अजय बोकिल
चाहें तो इसे चलते मैच के दौरान लगने वाला अटकलों का दांव भी कह लें। तीनों विवादित कृषि कानूनों पर रोक लगाकर सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश जरूर की है, लेकिन इसी के समांतर इस आदेश के राजनीतिक हानि-लाभ, किसान आंदोलन के वर्तमान और भविष्य तथा इसके दूरगामी परिणामों पर भी गंभीरता से विचार हो रहा है। यूं अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने कृषि कानूनों पर जारी विवाद का हल न निकाल पाने के लिए केन्द्र सरकार को फटकार जरूर लगाई है, लेकिन इस पेचीदा मसले को सुलझाने के लिए चार सदस्यीय कमेटी गठित किए जाने से किसान आंदोलन से परेशान सरकार ने भीतर से राहत ही महसूस की है।
दूसरी तरफ तीनों कृषि कानूनों को हर हाल में वापस लेने की मांग पर अड़े आंदोलनरत किसान और उनके नेताओं के सामने दुविधा की स्थिति पैदा हो गई है। अपनी पहली प्रतिक्रिया में किसान नेताओं ने कहा कि वो कमेटी के सामने नहीं जाएंगे और आंदोलन जारी रखेंगे। उनके इस रवैए पर भी सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी की है। आंदोलनकारी किसानों और उनके नेताओं की दिक्कत यह है कि उन्होंने शुरू से ही मांग का अतिवादी सिरा पकड़ा हुआ है।
कृषि कानूनों को लेकर कई संदेह और आशंकाए हैं, इसमें दो राय नहीं, लेकिन किसान नेताओं ने आंदोलन को जो हाइप दे दी है, उससे पीछे हटना भी उनके लिए बहुत मुश्किल है। क्योंकि चर्चा की टेबल पर वो अगर एक कदम भी पीछे हटे तो उन्हें अपने ही साथियों के आक्रोश का शिकार होना पड़ेगा। यदि मांग पर कायम रहते हुए आंदोलन चलाते रहते हैं तो आम लोगों की सहानुभूति वो खो सकते हैं। और लंबे समय तक खिंचे आंदोलन के बाद भी कुछ ठोस हाथ नहीं आया तो समर्थक किसानों में भारी नाराजी पैदा हो सकती है। अमूमन ऐसे आंदोलन ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ के फार्मूले पर चलते हैं। एक मांग मनवा लेने के बाद दूसरी मांग पूरी करवाने के लिए नया ब्रह्मास्त्र निकाला जाता है।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के बीच कोई समझौता न होते देख खुद चार सदस्यीय टीम का गठन कर दिया है। यह समिति सम्बन्धित पक्षों से चर्चा कर अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को सौंपेगी। उसके बाद कोर्ट कृषि कानूनों को लेकर अंतिम फैसला देगा। कमेटी में जिन चार लोगों, भूपेंद्र सिंह मान, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी, अशोक गुलाटी और अनिल घनवंत को शामिल किया गया है, उनके बारे में कहा जा रहा है कि ये सभी मोटे तौर पर नए कृषि कानूनों के समर्थक हैं। इनमें से भूपिंदर सिंह मान तथा अनिल घनवंत किसान नेता हैं, जबकि दो प्रमोद जोशी और अशोक गुलाटी कृषि विशेषज्ञ हैं। कमेटी से दो माह तक रिपोर्ट देने के लिए कहा गया है। कोर्ट ने कमेटी को निर्देशित किया है कि वह दस दिन के अंदर लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू करे।
इस पूरे घटनाक्रम में सरकार के लिए सबसे बड़ी राहत यह है कि कृषि कानूनों की वापसी का दबाव दो माह के लिए तो टल ही गया है। किसान आंदोलन से परेशान सरकार वैसे भी चाहती थी कि यह यदि मामला अदालत में चला जाए तो उसे यह कहने का मौका मिले कि हम क्या करें, मामला कोर्ट में है। इस पूरी कवायद के बाद यदि कमेटी की रिपोर्ट कृषि कानूनों के खिलाफ (जिसकी संभावना बहुत कम है) आती है और सरकार कृषि कानून वापस लेने पर बाध्य होती है तो वह यह कहकर चेहरा बचाने की कोशिश करेगी कि हम तो नहीं चाहते थे, लेकिन अदालत के आदेश पर ऐसा करना पड़ रहा है।
यदि रिपोर्ट कुछ संशोधनों के साथ कृषि कानूनों के पक्ष में आती है तो भी सरकार की जीत ही होगी। क्योंकि कुछ संशोधनों के लिए वो अब भी तैयार है। कोर्ट के आदेश से मुश्किल आंदोलनकारियों की बढ़ी है। इस पूरे आंदोलन को लेकर जो एक उत्साह और जिद बनी थी, नई स्थिति में उसमें विघ्न आ सकता है। आंदोलनकारी किसान गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को अपनी ताकत और एकजुटता दिखाने ट्रैक्टर रैली निकालने वाले थे, वो अब कैसे निकलेगी, यह देखने की बात है।
कोर्ट के आदेश के बाद यदि किसान नेता कमेटी के सामने नहीं जाते हैं तो भी सरकार राहत ही महसूस करेगी। उसे यह कहने का मौका मिल जाएगा कि किसान सर्वोच्च अदालत की बात भी नहीं मान रहे तो फिर किस की मानेंगे? किसान अगर कमेटी के सामने जाते हैं और कृषि कानूनों को पूरी तरह वापस लेने की बात करते हैं तो कमेटी उनकी बात को किस तरह से लेगी या रिपोर्ट में शामिल करेगी, इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर कड़ाके की ठंड में बीते 48 दिनों से जारी इस किसान आंदोलन के प्रति आम लोगों में सहानुभूति बढ़ी है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहर इसके समर्थन का दायरा भी बढ़ा है, लेकिन वह इतना व्यापक भी नहीं हुआ है कि पूरे देश भर के किसान कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली को घेर लें। अभी भी प्रमुख रूप से इन तीन राज्यों को छोड़ दें तो देश के बाकी राज्यों के किसानों की आंदोलन में भागीदारी ज्यादा नहीं है, भले उनका नैतिक समर्थन हो। उधर भाजपा सरकारें लगातार यह कह रही हैं कि कृषि कानून अंतत: किसानों के हित में हैं। उन्हें इनके खिलाफ बरगलाया जा रहा है। हालांकि इन कानूनों से किसानों का हित कैसे सधेगा, इसकी ठीक से व्याख्या वो भी नहीं कर पा रहे हैं।
एक बात साफ है कि कृषि कानून किसानों के वास्तव में हित में हैं या नहीं, या ये केवल कॉरपोरेट के दबाव में लाए गए हैं, इनका उद्देश्य किसानों से ज्यादा चंद कारोबारियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियो का भला करना है अथवा किसानों की माली हालत सुधारना है? कृषि उपज मंडियां खत्म होने तथा एमएसपी की लिखित गारंटी न देने से असली लाभ किसको होना है? यह लूट का कानून है या छूट का? ये कानून किसान को मालामाल कर देंगे या फिर उनके कपड़े भी उतरवा लेंगे, इन सवालों का सही जवाब तभी मिलेगा, जब ये कानून व्यवहार में आएंगे।
अगर इन कानूनों से किसान के अस्तित्व और उसकी जमीनों पर ही आंच आएगी तो यकीन मानिए कि पूरे देश का किसान इनके खिलाफ सड़कों पर उतर आएगा और मोदी सरकार को सिर छुपाने के लिए जगह नहीं मिलेगी। लेकिन यदि इन कानूनों को लेकर व्याप्त भय व्यावहारिक कम और काल्पनिक ज्यादा है तो यह आंदोलन भी धीरे-धीरे साख खो देगा। यूं कहने को सरकार किसानों के साथ 15 जनवरी को फिर बात करने वाली है, लेकिन नई परिस्थिति में इस वार्ता का कोई खास मतलब नहीं है। सरकार की रणनीति भी यही लगती है कि वह इस आंदोलन को थका देना चाहती है।
उधर ज्यादातर विपक्षी राजनीतिक दल इस आंदोलन में हिस्सेदारी के सियासी नफे-नुकसान की गणितबाजी में ही लगे हैं। हालांकि किसान भी उन्हें अपने आंदोलन में घुसने नहीं दे रहे हैं, लेकिन ये स्थिति भी बहुत लंबे समय तक शायद ही चल पाए। जहां इस आंदोलन ने स्पष्ट राजनीतिक रंग दिखाना शुरू किया, वहीं सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा का प्रचार तंत्र आंदोलन की हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।
इतना तय है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से देश में डेढ़ महीने से सुलग रहे किसान आंदोलन में एक ‘इंटरवल’ आ गया है। इस आशंका और जिज्ञासा के साथ कि अब क्या होगा? किसान और उसकी चिंता को देश की केन्द्रीय चिंता में तब्दील करने की यह कोशिश कितनी कामयाब होगी? किसान हठ और राजहठ का ऊंट किस करवट पर बैठेगा? हम नया इतिहास लिखने जा रहे हैं या पिछला इतिहास दोहराने जा रहे हैं? इस फिल्म का ‘दि एंड’ क्या होगा?