौज-फाटे के तीसरी और चौथी दुनिया के देशों पर चौधराहट कायम की जा सकती थी। इनसे भारत की सत्ता-राजनीति और भारत के लोगों दोनों ही की समस्याएं बेहद जटिल मोड़ पर आकर खड़ी हो चुकी थीं। स्वयं को सत्ता के केन्द्र में बनाए रखने के लिए उन्हें तरह-तरह के हथकंडे-अपनाने पड़ रहे थे, जबकि भारत के लोगों का सामूहिक मन टूट-बिखर कर व्यक्तिगत मन में तब्दील होने लगा था। बाहर से हमारे चारों ओर कवि, लेखक, पत्रकार व बुद्धिजीवी खूब थे पर सब अपने-अपने में खोये।
तब भारत के लोगों के सपनों को एक उद्धतजिद्दी की तरह जीने वाले कवि नागार्जुन ने नेहरू के अवसान पर ‘तुम रह जाते दस साल और’ जैसी कविता लिख और ‘धर्मयुग’ में छपवाकर उसी समय यह प्रमाणित कर दिया कि कविता और सामाजिक सच का रिश्ता क्या और कैसे होता है। यह वही नागार्जुन थे जिन्होंने दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की दुखद अकाल मृत्यु पर अपना शोक प्रकट करते हुए श्रद्धांजलि दी- ‘’वह बारूदी बदबू पर चंदन मलय गंध।‘’ धर्मवीर भारती जैसे युवा कवियों ने उसी समय ‘अंधायुग’ जैसी कृति लिख डाली।
यह लेखकों और कवियों की वह पीढ़ी थी, जिसकी चेतना किसी विचारधारा और सत्तासेवी राजनीतिक के खूंटे में बँधी नहीं थी। इन्दिरा गाँधी जैसी अपेक्षाकृत कठोर किन्तु व्यावहारिक राजनीति में दक्ष शासिका भी इन कवियों और लेखकों की निगाह से कहाँ बच पाई? नागार्जुन को तो जेल ही जाना पड़ गया। कमलेश्वर ने ‘आँधी’ जैसी फिल्म लिख डाली। ‘महाभोज’ तो मन्नू भंडारी लिख ही चुकी थीं। आपातकाल में भवानीप्रसाद मिश्र जैसे गाँधी-विनोबाभक्त होकर भी त्रिकाल संध्या करते रहे। जैसे सत्ता के विरुद्ध महामृत्यंजय मंत्र का पाठ कर रहे हों।
ये सारे सचेतजन उन्हीं भारत के लोगों के बीच से आए थे और सत्ता की आँखों में आँखें डालकर उससे सुधर जाने को कह रहे थे। क्योंकि वे देख रहे थे कि भीड़ में अलग-थलग, अपने ही व्यक्तिगतमन वाली दुनिया में खोये और डूबे हुए भारत के लोग बड़ी उम्मीद के साथ मत-पेटियों के पास जाते थे और उनके मतों के बल पर जीतकर संसदों और विधान सभाओं में पहुंचने वाले अपने-अपने क्षेत्रों के जनता-समूहों की जरूरतों और सपनों की सुध को लात मारकर उन्हें भेड़-बकरियां समझने लगते थे। देश के बजाय पार्टी, उसका अध्यक्ष और प्रधान-मंत्री ही जनता की जगह उनका हाईकमान हो उठता था।
पर 2014 का साल आया तो देश के लोगों ने अपनी उम्मीदों को फिर से पाल-पोसकर नरेन्द्र मोदी को चुना और वे ‘कृपापूर्वक एक आज्ञाकारी बेटे’ और बाद में ‘भारत के लोगों के प्रधान सेवक’ और ‘चौकीदार’ बन संसद में घुसे। आज भी उनके उन चुनावी भाषणों को याद करने का मन होता है जिनमें रामराज्य के हरे-भरे सपनों की लहलहाहट थी। लेकिन आज जब उनकी सत्ता का सातवाँ साल है, एक हिन्दी कवि की पंक्ति याद आ रही है: ‘मेरे सपने ऐसे टूटे जैसे भुने हुए पापड़’ पचहत्तर-छिहत्तर में दुष्यंत ने लिखा था- ‘कहां तो तय था चरागां हरेक घर के लिए, कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।‘ दुष्यंत आज होते तो इसे लिखने के बारे में सोच ही नहीं पाते।
अब सत्ता इतनी बेखौफ और बेशर्म हो चुकी है कि आपका मुख जरा-सा खुला नहीं कि पुलिस हाजिर। भारत का लोकतंत्र जो तमाम भटकावों के बाद भी अपने होने का एहसास कराता था, ऐसे तंत्र में परिणत हो उठा है जहाँ अपने मन की बात’ करने का हक सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति को है, जो तथाकथित सेवक है या फिर चौकीदार। यह कहा जाना भी अपराध है कि अगर तुम चौकीदार हो तो इतने घपले, घोटाले, कमीशनबाजियां, घूसखोरियां, लूटपाट व हिंसा हो कैसे रही हैं? सड़कों पर संगठित हत्यारों के दल कैसे घूम रहे हैं? यह किस तरह का आपातकाल है, जिसमें वह व्यक्ति भी डरा और थर्राया हुआ है जो भारत का नागरिक होकर अपनी रोजी-रोटी कमाने की आजादी से वंचित है? यह तुम कैसी चौकीदारी कर रहे हो कि हर खास मौके पर चुप हो जाते हो और गैरजरूरी मौकों पर बोलने का अवसर खोज लेते हो।
तुम देश के सबसे बड़े सेवक हो तो क्या तुम्हें उसका संविधान यह हक देता है कि सिर्फ तुम्हारी इच्छाएं ही फले-फूलें, तुम्हीं ब्रम्हा बने रहो और सारा देश तुम्हारी बेबस व लाचार सृष्टि? संविधान और उसका पर्याय कहे जाने वाले ‘हम भारत के लोगों’ की तुमने यह कैसी सेवा की कि उनका अस्तित्व ही संदिग्ध हो गया और देश केवल हिन्दू या मुसलमान रह गया?
आज हमारे पुराने पड़ोसी शत्रु-राष्ट्र बने बैठे हैं। यहां तक कि श्रीलंका और बंगलादेश से सम्बन्ध भी अच्छे नहीं हैं। अर्थव्यवस्था पिछले दिनों की तुलना में एकदम गिरावट पर आ गई है तो बेरोजगार और रोजगारवंचित युवकों को लेकर क्या कहें, जिनका अब कोई भविष्य नहीं दिख रहा? ये सब ‘हम भारत के लोग’ हैं या नहीं? यह पूछने के लिए अब हम कहाँ किस सरकार के पास जाएं?