अनिल कर्मा
बड़ी बहस का मुद्दा इस समय यह है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) ने हमारी जिंदगी में चैटजीपीटी के रूप में जिस स्तर पर दस्तक दे दी है, उससे सब कुछ बदल तो नहीं जाएगा? छंटनी के इस दौर में भविष्य के लिए यह सवाल और गंभीर हुआ जा रहा है कि एआई के पूरी तरह आने के बाद कितनी नौकरियां मनुष्य के हिस्से में रह पाएंगी? क्या मेडिकल भी पूरी तरह रोबोटिक हो जाएगा? वकालत भी मशीनें कर लेंगी तो काले कोट वालों का क्या होगा? चैटजीपीटी ने लिखना सीख लिया है तो फिर कलम का क्या काम, कलमकार की क्या बखत?
डराने-डुबोने वाले इन सब सवालों के जवाब खोजने जाएंगे तो एक ही ‘तिनके’ का सहारा मिल पाता है कि चैटजीपीटी मनुष्य के विवेक और भावना की कभी बराबरी नहीं कर पाएगा। उस स्तर का तथ्यात्मक और विचारात्मक विश्लेषण नहीं कर पाएगा। वह एक बंधी-बंधाई प्रक्रिया अपनाएगा, फार्मूला-नुमा प्रतिक्रिया देगा और ‘फीलिंगलेस’ प्रतिफल। इस तरफ या उस तरफ। राइट या रांग। ब्लैक या व्हाइट। बीच का ‘ग्रे शेड एरिया’ गायब होगा, जो मनुष्य में तर्क-वितर्क, बहस, वाद-विवाद, थोड़ा मानने-थोड़ा मनाने, दो कदम आगे बढ़ जाने या एक कदम पीछे खींच लेने के लचीलेपन के साथ मौजूद रहता है और स्वीकार्यता या परित्याग के लब्बोलुआब के रूप में उलझनों को समाधान तक ले जाता है।
मगर इन दिनों जिस तरह से बे-मुद्दों ने मुद्दों की शक्ल अख्तियार करना शुरू किया है और उन पर जिस तरह से दो खेमों में बंटी हुई बंधी-बधाई, पहले से तय, ‘टारगेटेड’ और ‘रिजिड’ राय सामने आ रही है, उससे इस तिनके पर भी मनुष्य खुद ही संकट खड़े करता दिख रहा है। ईमानदार बहस या तार्किक विश्लेषण के लिए कहीं कोई जगह ही नहीं छोड़ी जा रही है। हम या तो चूल्हे से उतरती ऐसी गरम रोटी के हिमायती होते जा रहे हैं कि जिससे मुंह जल जाए या फिर दो दिन बासी रोटी को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हैं। दोनों सिरों पर अति। इन सबके बीच खाने योग्य ताजी रोटी ठगी-सी एक तरफ पड़ी रह जा रही है।
शख्सियत, सियासत और संप्रदाय के चश्मे लगाकर जिस तरह से बिना जिरह के ‘जजमेंट’ दिए जा रहे हैं, उससे सवाल यह खड़ा हो रहा है कि जिस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से हम डर रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि जाने-अनजाने खुद अपने अंदर उसी का बीज बोकर उसे खाद पानी दे रहे हैं। कुछ उदाहरणों से समझते हैं-
एक बाबा हैं। दरबार लगाते हैं। लोगों की पीड़ा सुनते हैं। दावा है कि सब कुछ उन्हें पहले से पता होता है। भीड़ जुटती है। स्वीकार करती है कि बाबा ने जो बताया सही बताया और उन्हें पीड़ा में आराम है। यहां तक की कहानी पहले भी कई बाबाओं की रही है। पंडोखर सरकार से लेकर रावतपुरा सरकार तक, करौली सरकार से लेकर शोभन सरकार तक, सियाराम बाबा से लेकर कंबल वाले बाबा तक।
एक बाबा तो मोटी फीस वसूलकर कचोरी, रबड़ी, रसगुल्ले खाने का कहकर समाधान बताते रहे हैं। लोगों का कहना रहा है कि उन्हें इसी से आराम लग गया। उन बाबा की हंसी तो उड़ी यदा-कदा, आरोप भी लगे कुछ, लेकिन ना कभी उन्हें महामानव बताया गया और ना कभी सार्वजनिक-सामूहिक विरोध उनके खिलाफ खड़ा हुआ। कारण कि वे यह तो कहते थे कि ‘कृपा बरसेगी’ पर ‘कहां से’ बरसेगी, इस झमेले में कभी नहीं पड़े। उन पर किस का इष्ट है या वे सनातनी है या सूफियाना, इससे भी वे परे ही रहे। लंबे समय उनकी दुकान चलती रही।
पर इन सबसे अलग इस वाले बाबा ने जैसे ही सनातन धर्म का राग छेड़ा और ताली ठोक कर ‘जय राम’ कहना शुरू किया, बालाजी को अपना इष्ट बताया और धर्मांतरण पर उंगली उठाई, वैसे ही वे ‘पार्टी’ हो गए। एक पक्ष को उनमें चमत्कारी तत्व नजर आने लगे। साक्षात भगवान जैसे। स्वयं बालाजी का अवतार। मंदिर में स्थापित करने योग्य। जिन बातों से यह पक्ष इतना प्रभावित रहा, उन्हीं बातों ने दूसरे पक्ष को इस हद तक विचलित किया कि बाबा में उन्हें तुरंत अंधविश्वास फैलाने वाला धूर्त, दानव, दुष्ट, जादूगर, जोकर दिखने लगा। जेल भेजने तक की तैयारी की जाने लगी। इन सबके बीच और इन सबके चलते बाबा तो खूब चल पड़े लेकिन एक बाबा को महज बाबा के रूप में या फकत मानव के रूप में देखने-सुनने-समझने और परखने की प्रक्रिया रुक गई।
भीड़ के ‘भरोसे’ के पीछे का कोई तार्किक तार हाथ लगने की संभावना क्षीण हो गई। योग, कला, विज्ञान, अध्यात्म सबको चमत्कार या अंधविश्वास की दीवारों में चुनवा दिया गया। यही एआई करता है। आप कंप्यूटर में सेक्स की सर्च को ‘ब्लाक’ कर दीजिए तो वह सेंसेक्स बताने से भी इंकार कर देगा। उसकी समझ इतनी ही है। खैर..। एक फिल्म है। उसके एक ऊल-जुलूल से गाने के दो सेकंड के दृश्य को लेकर ऐसा कोहराम मचा कि तमाम मुद्दे एक तरफ और यह अकेला दूसरी तरफ। विरोध, धमकी, बायकॉट। कारण, संप्रदाय विशेष और सोच विशेष के लोगों ने अभिनेत्री के अंतः वस्त्रों में अपना प्रतीक रंग देख लिया था। यह ‘बेशर्मी’ उन्हें रास नहीं आई। दूसरा, फिल्म के नायक का चेहरा एक विशेष पहचान रखता है। हम फिर बंट गए।
किसी को नाम मात्र के कपड़े पहने वह अभिनेत्री स्वतंत्र सोच और सौंदर्य की नाचती-गाती मूर्ति लगी और इस फिल्म को देखना राष्ट्र धर्म निभाने जैसी साधना। इन सब ने मिलकर गाने को और फिल्म को ऐसी फ्री पब्लिसिटी दी कि औसत दर्जे की फिल्म सुपरहिट हो गई। अब फिल्म की कमाई के आंकड़ों पर फिर तनातनी है। एक पक्ष इसे फर्जी, प्रायोजित, मैनेज्ड, मैनिपुलेटेड करार देने पर तुला है तो दूसरा पक्ष इसे ऐसे पेश कर रहा है जैसे यही किसी फिल्म की श्रेष्ठता का एकमात्र पैमाना हो। इन सबके बीच फिल्म की असल समीक्षा बेमानी हो चली है और साउथ से मिल रहे ‘असल और मौलिक कंटेंट’ के चैलेंज की कसौटी पर इसे कसे जाने का मौका भी हाथ से निकल रहा है।
यहां कुल मिलाकर जांचने वाली बात यह है कि समझ और विचारधारा के स्तर पर लगातार विकास के बावजूद कुछ बिंदुओं पर हम कहीं इतने निष्ठुर तो नहीं होते जा रहे हैं कि दूसरे के विचारों के लिए कोई सम्मान, सहिष्णुता या उदारता शेष ही नहीं रह जा रही? कहीं हम ब्लैक और व्हाइट के बीच के हमारे उस ‘ग्रे एरिया’ को समय रहते सजग, सहज और समग्र बनाने में पिछड़ते तो नहीं जा रहे हैं? अगर इन सबके जवाब ‘हां’ में हैं तो बड़ा खतरा यह है कि कहीं हम मनुष्य होने की थाती तो नहीं खो देंगे? इसके दुष्परिणाम, जो दिखने भी लगे हैं, यह होंगे कि कोई सामान्य यकायक शिखर हो जाएगा या फिर कोई शिखर शून्य।
क्योंकि एआई में शिखर और शून्य ही सुपरिभाषित है। सामान्य का गिरकर शून्य होना या उसका शिखर तक उत्थान होना, यह लंबी प्रक्रिया है जो उस खाली जगह की दरकार रखती है जिसको छोड़ना हम भूल जा रहे हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के हल्ले के बीच हमें याद यह रखना होगा कि उसका हमारे जीवन में आना उतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा उसका हमारे अंदर उग आना है। टटोलिए, कहीं हमारी अपनी इंटेलिजेंस ‘आर्टिफिशियल’ तो नहीं हो चली है? आपकी क्या राय है?
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)
(मध्यमत)
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