राकेश दुबे

चलती संसद का मूड बदलने के लिए, ताजा चुनावी नतीजे काफी हैं। गुजरात, हिमाचल विधानसभा के साथ दिल्ली (एम.सी.डी) के नतीजों से जो संकेत निकला है, वह सत्र में महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण जैसे विषय की धार को और तेज़ करेगा। यह तो सर्वविदित है कि विपक्ष कतिपय राजनीतिक घटनाओं से उत्साहित एवं आक्रामक है। अभी तक तो दोनों पक्ष चुनाव और उसके नतीजों के इंतजार में व्यस्त थे। अब बुलन्द हौसलों के साथ 29 दिसम्बर तक चलने वाले इस सत्र में हर दिन विपक्ष जहां, ज्वलंत मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करेगा, वहीँ सत्तापक्ष से इन विषयों पर उठे प्रश्नों का उत्तर पाने की जनअपेक्षा और बढ़ गई है।

वस्तुत: विपक्ष को संसद में यह आभास कराना चाहिए कि उसका उद्देश्य अपने सवालों के जवाब पाना है, न कि हंगामा कर सदन की कार्यवाही ठप करना। सत्तापक्ष को इसके लिए भी तत्पर रहना चाहिए कि संसद के इस सत्र में प्रस्तावित विधेयक पारित हों। ये विधेयक व्यापक विचार-विमर्श के साथ पारित होने चाहिए। जब कभी आवश्यक विधेयक संसद में अटके रह जाते हैं तो इससे कुल मिलाकर देश को नुकसान होता है।

संसद में राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए, ताकि देश को कोई दिशा मिल सके, विकास के कार्यों को गति मिल सके, लेकिन इसके स्थान पर आरोप-प्रत्यारोप अधिक होना दुर्भाग्यपूर्ण है। कई बार तो इसे लेकर गतिरोध कायम हो जाता है जो संसद के अमूल्य समय की बर्बादी है। मौजूदा माहौल में सरकार के लिए चर्चा से इनकार करना मुश्किल होगा, लेकिन विपक्ष को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि अधिक आक्रामक रुख अख्तियार कर वह संसद की कार्यवाही को बाधित करने तक सीमित न रह जाए। ऐसा होने से लोकतंत्र की मूल भावना पर आघात होता है।

वर्तमान माहौल में विपक्ष के तेवरों को देखते हुए यही प्रतीत हो रहा है कि वह दोनों सदनों में सरकार की घेराबंदी के किसी मौके को नहीं छोड़ना चाहेगा, ऐसी स्थितियां बनना देशहित में नहीं है। विरोध या आक्रामकता यदि देशहित के लिये, ज्वलंत मुद्दों पर एवं समस्याओं के समाधान के लिये हो तभी लाभदायी है। लोकमान्य तिलक ने कहा भी है कि-‘मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट कार्य के लिये सारे पक्षों का एक हो जाना जिंदा राष्ट्र का लक्षण है।’

राजनीति के क्षेत्र में आज सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है- विपक्षी दलों का सत्तापक्ष के प्रति विरोध या आक्षेप-प्रत्याक्षेप करना। सत्ता पक्ष को कमजोर करने के लिये संसदीय कार्रवाई को बाधित करना और तिल का ताड़ बनाने जैसी स्थितियों से देश का वातावरण दूषित, विषाक्त और भ्रान्त बनाना।

आज अपेक्षा है देश की संसद निरपेक्ष भाव एवं सकारात्मक ढंग से राष्ट्रीय परिस्थितियों का जायजा लेते हुए लोगों को राहत प्रदान करने के प्रावधानों पर चिन्तन-मंथन के लिये संचालित हो। याद रखिये, संसद केवल विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच वाद-विवाद का स्थल नहीं होती है बल्कि जन हित में फैसले करने का सबसे बड़ा मंच होती है। इसके माध्यम से ही सत्तारुढ़ सरकार की जवाबदेही और जिम्मेदारी तय होती है और जरूरत पड़ने पर जवाबतलबी भी होती है।

परन्तु हकीकत यह है कि सत्ता और विपक्ष की संकीर्णता एवं राजनीतिक स्वार्थ देश के इस सर्वोपरि लोकतांत्रिक मंच को लाचार बना देता हैं, जो देश की 130 करोड़ जनता की लाचारी बन जाते हैं। अच्छा यह होगा कि देश के राजनीतिक दल उन देशों की संसद में होने वाली कार्यवाही को अपना आदर्श बनाएं, जहां प्रत्येक विषय पर धीर-गंभीर एवं सार्थक बहस होती है। आखिर भारत में अमेरिका और ब्रिटेन की संसद की तरह से बहस क्यों नहीं हो सकती? संसद में होने वाली बहस के गिरते स्तर के चलते उसकी गरिमा में गिरावट आ रही है और आम जनता अब संसदीय कार्यवाही को लेकर उत्साहित नहीं होती।

29 दिसम्बर तक चलने वाले सत्र के दौरान सरकार की तरफ से 16 विधेयक पेश करने की योजना बनाई गई है। यदि विपक्ष हंगामा करने को अपना मकसद नहीं बनाता है और सत्तापक्ष उसकी ओर से उठाए गए मुद्दों को सुनने के लिए तत्पर रहता है तो संसद का यह शीतकालीन सत्र एक कामकाजी सत्र का उदाहरण बन सकता है। संसद में केवल ज्वलंत मसलों पर उपयोगी चर्चा ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि विधायी कामकाज भी सुचारू रूप से होना चाहिए।

संसद राज्यों की सरंक्षक एवं मार्गदर्शक भी है और जब हम भारत के विभिन्न राज्यों की तरफ नजर दौड़ाते हैं तो सर्वत्र बेचैनी, समस्याओं एवं अफरातफरी का आलम देखने को मिलता है। हर बार की तरह इस बार संसद के भीतर बिखरे विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें हो रही हैं। यह एकजुटता अच्छी बात है, लेकिन इसकी सकारात्मकता भी जरूरी है। होना तो यह चाहिए,विपक्ष आक्रामक रहकर भले ही अपनी राजनीतिक बढ़त बनाने की कोशिश करे, लेकिन इसके बावजूद वह विधायी कार्य में कोई अड़ंगा न डाले।

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