राकेश दुबे
कितना अजीब है, जिस देश में वर्ष 1970 के दशक में हुई श्वेत क्रांति के बाद से ही देश में डेरी क्षेत्र में मजबूत और ऊंची वृद्धि देखने को मिलती रही है, वहां अब दूध के भाव अंधाधुंध तरीके से बढ़ रहे हैं। देश में दूध का उत्पादन अब मुश्किल दौर से गुजरता नजर आ रहा है। यह मुश्किल पशु आहार तथा चारे की कम आपूर्ति एवं ऊंची लागत की वजह से पैदा हुई हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और प्रदेशों में कई बड़ी दुग्ध सहकारी समितियों तथा निजी डेरी कंपनियों द्वारा इस वर्ष दूध की कीमतों में कई बार की गई मूल्य वृद्धि, इस संकट के और बढने का स्पष्ट संकेत दे रही है।
इससे बड़ी और बुरी बात यह है कि यह बढ़ोतरी मानसून सीजन के बाद हो रही है जब दूध की आपूर्ति बहुत अधिक होती है और डेरी कंपनियां दूध पाउडर, मक्खन तथा अन्य दुग्ध उत्पादों का भंडार तैयार करती हैं ताकि दूध की कमी वाले महीनों में इनका इस्तेमाल किया जा सके। अनुमान है कि इस वर्ष पशु आहार की कीमतों में 28 प्रतिशत की असाधारण वृद्धि दर्ज की गई है। इसके कारण थोक मूल्य आधारित पशु आहार मुद्रास्फीति 2013 के बाद के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई।
यही वजह है कि डेरी कंपनियों की दूध खरीद की लागत में 24 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की बात कही जा रही है। अत्यधिक गरमी तथा जलवायु परिवर्तन के कारण पशु आहार में काम आने वाली फसलों के उत्पादन पर पड़ने वाले असर ने भी कीमतों में इस बढ़ोतरी पर असर डाला है। यह भी एक कारण है कि किसान अपने पशुओं को पर्याप्त पोषण नहीं दे पा रहे हैं और उनकी दूध देने की क्षमता प्रभावित हुई है। डेरी विशेषज्ञ भी इस आशंका से इनकार नहीं कर रहे हैं कि आने वाले महीनों में हालात और खराब हो सकते हैं, दूध की कीमतें आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाएगी। इसके स्पष्ट आसार दिख रहे हैं।
पहले तो खास तौर पर गर्मियों के दिनों में ऐसा देखने को मिलता था। झांसी स्थित भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान के अनुमानों के मुताबिक हरे चारे, सूखे चारे और अनाज से बनने वाले पशु आहार की कीमतों में क्रमश: 12 प्रतिशत, 23 प्रतिशत और 30 प्रतिशत का इजाफा हो सकता है, जिसके आसार साफ दिख रहे हैं। इसके बावजूद सरकार चारे की कमी और डेरी उत्पादों के उत्पादन में संभावित गिरावट के इस गंभीर संकट को स्वीकार करने की इच्छुक नहीं दिख रही है। वह इस बात को भी स्वीकार नहीं कर रही कि दूध कीमतों में इजाफा चारे की ऊंची कीमतों की वजह से हो रहा है।
डेयरी किसानों और दूध उद्योग की वर्तमान चिंताओं की मूल वजह है चारा क्षेत्र की अनदेखी करना। छोटे और सीमांत किसान तथा भूमिहीन ग्रामीण आमतौर पर जिन प्राकृतिक चरागाह और मैदानों का इस्तेमाल अपने पशुओं को चराने के लिए करते थे, वे अतिक्रमण के कारण या तो गायब हो चुके हैं या उनका आकार बहुत छोटा हो चुका है। उचित देखभाल ना होने के कारण उनकी हरियाली में भी कमी आई है।
इसके अलावा खराब गुणवत्ता वाले गेहूं, मक्का तथा अन्य अनाज जो पहले पशुओं को खिलाए जाते थे, अब उनका इस्तेमाल एथनॉल, तथा अन्य उत्पाद बनाने में हो रहा है। सरकार की इस बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं हैं। दशकों से कृषि क्षेत्र से उत्पन्न चारे का रकबा कुल कृषि भूमि के चार प्रतिशत पर अटका हुआ है। जबकि इसी बीच पशुओं की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है।
इतना ही नहीं पारंपरिक लंबी फसलों के बजाए अधिक उत्पादन वाली फसलों का इस्तेमाल किए जाने से पशुओं के लिए फसल अवशेष रूपी चारे में कमी आ रही है। आज जरूरत इस बात की है कि ऐसी नीति का निर्माण हो जो चरागाहों के समुचित प्रबंधन के रास्ते सुझाये। खेती और उद्यानिकी में पशुओं के चारे का ध्यान रखने की व्यवस्था विकसित की जाए।
इसके साथ ही उस भुला दी गई परंपरा को भी पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है जिसके तहत मॉनसून के मौसम में मिलने वाली अतिरिक्त हरी घास को सुखा कर बाद में इस्तेमाल के लिए चारे का भंडार इकट्ठा किया जाता रहा है। अगर चारे और पशु आहार की स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित नहीं होती है तो दूध उत्पादन में हासिल हमारी बढ़त तो पिछडेगी ही, दूध जैसे अनिवार्य पोषण के महत्व को कायम रखना भी मुश्किल होगा।
(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता, सटीकता व तथ्यात्मकता के लिए लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए मध्यमत किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है। यदि लेख पर आपके कोई विचार हों या आपको आपत्ति हो तो हमें जरूर लिखें।-संपादक