अजय बोकिल
मध्यप्रदेश की राजनीति में फुलझडि़यां छूट रही हैं। दो साल पहले कांग्रेस से भाजपा में आए और अब मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को एक जैन मुनि ने भावी मुख्यमंत्री बनने का आशीर्वाद दिया तो प्रदेश की एक पूर्व मुख्यमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेत्री सुश्री उमा भारती ने अपने ताजा बयान से मशहूर शायर सलीम कौसर की गजल की याद दिला दी-‘ मैं खयाल हूं किसी और का मुझे सोचता कोई और है, सर-ए-आईना मेरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है।‘ (यानी मैं विचार किसी और का हूं, मुझे सोचता कोई और है, आईने के आगे मेरा प्रतिबिम्ब है लेकिन आईने के पीछे कोई और है) उमाजी ने आहें भरते हुए कहा कि सरकार मैं बनवाती हूं, चलाता कोई और है।
इसके दो माह पहले ही मप्र के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने सिंधिया समर्थक मंत्रियों के एक कार्यक्रम में वादा किया कि ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे..।‘ हालांकि सिंधिया, उमा भारती और शिवराजसिंह चौहान की तुलना में राजनीति में काफी जूनियर हैं, लेकिन उनकी संभावनाओं का आकाश इन दोनों से बड़ा है।
यहां चर्चा का मुद्दा पिछले कुछ दिनों से जारी उमाजी की शाब्दिक बमबारी और उसको लेकर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की सुविचारित निर्विकारता है। यूं राजनीति में दोनों ही समकालीन और समवयस्क हैं। बारीकी में जाएं तो शिवराज उम्र में उमा भारती से केवल दो माह बड़े हैं, लेकिन सियासत में वो टेस्ट मैच के कप्तान साबित हुए हैं तो उमाजी की सियासी पारी ट्वेंटी-ट्वेंटी न सही पर वन डे की जरूर साबित हुई है। लिहाजा उनके बयानों में वही भाव छुपा रहता है, जो भारतीय क्रिकेट टीम के किसी हटाए गए अथवा रिटायर कर दिए गए कप्तान का रहता है।
उमाजी के पूरे राजनीतिक कॅरियर में सातत्य का अभाव रहा है। बावजूद इसके कि वो जन्मत: असाधारण प्रतिभाशाली, कुशल वक्ता और सन्यासिन हैं। राजनीतिक आकाश में भी वो चमकते तारे की तरह प्रविष्ट हुईं, कॅरियर का अल्पकालिक मध्यान्ह देखा और अब अस्ताचल भी अपनी आंखों से देख रही हैं। उनमें फौज में जोश भरने की ताकत तो है, लेकिन सत्ता की लगाम थामे रखने का शऊर नहीं है। दूसरी तरफ शिवराज का अकादमिक कॅरियर भी अच्छा रहा है, लेकिन सियासत में उनका एंट्री लेवल एकदम जमीनी है। अपनी कमजोरियों को उन्होंने ताकत में बदला है। राजनीतिक शत्रुओं को सफाई से जमीन सुंघाने की कला भी उन्हें खूब आती है।
यही वजह है कि शिवराज के बाद कौन? यह सवाल अभी भी दबी जबान से ही पूछा जाता है…क्योंकि ‘टाइगर अभी जिंदा है..!’ जाहिर है कि जब टाइगर जिंदा हो तो शेरनियों को भी ज्यादा घास कोई क्यों डाले? बेशक उमा भारती को मप्र की राजसत्ता संचालन का ज्यादा मौका दिया ही नहीं गया, लेकिन अगर वो टिकी भी रहतीं तो शासन की कोई स्वतंत्र शैली गढ़ पातीं, इसमें संदेह है। इसके लिए एक बेसिक कमिटमेंट चाहिए। राजनीति और वो भी लंबी रेस की राजनीति बहुत ज्यादा चतुराई, छवि सतर्कता, संयम और सहृदयता के साथ-साथ कुटिलता की भी मांग करती है। ‘राजनीतिक संतत्व’ और ‘संतत्व की राजनीति’ में जमीन-आसमान का फर्क है। उमा भारती इसे समझ नहीं पाईं और समझी भी हों तो उस रास्ते पर आगे बढ़ने का हुनर उनके पास नहीं था। यही कारण है कि आज उनके साथ गिने चुने लोग ही हैं।
यह ‘राजनीतिक एकाकीपन’ ही उमा भारती के बयानों में जब तब झलकता रहता है। इनमें एक तरह का नॉस्टेल्जिया और भावनात्मक पराजय का भाव भी है। उनका यह बयान कि ‘सरकार मैं बनाती हूं, चलाता कोई और है..’ में गहरे कटाक्ष के साथ विफलता की आत्मस्वीकृति भी है। इसमें शक नहीं कि भाजपा ने मप्र में 2003 का विधानसभा चुनाव उमा भारती के नेतृत्व में जीता था, लेकिन वो भी भाजपा की दीर्घकालीन रणनीति की प्रस्तावना भर थी। पूर्व केन्द्रीय मंत्री और उस समय भाजपा के मप्र प्रभारी स्व. अरुण जेटली ने तब मीडिया से बातचीत में उमाजी को सीएम प्रोजेक्ट करने के पीछे की रणनीति का खुलासा किया था। उन्होंने कहा था कि भाजपा की जीत के तीन कारण हैं एक उमाजी का साध्वी होना, महिला होना और पिछड़े वर्ग से होना।
जाहिर है कि भाजपा ने उस समय पिछड़े वर्ग का जो कार्ड खेला था, उसमें उमा भारती की भूमिका केवल आरती का थाल लेकर चलने की थी। उनके बाद यह क्रम आगे बढ़कर उन शिवराज तक आना था, जिन पर ओबीसी में भाजपा की स्थायी पैठ बनाने की जिम्मेदारी थी। तीन चुनाव जीतकर और चौथी पारी में पिछले दरवाजे से भाजपा को सत्ता दिलाकर शिवराज ने यही साबित किया कि फिलहाल तो उनका कोई विकल्प नहीं है। हो सकता है अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा फिर सत्ता में लौटती है तो उसका असर मप्र पर हो। मप्र में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। वैसी स्थिति में शिवराज अपने पुराने प्रतिद्वंद्वियों और सीएम पद के दावेदारों को किनारे कर ज्योतिरादित्य पर दांव खेल सकते हैं। हालांकि यह काफी कुछ केन्द्र में मोदी-शाह और आरएसएस के समर्थन पर भी निर्भर है। वैसे भी नई रणनीति के तहत कांग्रेस से आए लोगों को सत्ता का सारथी बनाने में संकोच अब नहीं रहा है।
फिर उमा भारती की बात। उन्हें रह रहकर पुराने दिन याद आ रहे हैं। इसलिए वो कभी कोई मुद्दा उठाती हैं तो कभी कुछ और। लेकिन कोई भी मामला बातों और दावों के आगे नहीं बढ़ता। मप्र में शराबबंदी का मुद्दा वो कई बार उठा चुकी हैं, लेकिन शिवराज सरकार के कानों पर जूं रेंगना तो दूर, उसने शराब सुलभ बनाने की हरचंद कोशिश की है। सरकार ने संदेश दिया कि सामाजिक नैतिकता सरकारी खजाने से बढ़कर नहीं है। विकास के लिए पैसा चाहिए और इस मामले में साधन शुचिता का गांधीवादी सिद्धांत किताबों में ही ठीक है। उमा भारती का एक बड़ा दर्द उनके द्वारा किए काम का क्रेडिट उन्हें न मिलने का है। आज जबकि दूसरों के कामों को भी अपने खाते में बेशरमी के साथ लिखवा लेने का चलन है तो उमाजी की यह मांग कि कम से कम उनके द्वारा किए गए काम का क्रेडिट तो दो, पुराने जमाने की लगती है।
अपने गृहनगर टीकमगढ़ में उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मेरे साथ यह ‘सुखद संयोग’ होता रहा है। ललितपुर और सिंगरौली के बीच रेल लाइन का शिलान्यास हुआ, तब मैं भाजपा से बाहर थी। तब कांग्रेस की केंद्र में सरकार थी। कांग्रेस वालों ने मेरा नाम नहीं लिया। उद्घाटन जब हुआ, तब भाजपा वालों ने भी मेरा नाम नहीं लिया। केन-बेतवा परियोजना का जब शिलान्यास होगा, तब प्रोटोकॉल का प्रॉब्लम आएगा (यानी तब भी मैं नहीं रहूंगी)। इस वजह से पहले ही मैं कह रही हूं कि प्रोजेक्ट लागू हो गया, मैं इसमें ही खुश हूं।
उमा भारती कभी बुंदेलखंड की बात करती हैं तो कभी महिलाओं की। कभी अयोध्या में राम मंदिर की तो कभी नदियों की। कभी यह बताती हैं कि वो खाली नहीं बैठी हैं। अब भी चुनाव सभाओं को संबोधित कर रही हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वो फिर लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं, वगैरह..। उनकी बातों में धमकी भी है, चेतावनी भी है और लाचारी भी। कभी वो अपने घर लौट आती हैं तो कभी केदारनाथ चली जाती हैं। बावजूद इन सबके मन की शांति शायद नहीं मिलती। वैसे भी राजनीति में रहते हुए यह असंभव ही है। क्योंकि सतत बेचैनी ही सियासत का मूल मंत्र है। परम शांति से तो आध्यात्मिक सिद्धि ही हो सकती है और राजनीति तो शुद्ध रूप से ऐहिक कर्म है।
अब सवाल ये कि उमा भारती ऐसा क्यों करती हैं? सिर्फ मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिए या फिर बीते दिन याद दिलाने के लिए? पार्टी आलाकमान का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए या फिर यह जताने के लिए कि सत्ता सिंहासन पर अधिकार तो उनका ही है, जो बैठा है, वह केवल खड़ाऊं राज चला रहा है? यूं भाजपा भले राम राज की दुहाई दे, लेकिन राजनीति के खेल में उसका भरोसा ‘महाभारत’ में ज्यादा है। उमा भारती इसे जानते हुए भी नकारने की कोशिश करती हैं। वो अभी भी अपने ‘स्वर्णित अतीत’ की माला जपना चाहती हैं। जपती रह सकती हैं। लेकिन सियासत के पिच पर सेंचुरी मारते रहने के लिए वक्त, भाग्य और फिटनेस का साथ भी जरूरी है। केवल बयानों की फुलझडि़यां छोड़ते रहने के बजाए वो धार्मिक प्रवचनों के अपने पुराने और आजमाए हुए प्रोफेशन में लौटें तो शायद उनके मन को ज्यादा शांति मिलेगी और मनमाफिक क्रेडिट भी। बकौल शायर सलीम कौसर- ‘कभी लौट आएँ तो पूछना नहीं देखना उन्हें गौर से, जिन्हें रास्ते में ख़बर हुई कि ये रास्ता कोई और है।‘(मध्यमत)
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