जिस समय देश में राम मंदिर निर्माण से लेकर महाराष्ट्र में सरकार गठन की और जेएनयू में फीस बढ़ोतरी से लेकर कश्मीर में ‘लोकतंत्र’ वापसी जैसी खबरें चल रही हों उस समय विकास और आर्थिकी से जुड़ी खबरों को उठाना एक तरह से अपराध ही माना जाएगा, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि खबरों की खौफनाक आतिशबाजी वाले इस समय में कभी कभार कोई फुस्सी बम चलाने की कोशिश भी करते रहना चाहिए।
और वह फुस्सी बम जैसी खबर यह है कि देश में बिजली की खपत में गिरावट आ गई है। वैसे जिस समय चारों तरफ चकाचौंध का आभास तारी हो वहां बिजली की खपत में गिरावट की बात पर अव्वल तो कोई यकीन नहीं करेगा और यकीन कर भी लिया तो इसे भी किसी न किसी के ‘पुण्य प्रताप’ का फल मान लिया जाएगा।
पर यकीन मानिए बात इतनी सीधी, सरल और हंसी ठट्ठे में उड़ा देनी वाली नहीं है। बिजली हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। इसकी जरूरत न सिर्फ घरों में है बल्कि यह खेती से लेकर उद्योग तक की गतिविधियों को संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। ऐसे में यदि रिपोर्ट यह आ रही हो कि देश में बिजली खर्च नहीं हो रही या बिजली खर्च करने में कमी हो रही है तो चिंता होना स्वाभाविक है।
बिजली की खपत का कम होना खासतौर से देश के उद्योग धंधों के बीमार होने की निशानी है। बिजली उद्योग धंधों का मुख्य भोजन है और इससे ही उनके शरीर को संचालित होने की वह ऊर्जा मिलती है जो कल-कारखानों में उत्पादन की धुरी है। यदि बिजली की खपत नहीं हो रही तो इसका मतलब यह है कि कारखानों में या तो उत्पादन बंद हो गया है या फिर उसमें भारी कमी आई है। और उत्पादन नहीं हो रहा तो उसका सीधा संबंध बाजार से है। क्योंकि बाजार में यदि उठाव नहीं होगा तो उत्पादन करके चीजों को पटक कर रखने का जोखिम कोई क्यों उठाना चाहेगा।
इस स्थिति का देश की अर्थ व्यवस्था पर तो असर पड़ता ही है, सबसे ज्यादा असर उन लोगों पर पड़ता है जो इन कारखानों में काम करते हैं। उत्पादन नहीं हो रहा या ठंडा पड़ा है तो लोगों को काम पर रखने की जरूरत भी क्या है। और इसी सोच के चलते बड़ी संख्या में लोगों की छंटनी कर दी जाती है। यानी बिजली की खपत में कमी आने का एक परिणाम देश में बेरोजगारी की बढ़ोतरी के रूप में दिखाई दे रहा है।
औद्योगिक क्षेत्र से आने वाली रिपोर्ट कहती हैं कि अक्टूबर माह में, पिछले साल की तुलना में बिजली की खपत मे 13.2 फीसदी की कमी आई है जो पिछले 12 सालों में किसी एक महीने में आई सबसे अधिक गिरावट है। नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फायनेंस एंड पॉलिसी के प्रोफेसर एन.आर. भानुमूर्ति के मुताबिक ऐसा लगता है कि मंदी की जड़ें और भी ज्यादा गहरी हैं,खास तौर से औद्योगिक क्षेत्र में। इसके चलते चालू वित्त वर्ष में विकास की संभावनाओं पर आशंकाओं के बादल और गहरे हो जाते हैं।
खबरें कहती हैं कि महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे भारी उद्योगों वाले राज्यों में बिजली की खपत का कम होना चिंताजनक है। इस कमी का एक प्रमुख कारण ऑटोमोबाइल सेक्टर की हालत का खस्ता होना है। इस उद्योग में बिजली की भारी खपत होती है और चूंकि मंदी के चलते वाहनों की बिक्री में लगातार कमी आ रही है इसलिए कंपनियों ने अपने उत्पादन को भी घटा दिया है।
मसला केवल ऑटोमोबाइल कंपनियों का ही नहीं है। इसी महीने के शुरुआत में बीबीसी की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश की अर्थव्यवस्था के छह बुनियादी क्षेत्रों में ज़बरदस्त गिरावट देखी गई है। यह गिरावट पिछले 14 वर्षों की सबसे बड़ी गिरावट बताई जा रही है। गिरावट का असर जिन क्षेत्रों पर पड़ा है वे हैं- कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफ़ाइनरी उत्पाद, स्टील, सीमेंट और बिजली।
वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के हवाले से बताया गया था कि इस साल सितंबर माह में पिछले साल की तुलना में इन क्षेत्रों में 5.2 फ़ीसदी की गिरावट आई। जबकि पिछले साल सितंबर में इन्हीं क्षेत्रों में 4.3 फ़ीसदी की बढ़ोतरी देखी गई थी। इनमें भी सबसे अधिक गिरावट कोयला क्षेत्र में आई है।
कोयला क्षेत्र में 20.5 फ़ीसदी की गिरावट हुई है। इसके बाद रिफ़ाइनरी उद्योग में 6.7 प्रतिशत, कच्चे तेल में 5.4 प्रतिशत, प्राकृतिक गैस में 4.9, बिजली में 3.7, सीमेंट में 2.1 और स्टील में 0.3 प्रतिशत की गिरावट सितंबर महीने में दर्ज की गई। सिर्फ खाद का क्षेत्र ही ऐसा रहा जिसमें कुछ बढ़ोतरी हुई और उसका कारण भी इस बार हुए अच्छे मानसून के चलते खेती की गतिविधियों में तेजी को माना जा रहा है।
सीमेंट और स्टील सेक्टर में गिरावट का साफ मतलब है कि निर्माण क्षेत्र में कोई उत्साह नहीं है, बल्कि वहां गतिविधियां लगातार कम होती जा रही हैं। रियलस्टेट सीमेंट और स्टील का बहुत बड़ा ग्राहक है लेकिन उसकी कमर टूटी पड़ी है। हाल ही में सरकार ने इस क्षेत्र के लिए विशेष पैकेज का ऐलान किया है जिससे इसमें थोड़ी जान आने की संभावना बनी है।
आपको याद होगा कि विधानसभा चुनाव के बाद मध्यप्रदेश में नई सरकार को सबसे ज्यादा आलोचना बिजली कटौती को लेकर ही झेलनी पड़ी थी। लगातार होने वाली कटौती या बिजली की निरंतर आपूर्ति में आने वाली बाधाओं को सरकार की अक्षमता माना जाने लगा था। नौबत यहां तक आ गई थी कि खुद सरकार ने इसे लेकर बिजली विभाग के अमले पर ही साजिश करने का आरोप लगा दिया था।
पर अब इसी प्रदेश में रिपोर्ट्स आ रही हैं कि बिजली की खपत में गिरावट आई है। पिछले माह ही यह खबर आई थी कि ‘’मध्य प्रदेश के अधिकांश बिजली संयंत्रों में उत्पादन ठप हो गया है। सिंगाजी संयंत्र में उत्पादन पूरी तरह बंद है। संजय गांधी संयंत्र की इकाइयां बंद पड़ी हैं। यही स्थिति बाकी संयंत्रों की है।‘’
इस संबंध में ऊर्जा विभाग के सूत्रों का कहना था कि ‘’मध्य प्रदेश में बिजली की मांग न होने के कारण कोयला संयंत्रों को बंद किया गया है। नवरात्र से लेकर दशहरे पर भी प्रदेश में बिजली की मांग पिछले साल की तुलना में तीन से पांच करोड़ यूनिट कम रही। दशहरे पर पिछले साल 22 करोड़ 20 लाख 71 हजार यूनिट की सप्लाई की गई थी, जो इस साल घटकर 17 करोड़ 8 लाख 67 हजार यूनिट ही रही।‘’
कहने को यह सिर्फ बिजली की खपत में कमी का मामला लग सकता है लेकिन इसकी मार बहुत दूर तक है। इसे हमारी पूरी अर्थव्यवस्था की ऊर्जा में कमी के तौर पर देखा जाना चाहिए।