अजय बोकिल

भारतवंशी ऋषि सुनक का, कभी भारत सहित आधी दुनिया पर राज करने वाले ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने पर दो नरेटिव चलाए जा रहे हैं। दोनों ही अतिवादी हैं और काल्पनिक एजेंडा ज्यादा हैं। पहला तो यह कि ऋषि सुनक का ब्रिटेन का पीएम बनना प्रकारांतर से हिंदुत्व की जीत और हिंदू प्रतिभा का वैश्विक स्वीकार है और दूसरा यह कि ऋषि को प्रधानमंत्री बनाना ब्रिटेन की उदारवादी सोच का सबसे सुंदर और अनुकरणीय फैसला है।

हालांकि इसका अंतिम परिणाम क्या होगा और क्या सचमुच ब्रिटिश समाज पूरी तरह से बदल गया है, इस बारे में कोई भी निष्कर्ष निकालकर भारतीय समाज पर उसे अप्लाई करना अनावश्यक जल्दबाजी होगी। बेशक ऋषि अपने हिंदू धर्म में गहरी आस्था रखते हैं और उसके सार्वजनिक इजहार में संकोच नहीं करते, लेकिन वो सौ फीसदी ब्रिटिश नागरिक हैं और अगर कभी उन्हें ब्रिटेन और भारत या फिर अपनी धार्मिक आस्था एवं राष्ट्रीय कर्तव्य में से किसी एक चुनना पड़ा तो वो यकीनन ब्रिटेन और उसके हितों को वरीयता देंगे। राष्ट्रभक्त होने के नाते उन्हें ऐसा ही करना भी चाहिए। 

हैरानी की बात यह है कि ब्रिटेन में हो रही घटना को अपने राजनीतिक हितों और एजेंडे के लिए भारत के रंग में पेश करने की सुविचारित कोशिश की जा रही है, जिसका वास्तविक उद्देश्य देश के वर्तमान सत्ताधीशों की नीयत पर उंगली उठाना और इसके जवाब में हिंदुत्व को एक वैश्विक सांस्कृतिक विजय के रूप में पेश करने का प्रयास है।

यह सवाल उठाया गया कि जब एक हिंदू (जो ब्रिटेन की कुल आबादी का महज 1.6 फीसदी हैं) को ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है तो भारत में कोई अल्पसंख्यक (यहां अल्पसंख्यक से तात्पर्य मुख्य रूप से मुसलमान है) को प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया सकता (हालांकि अल्पसंख्यक सिख डॉ. मनमोहन सिंह 10 साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे हैं)। इसमें यह सवाल भी अंतिर्निहित है कि देश के सबसे शक्तिशाली पद पर हमेशा बहुसंख्यक हिंदू ही क्यों बैठना चाहिए।

इसके जवाब में यह सवाल आया कि फिर जम्मू-कश्मीर, पंजाब या पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में अल्पसंख्यक हिंदू क्यों मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहिए? दोनों सवालों का कमजोर जवाब यह है ‍कि कोई भी निर्वाचित योग्य नेता अपनी का‍बिलियत से आगे बढ़ता है, चाहे फिर वो बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, शीर्ष पद पर पहुंच सकता है, क्योंकि वो लोकतां‍‍त्रिक व्यवस्था से अनुमोदित है।

ऋषि सुनक भी ब्रिटिश संसद में चुनकर पहुंचे हैं और एक अर्थशास्त्री और सफल कारोबारी के रूप में अब उनसे अपेक्षा है कि वो ब्रिटेन को आर्थिक बदहाली से उबार सकेंगे। सुनक ने देश के वित्त मंत्री के रूप में कोरोना काल में अपनी योग्यता की झलक दिखा दी थी। लेकिन यह मान लेना कि वो हिंदू हैं, इसलिए प्रधानमंत्री पद के लिए उनका चयन किया गया, महज खाम खयाली है।

कंजरवेटिव पार्टी ब्रिटेन की तुलनात्मक रूप से कट्टरपंथी राजनीतिक पार्टी मानी जाती है, हालांकि इस कट्टरपंथ का सीधा सम्बन्ध धार्मिक कट्टरता से नहीं है, लेकिन पूंजीवाद और रूढि़वादिता में कंजरवेटिवों का ज्यादा भरोसा है।

ऋषि और उनके परिवार की तारीफ इसलिए निश्चय ही की जानी चाहिए करीब सौ साल पहले अविभाजित भारत के पंजाब के गुजरावालां (जो अब पाकिस्तान में है) से अफ्रीका होते हुए ब्रिटेन में बस जाने के बाद भी उन्होंने अपनी हिंदू धार्मिक आस्थाएं बचाए रखीं और आज भी उस पर कायम हैं। यही बात ऋषि की पत्नी अक्षता पर भी लागू होती है।

अक्षता तो करीब डेढ़ दशक पहले ही भारत से ब्रिटेन गई हैं। लेकिन ऋषि का तो जन्म ही ब्रिटेन में हुआ है, वो वहां के जन्मजात नागरिक हैं। वो अपनी गहरी धार्मिक आस्था के कारण ब्रिटेन का पीएम बनने पर ईश्वर का आभार जताने मंदिरों में भले जाएं, हाथ में पवित्र कलावा बांधें, हाथ मिलाने के साथ नमस्ते भी करें तो भी जब राष्ट्रीय हितों की बात आएगी तो वो ब्रिटेन और ‍ब्रिटिश जनता के साथ खड़े होंगे, क्योंकि इसी से वहां उनकी राष्ट्रभक्ति को परखा जाएगा न कि उनके पुरखों के देश भारत के प्रति सहानुभूति के कारण।

यानी ऋषि सच्चे ब्रिटिश सिद्ध होंगे तभी उन्हें सच्चा‍ हिंदू भी माना जाएगा। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने बधाई संदेश में ऋषि को ‘ब्रिटिश भारतीय’ कहा न कि ‘ब्रिटिश हिंदू।‘ रहा सवाल लोकतं‍त्र की जननी ब्रिटेन में उदारवाद का तो ऋषि का पीएम बनना नस्लवाद को अंतिम तिलांजलि है, ऐसा मान लेना अति उत्साहित होना है।

पूर्व प्रधानमंत्री और कंजरवेटिव पार्टी के नेता गोरे बोरिस जानसन ने भारतीय मूल के ऋषि को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की हरसंभव कोशिश की थी। इसके लिए नस्ली श्रेष्ठता का नरेटिव चलाकर कमतर योग्यता वाली लिज ट्रस को पीएम पद पर बैठाया गया। लेकिन जब ट्रस भी फेल हो गईं तो ‘मरता क्या न करता’ वाली स्थिति में ब्रिटिश सांसदों का बहुमत ऋषि के पक्ष में खड़ा हुआ।

दूसरे, अगर अभी देश में चुनाव होते तो विपक्षी लेबर पार्टी सत्ता में आ सकती थी, जो कि सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी कभी नहीं चाहेगी। इसीलिए चेहरा बदलना मजबूरी थी और फिलहाल ऋषि के अलावा कोई बेहतर विकल्प पार्टी के पास नहीं था। होता तो यकीनन ऋषि पीएम तो नहीं बन पाते। तीसरे, वर्तमान हालात में पीएम का पद कांटों का ताज है,जिसे कोई भी खुद आगे होकर नहीं पहनना चाहता। ऋषि ने वो पहना है तो यह उनका साहस और आत्मविश्वास भी है कि वो ब्रिटेन को आर्थिक बदहाली से उबार सकते हैं।

कितना और कैसे कर पाएंगे,यह तो आने वाला वक्त बताएगा। या यूं कहें‍ कि ऋषि के रूप में ब्रिटेन ने मेरिट पर भरोसा जरूर किया है, लेकिन वह वास्तव में ब्रिटिश मानस में स्थायी बदलाव का परिचायक है या ‘संकटकालीन समझौता’ है, इसे बारीकी से देखना होगा। क्योंकि अति उदारता और अति कट्टरता दोनों ही कई बार आत्मघाती सिद्ध होते हैं।

आर्थिक चुनौतियों से निपटने के साथ-साथ सुनक के सामने एक और बड़ी चुनौती खुद को लोकप्रिय राजनेता सिद्ध करने की भी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में दमदार और लो‍कप्रिय नेता बनने के लिए बहुसंख्यक समाज का विश्वास हासिल करना भी उतना ही जरूरी है। इसके लिए उन्हें कई समझौते करने पड़ सकते हैं। इसी के साथ प्रधानमंत्री के रूप में ऋषि सुनक को ब्रिटेन के अधिकृत एंग्लिकन चर्च में नियुक्तियां भी करनी होंगी।

ब्रिटेन में चर्च का सर्वोच्च प्रमुख राजा होता है। ऋषि की नियुक्ति का अर्थ यह भी नहीं है कि ब्रिटेन 18 वीं और 19 वीं सदी के अपने ‘स्वर्णिम अतीत’ ( जो भारत के हिसाब से गुलामी का काल था) को भुला बैठा है। हम केवल इतना मान सकते हैं कि 21 वीं सदी के बदले वैश्विक हालात में उन्होंने एक समझौता जरूर किया है।    

अगर किसी हिंदू को किसी दूसरे देश का राष्ट्राध्यक्ष बनने पर गर्व की बात है तो हमें उन तीन छोटे देशों मॉरिशस, सूरीनाम और सेशेल्स पर भी गौर करना होगा, जहां के प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति हिंदू हैं। अगर भारतीयता पर गर्व है तो हमे पुर्तगाल, गुयाना और सिंगापुर पर भी गर्व करना होगा, जहां के राष्ट्राध्यक्ष भारतवंशी है, जिनमें दो धर्म से ईसाई और एक मुसलमान हैं तथा जिनके पूर्वज मजदूरों के रूप में भारत से ले जाए गए थे।

ये सभी अपनी धार्मिक आस्थाओं का पूरी निष्ठा से पालन करते हैं और सिंगापुर की भारतवंशी प्रधानमंत्री हलीमा याकूब तो सार्वजनिक रूप से हिजाब पहनती हैं। जाहिर है कि ब्रिटिश पीएम ऋषि सुनक का हिंदू होना एक सुखद संयोग है। लेकिन उनके सामने चुनौतियां बहुत गंभीर हैं।

ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन (ईयू) से अलग हुआ, उसका एक बड़ा कारण यह भी था कि ईयू को टैक्स के रूप में ब्रिटेन जो पैसा दे रहा था, उसका वह अपने ही देश में बेहतर ढंग से खर्च कर सकता था। ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन अपनी अर्थव्यवस्था अपने दम पर फिर से संवारना चाहता है। भारत से संभावित कर मुक्त व्यापार समझौता इसी दिशा में एक कदम हो सकता है।

महंगाई और कमजोर आर्थिक स्थिति से राहत देने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने करों में राहत का ऐलान किया, लेकिन उससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ, क्योंकि इससे मुद्रास्फीति बढ़ने का खतरा बढ़ गया। आज ब्रिटेन में बेरोजगारी की दर 3.5 फीसदी से ज्यादा हो गई है। डॉलर के मुकाबले ब्रिटिश मुद्रा पाउंड कमजोर हो रही है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने ब्रिटेन की आर्थिक वृद्धि दर महज 0.3 प्रतिशत अनुमानित की है।

ब्रिटेन के सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले 80 लाख कर्मचारी (जो कुल आबादी का करीब 12 फीसदी हैं) ज्यादा वेतन भत्तों की मांग कर रहे हैं। क्योंकि जीवन यापन महंगा होता जा रहा है। खासकर रूस यूक्रेन युद्ध के कारण ब्रिटेन में बिजली और गैस के दाम 80 फीसदी तक बढ़ गए हैं, जिसने निम्न और मध्यम वर्ग की कमर तोड़ दी है। पिछली सरकार ने 5 फीसदी वेतन वृद्धि दी भी, लेकिन कर्मचारियों की दृष्टि से वो नाकाफी है। वेतन बढ़ेगा तो सरकारी खजाने पर बोझ और बढ़ेगा।

अब ऋषि कठोर आर्थिक कदम उठाते हैं तो उसकी भी आलोचना होगी। आज ब्रिटेन में मुद्रास्फीति की दर 10 फीसदी है, जो अभी तक की सर्वाधिक है। सुनक के सामने मुद्रास्फीति को काबू करने, ऊर्जा बिल घटाने, कोरोना के बाद बढ़ी बेरोजगारी को कम करने तथा सरकारी खर्चों पर सख्ती से लगाम लगाने की चुनौती है। ऋषि इसे कैसे पार पाते हैं, यह देखने की बात है।

जाहिर है कि ऋषि का हिंदू होना एक बात है और उनका पुरुषार्थी होना उससे बड़ी बात। भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ के चार तत्वों में धर्म को पहला स्थान है, लेकिन बाकी के तीन तत्व अर्थ, काम और मोक्ष भी उतने ही अहम है। इन चारों से मिलकर पुरुषार्थ आकार लेता है और उसे परिस्थिति पर विजय का प्रतीक बनाता है। यहां धर्म से तात्पर्य केवल धार्मिक कर्मकांड से नहीं, कर्तव्यपरायणता से है।

ऋषि सुनक के लिए यह कर्तव्यनिष्ठा और निस्पृह भाव से कर्तव्यपालन ही उन्हें सही अर्थों में पुरुषार्थी सिद्ध करेगा और सफल पुरुषार्थ से ही उनके ‘हिंदू’ होने का औचित्य भी सिद्ध होगा। वरना उनका हिंदू होना ही अगर ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने का मुख्य कारक मान लिया गया तो दुर्भाग्य से ऋषि के असफल होने (जो कि कोई भारतवंशी अथवा भारतीय नहीं चाहेगा) पर उसकी व्याख्या किस रूप में की जाएगी? 
(मध्यमत)
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