क्या प्रेस की आजादी पर कोई सट्टा खेला जा सकता है?

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इसे संयोग कहूं या दुर्योग। मामला ही कुछ ऐसा है कि न निगलते बन रहा है न उगलते। दरअसल मैं चाहता था कि 3 मई यानी प्रेस आजादी दिवस पर कुछ लिखूं। इसी बीच वाट्सएप पर आए एक संदेश ने मेरी सारी प्‍लानिंग को उलट पुलट कर दिया। इस संदेश और इसके बाद के घटनाक्रम ने मुझे बुरी तरह उलझा दिया और इसीलिए मैंने कहा कि मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि इसे संयोग कहूं या दुर्योग। इसलिए यह जो है जैसा है उसी रूप में आपकी अदालत में पेश है।

किस्‍सा यह है कि मध्‍यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्‍जैन से प्रकाशित होने वाले एक सांध्‍यकालीन अखबार ‘शब्‍द सरोवर’ ने 2 मई को अपने यहां एक विज्ञापन प्रकाशित किया। आभार.. आभार… आभार… (कुल आठ बार) शीर्षक से प्रकाशित इस विज्ञापन में उज्‍जैन के नीलगंगा, महाकाल, जीवाजीगंज, भेरूगढ़,नानाखेड़ा, चिमनगंज और कोतवाली थानों का ‘’निर्विघ्‍न सट्टा संचालन’’ के लिए हृदय से आभार व्‍यक्‍त किया गया है। विज्ञापन में प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्‍ला, एडीजी वी. मधुकुमार और एसपी मनोहर वर्मा के फोटो भी छापे गए हैं। सबसे ज्‍यादा चौंकाने वाली बात यह है कि यह विज्ञापन उज्‍जैन सटोरिया संघ के सौजन्‍य से प्रकाशित हुआ बताया गया है।

जब ऐसा विज्ञापन छपा तो जाहिर है उस पर प्रतिक्रिया भी होनी ही थी। पुलिस ने तत्‍काल इसका संज्ञान लिया और अखबार के प्रकाशक घनश्‍याम पटेल और संपादक अभय तिरवार के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कर लिया। मैंने जब इस बारे में घनश्‍याम पटेल से बात की तो उनका कहना था- ‘’पीआरबी एक्‍ट के तहत अखबार में प्रकाशित सामग्री के चयन और उसके प्रकाशन के लिए संपादक जिम्‍मेदार होता है। इसका जिक्र भी अखबार में है। फिर अखबार मालिक के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज करना समझ से परे है।‘’

दूसरी बात जो घनश्‍याम पटेल ने बताई वो यह कि उन्‍होंने खुद भी यह विज्ञापन देखने के बाद इसे आपत्तिजनक पाया था। संपादक की कैफियत थी कि उज्‍जैन में जिस पैमाने पर सट्टा चल रहा है, उस पर ध्‍यान आकर्षित करने के लिए उन्‍होंने विषय को इस रूप में प्रकाशित किया। लेकिन पटेल के मुताबिक उन्‍होंने भी संपादक के इस तरीके को आपत्तिजनक पाया और उसे तत्‍काल हटा दिया। पटेल का यह भी कहना है कि इस तरह का प्रकाशन नहीं होना चाहिए था, यह प्रेस के अधिकार का दुरुपयोग और नैतिक आचरण का उल्‍लंघन है।

मैंने पटेल से जानना चाहा कि यह सामग्री किसी ने विज्ञापन के रूप में अखबार को दी थी या अखबार के संपादक ने स्‍वयं इसे विज्ञापन के रूप में बनाकर प्रकाशित कर दिया तो वे बोले कि ‘’इस बारे में मैंने संपादक से कोई पूछताछ नहीं की। मैंने माना कि गलत हुआ है तो मैंने कार्रवाई कर दी।‘’ वे बार बार इस बात पर जोर देते रहे कि ‘’लेकिन मुझ पर मामला क्‍यों दर्ज किया गया, मैं तो कहीं पिक्‍चर में था ही नहीं..’’

यह कॉलम लिखते समय मैं चाहता तो था कि वह विज्ञापन अपने पाठकों की जानकारी के लिए यहां प्रकाशित करूं, लेकिन चूंकि कानून ने उसे एक ‘आपराधिक और मानहानिकारक’ कृत्‍य माना है इसलिए मैं फिलहाल अपनी यह इच्‍छा पूरी नहीं कर रहा हूं, क्‍योंकि मैं मानता हूं कि प्रेस की आजादी का मतलब किसी की भी अवमानना या मानहानि का अधिकार प्राप्‍त हो जाना कतई नहीं है।

लेकिन इस मामले में मेरी दुविधा दूर नहीं हो पा रही। आपको यदि सोशल मीडिया या गूगल आदि पर वह विज्ञापन मिल जाए तो देखिएगा जरूर। आप भी पाएंगे कि उसमें व्‍यंग्‍य अथवा कटाक्ष का भाव ज्‍यादा दिखाई देता है। यह बात किसी के गले नहीं उतरेगी कि उज्‍जैन में कोई आधिकारिक सटोरिया संघ होगा और यदि होगा भी तो क्‍या वह इस तरह पुलिस के सबसे आला अधिकारियों के फोटू लगाकर और तमाम थानों के बाकायदा नाम देकर ‘’निर्विघ्‍न सट्टा संचालन’’ के लिए उनका हृदय से आभार व्‍यक्‍त करेगा?

निश्चित रूप से यह विज्ञापन कम और खबरिया अंदाज में किया गया ध्‍यानाकर्षण ज्‍यादा दिखाई देता है। लेकिन क्‍या इसके बावजूद किसी संपादक या मीडियाकर्मी को यह अधिकार है कि वह अपनी आजादी का इस तरह उपयोग (या दुरुपयोग) करते हुए अधिकारियों के फोटो के साथ इस बात को इस तरह प्रकाशित करे? इसी के समानांतर दूसरा सवाल यह है कि यदि यही बात विज्ञापन के बजाय खबर या व्‍यंग्‍य के रूप में प्रकाशित होती तो भी क्‍या अखबार के लोगों पर आपराधिक मुकदमा दर्ज होता?

मुझे लगता है प्रेस की जिस आजादी की बात हम करते हैं वह इन दोनों सवालों के बीच खिंची लक्ष्‍मण रेखा में ही कहीं मौजूद है। यदि इस लक्ष्‍मण रेखा को ध्‍यान में रखा जाए तो प्रेस की आजादी कितनी और कैसी होनी चाहिए यह सवाल भी बहुत कम उठेगा और ऐसे अवसर भी कम ही आएंगे जब पत्रकारों पर इस तरह के आपराधिक मामले दर्ज हों। चाहे मामला सट्टे का हो या और किसी अपराध का, पेशे की साख पर कोई ‘सट्टा’ नहीं खेला जाना चाहिए।

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