राकेश अचल
लोकतंत्र में सरकारें जो चाहे कर सकतीं हैं, लेकिन उन्हें जो करना चाहिए उसे करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। मध्यप्रदेश की सरकार हो या किसी और प्रदेश की सरकार, किसी दल की सरकार हो या दलदल की सरकार, सभी का चरित्र कमोबेश एक जैसा होता है। आजकल मध्यप्रदेश की सरकार दूसरे तमाम जरूरी काम छोड़कर गायों के संरक्षण के पीछे हाथ धोकर पड़ गयी है और इसके लिए एक बार फिर करों के बोझ से मर रही जनता के ऊपर गाय-उपकर लगाने का विचार किया जा रहा है।
दुनिया में पशुपालन किसानों का या पशुपालकों का काम है, सरकार का नहीं, लेकिन हमारे यहां की सरकारें जनता को पालने के बजाय गायों को पालने में लगी हैं। मध्यप्रदेश सहित देश में गायों की आबादी सालाना औसतन 6.75 फीसदी बढ़ रही है लेकिन इनके पालन-पोषण की कोई व्यवस्था देश के किसी हिस्से में समुचित नहीं है, एकरूपता तो दूर की बात है। गायें जब तक दूध देती हैं तब तक खूंटे से बाँधी जाती हैं लेकिन जैसे ही वे दूध देना बंद करती हैं उन्हें घर से बाहर कर दिया जाता है। पशुओं में गाय की दशा ‘अबला’ जैसी है। उसका कोई माई-बाप नहीं है, कहने को गाय हमारी माता है लेकिन इस माता का कोई भाग्यविधाता नहीं है।
मध्यप्रदेश की सरकार ने गायों के संरक्षण के लिए कमर कस ली है। सरकार चाहती है कि जैसे भी हो गायें बच जाएँ भले ही जनता की कमर टूट जाये, उपकर लगाने से। प्रदेश में गौ-संरक्षण के लिए सरकार ऐसी नीतियां नहीं बनाती जिससे गौपालन बढ़े, लेकिन उपकर वसूलने में उसे कोई हिचक नहीं है। सब जानते हैं कि गायें शहरों में नहीं पाली जा सकतीं। गौशालाएं गायों के लिए नर्क के समान हैं। गायों को संरक्षित करने के लिए गौपालन को सामुदायिक स्वरूप दिया जाना चाहिए, लेकिन इस बारे में कोई सोचता नहीं।
गायों की उपयोगिता अब सीमित समय तक दूध के लिए और बाद में पूजा के लिए रह गयी है। बाद में वे सड़कों पर भटकने के लिए अभिशप्त हैं। गौवंश के उपयोग की अब कोई गुंजाइश नहीं रही। खेतों में हल चलते नहीं, माल ढोने की गाड़ियों से भी उन्हें बेदखल कर दिया गया है। मालगाड़ियों की जगह अब मशीनों ने ले ली है। कोल्हू अब चलते नहीं। ऐसे में सांडों का क्या किया जाये? इसका विचार गौसंरक्षण की किसी नीति में नहीं है। सड़कों से इस आवारा और अनुपयोगी गौवंश को हटाकर कहाँ ले जाया जाएगा, ये कोई बताने को राजी नहीं।
विसंगति ये है कि सरकारें एक तरफ गायों को बचाकर पुण्यलाभ अर्जित करना चाहती हैं और दूसरी तरफ उनके पास गौवंश की उपयोगिता की कोई योजना नहीं है। गौवंश के वध को सरकार भी पाप मानती है, इसलिए जबकि गौवंश की आबादी बढ़ रही है, वहीं दूसरी और वधशालाएँ प्रतिबंधित की जा रही हैं। बीते वर्षों में तो अनुपयोगी गौवंश को वधशालाओं में भेजने वाले व्यापारियों की हत्याएं तक की गयीं वो भी सरकारी संरक्षण प्राप्त संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा।
मध्यप्रदेश में गायों के नाम पर उपकर लगाए जाने की खबर से ही हलचल है। सरकार पहले से डीजल-पेट्रोल पर भारी भरकम कर वसूली कर रही है और अब ऊपर से गौ उपकर वसूलने की तैयारी की जा रही है। गौपालन को बढ़ावा देने के लिए मध्यप्रदेश की सरकार छत्तीसगढ़ सरकार की तरह गोबर खरीदने जैसी योजनाओं पर अमल करने के बजाय लूट के नए-नए रास्ते खोजने में लगी है। प्रदेश में गौ-केबिनेट बना दी गयी। इस कैबिनेट की पहली बैठक आगर-मालवा में होना थी, यहां प्रदेश का सबसे बड़ा गौ-अभ्यारण्य है, लेकिन यहां बड़े पैमाने पर गायों की अकाल मौत की खबर मिलते ही कैबिनेट ने यहां बैठक करने का साहस नहीं किया।
देश की धर्मप्रेमी भाजपा शासित राज्यों की सरकारें गायों के संरक्षण के लिए पूर्व में ‘शेर’ की जगह ‘ गाय’ को राष्ट्रीय पशु बनाने का अभियान चला चुकी हैं, गनीमत ये है कि अभी उन्हें इस अभियान में कामयाबी नहीं मिली है, लेकिन कब मिल जाये कोई कह नहीं सकता, क्योंकि देश का पंतप्रधान ही सन्यासी वेशभूषा में जगत के सामने है। आपको याद होगा कि आम चुनावों के समय भी पंतप्रधान और उनकी पार्टी ने गाय का सहारा लिया था और कांग्रेस सरकार की गुलाबी क्रांति की आलोचना करते हुए कहा था कि सरकार ही सबसे ज्यादा गौमांस निर्यात करती है। सवाल ये है कि आज भी दुनिया को 80 फीसदी गौमांस भारत की सरकार ही मुहैया करा रही है तो फिर गौपालन का ढोंग क्यों?
इतिहासकार मुकुल केशवन कहते हैं कि- ‘’यह इस तरह से है : मैं एक हिंदू हूं, गाय मेरी मां है और मैं उसे नहीं मारूंगा। यहां जो कुछ भी लागू किया जा रहा है वह नैतिकता या भावुकता या शिष्टता या अर्थशास्त्र नहीं है: यह काल्पनिक रिश्तेदारी का दावा है जो प्रभावी रूप से यह तर्क देता है कि सभी गाय हिंदू महिलाएं हैं।” यानि देश में ये पहली बार नहीं हो रहा कि गाय को राजनीति का हिस्सा बनाया जा रहा है।
इतिहास की खिड़की खोलकर देखें तो पता चलेगा कि भाजपा से बहुत पहले, पहला संगठित हिंदू गौ रक्षा आंदोलन पंजाब में एक सिख संप्रदाय द्वारा लगभग 1870 में शुरू किया गया था। 1882 में, हिंदू धार्मिक नेता दयानंद सरस्वती ने पहली गौ रक्षा समिति की स्थापना की। इतिहासकार डीएन झा कहते हैं, “इसने पशु को व्यापक लोगों की एकता का प्रतीक बना दिया, इसके वध की मुस्लिम प्रथा को चुनौती दी और 1880 और 1890 के दशक में गंभीर सांप्रदायिक दंगों की श्रृंखला को उकसाया।”
गौवंश को बचाने के लिए अब तक की गईं तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। मुझे याद आता है कि गोहत्या पर संघर्ष अक्सर धार्मिक दंगों को जन्म देता है जिसके कारण अकेले 1893 में 100 से अधिक लोग मारे गए थे। 1966 में, दिल्ली में संसद के बाहर दंगों में कम से कम आठ लोगों की मौत हो गई, जबकि गोहत्या पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने की मांग की गई। और 1979 में महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले आचार्य विनोबा भावे गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए भूख हड़ताल पर चले गए थे, लेकिन गायों को लेकर स्थितियां नहीं बदलीं।
भारत के सबसे श्रद्धेय नेता महात्मा गांधी भी गाय की पूजा करते थे। उन्होंने एक बार कहा था कि “हिंदू धर्म का केंद्रीय तथ्य गौ रक्षा है।‘’ आज, एक विडंबनापूर्ण मोड़ में, हिंदू कट्टरपंथियों ने गाय का अपहरण कर लिया है। हमारे यहाँ भी आज से तीन दशक पहले तक चार-पांच गायें रहती थीं, लेकिन अब एक भी नहीं है। हम फ़्लैट में गाय नहीं पाल सकते। गाय वहीं पाली जा सकती है जहां खेत-खलिहान हैं, खुली जगह है, चारा है।
गाय किसानों और दूधियों को पालने दीजिये, सरकार का काम गाय पालना नहीं है। सरकार गाय पाल भी नहीं सकती, हाँ गाय के नाम पर जनता को लूट जरूर सकती है। लव जिहाद और गौपालन जिस सरकार के लिए मुद्दा हों, उस सरकार का अभिनंदन करना चाहिए या निंदा कहना ठीक नहीं। तो आइये गाय बचाने के व्यावहारिक त्रिकोण पर विमर्श करते हुए प्रस्तावित गाय उपकर का अभी से विरोध करें।