वाम पड़ताल-4
मैं मार्क्सवाद का अध्येता नहीं हूं। हां, मैंने अपनी पत्रकारिता के दौरान विभिन्न विचारधाराओं और आंदोलनों को एक तरफ जहां अपनी वृत्तिगत आवश्यकताओं के चलते रिपोर्ट या संपादित किया वहीं व्यक्तिगत रुचि के चलते कुछ आगे बढ़कर इन विचारधाराओं और आंदोलनों को थोड़ा बहुत समझने की भी कोशिश की। इसके पीछे मुख्य कारण, मेरा यह मानना था कि किसी भी आंदोलन या विचार की जमीन और पृष्ठभूमि को जाने बिना कोई भी पत्रकार उसके बारे में कुछ भी लिखते समय पेशागत न्याय नहीं कर सकता।
तो मैं वाम या दक्षिण को लेकर जो बातें कर रहा हूं उसे आप अकादमिक या अध्येता दृष्टि से देखने के बजाय एक पत्रकारीय दृष्टिकोण से देखने और समझने की कोशिश करें। इन दोनों विचारधाराओं को रिपोर्ट करने के दौरान मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह रहा है कि वाम ने जहां वर्तमान और भविष्य की बात की वहीं दक्षिण ने अतीत पर अपना दांव चला। वाम ने विचार के बौद्धिक और अकादमिक पक्ष को ज्यादा महत्व दिया, वहीं दक्षिण ने उसके सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और जमीनी संबंधों को।
आजादी के बाद कांग्रेस तो राजनीतिक सत्ता में चली गई और बौद्धिक सत्ता को एक तरह से उसने वाम के हाथों में सौंप दिया। यही कारण है कि आज भी हम देश के अधिकांश अखिल भारतीय बौद्धिक, अकादमिक और सांस्कृतिक संस्थानों में वाम का वर्चस्व या प्रभाव देखते हैं। दक्षिण ने इस प्रभाव को कम करने या उसे कमजोर करने की हमेशा से कोशिश की है, लेकिन आजादी के बाद लगातार सत्ता का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन/ संरक्षण मिलते रहने के कारण इन संस्थानों में किसी दूसरे विचार या अधिष्ठान का प्रवेश संभव नहीं हो सका। मुझे लगता है कि वाम ने इन्हीं बौद्धिक और अकादमिक संस्थाओं पर अपने वर्चस्व को अपनी सत्ता मान लिया और उसकी आंखों पर बंधी ‘सत्ता‘ की इसी पट्टी ने उसे वह सब दिखने नहीं दिया जो दक्षिण, धीरे-धीरे ही सही लेकिन सतत रूप से जमीन पर कर रहा था।
जैसा मैंने पहले कहा, वाम ने एक अभारतीय विचार को भारत के मानस में बैठाने की कोशिश की। प्रगतिशील लेखक संघ जैसे संगठनों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इस आंदोलन से देश के कई नामी गिरामी साहित्यकार, रचनाकार व अन्य सृजनधर्मी जुड़े। ऐसा नहीं है कि इन सृजनधर्मियों की रचनाओं में भारतीय समाज नहीं झलकता था, वह था, लेकिन उनके विचार में विदेशी या आयातित तत्व कालांतर में हावी होता गया। और यह तत्व जितना हावी हुआ, उसने ऐसे हर रचनाकर्म की ग्रहणशीलता को न सिर्फ क्लिष्ट और दुरूह बनाया बल्कि विचार को आम आदमी से दूर, एक विशिष्ट अकादमिक दुनिया के गुंबद में कैद कर दिया।
30 अगस्त को दिल्ली में ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत और हमारा समय’ विषय पर हुए बौद्धिक मंथन की रिपोर्ट में जब मैंने प्रमुख वक्ता आशुतोष कुमार का यह वक्तव्य पढ़ा कि- ‘’अब हमारे लेखकों की पहचान बदली जा रही है। चाहे सूरदास हों, निराला हों, सबको ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध किया जा रहा है।‘’– तो मैं चौंका था। यदि मैं गलत होऊं तो प्रगतिशील विचारधारा के ज्ञाता और अध्येता एवं शोधकर्ता मुझे दुरुस्त करें, लेकिन यह मेरे लिये नई सूचना है कि वाम तुलसी और सूरदास को ‘अपना लेखक’ मानता है।
वैसे मुझे लगता है कि तुलसी या सूर को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध करने की इस देश में जरूरत ही कहां हैं? ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ शब्द तो बहुत बाद में गढ़ा गया, लेकिन इसके पीछे जो भाव, धारणा या मंशा है, क्या कोई इस बात से इनकार कर सकता है कि सूर और तुलसी उस भाव, धारणा या मंशा के अंतर्गत नहीं आते या कि वे उसके प्रतीक नहीं हैं। उलटे आरोप तो अब तक ये रहा है कि वाम ही इन संतों और कवियों को अपने वैचारिक दायरे से बाहर मानता है। और बाहर ही नहीं, काफी हद तक वह उनके लेखन और अभिव्यक्ति में अंतर्निहित विचारों से असहमत होते हुए उनका आलोचक रहा है।
आज यदि वाम सूर को अपना लेखक मानते हुए उन्हें ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ सिद्ध करने की कथित ‘साजिश’ पर आपत्ति कर रहा है तो क्या यह माना जाए कि अपने आरंभिक काल से ही परंपरावाद का विरोध करते हुए, उसने विवेकानंद से लेकर आंबेडकर तक का, और काफी हद तक गांधी का भी जो विरोध किया था, उसे लेकर वह कोई पश्चाताप कर रहा है? क्या इस वक्तव्य को ‘प्रगतिशीलता की विरासत’ के आज के समय में किए जा रहे आकलन के दौरान मूल विचार में बदलाव का अंकुरण माना जाए? क्या इसे यह माना जाए कि पिछले सौ सालों के दौरान भारतीय समाज को समझने में जो भी ‘भूल गलती’ हुई है यह उसका परिमार्जन करने की कोशिश है। क्या हम यह मानें कि भारत में वाम, भविष्य में नए ‘भारतीय स्वरूप’ में अवतरित होने की तैयारी कर रहा है?
यदि वाम वास्तव में आज के समय में अपनी विरासत को समझने और मूल्यांकित कर भविष्य की कार्ययोजना बनाने की पहल कर रहा है तो उसे जवाब इस सवाल का भी ढूंढना होगा कि उसने अपनी विचार चेतना का अपने कैडर में कितना प्रचार किया, और उससे भी ज्यादा, उन सर्वहारा मजदूरों की चेतना का, मूल विचार के अनुरूप कितना परिष्कार किया? क्या ऐसा नहीं है कि, वैचारिक रूप से उन्नत होने के बजाय वे नारे लगाने वाले एक समूह के रूप में ही बने रह गए। ऐसा समूह जिसकी जिंदाबाद-मुर्दाबाद के लिए जरूरत हो।
क्या ऐसा नहीं लगता कि वर्ग भेद के विरोध की मूल अवधारणा के आधार पर पैदा हुए वाम या प्रगतिशील आंदोलन में ही कालांतर में दो वर्ग पैदा हो गए। एक बौद्धिक एलीट और दूसरा उस ‘बौद्धिक भव्यता’ के राजसी ठाटबाट को अभिभूत होकर निहारने वाला सर्वहारा। वो सर्वहारा जो पहले भी जमीन पर था और बाद में भी जमीन पर ही रहा। एक तरफ बहुत दुरूह और एब्सर्ड भाषा और कला का सृजनकर्ता वर्ग और दूसरा हाथ में लाल झंडा लिए बरसों बरस एक ही भाषा और एक ही सुर में कुछ निश्चित नारे लगाता हुआ वर्ग।
मैं प्रगतिशील आंदोलन को खारिज नहीं कर रहा हूं। निश्चित रूप से इस आंदोलन से जुड़े दर्जनों नाम ऐसे हैं जिन्होंने बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का सृजन किया है। देश में एक अलग तरह की चेतना का बीज बोया। लेकिन इस प्रश्न का जवाब भी तो ढूंढना ही होगा कि जब मुक्तिबोध लिख रहे थे- कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी/ कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गांधी भी/सभी के सिद्ध-अंतों का/नया व्याख्यान करता वह/नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम/प्राक्तन बावड़ी की/उन घनी गहराइयों में शून्य। (ब्रह्मराक्षस कविता का एक अंश) तो लोग उसे समझते या फिर सूर और तुलसी के दोहों को, जो उनकी आनुवांशिक एवं नस्ली चेतना के ज्यादा निकट थे।
‘दक्षिण’ लोगों को ब्रह्मराक्षस से मिलाने किसी बावड़ी में नहीं ले गया। आप इसकी तार्किकता और औचित्य पर बरसों बरस बहस करते रहें, पर उसे पता था कि भारत की जनता का पेट भूख से चिपककर भले ही पीठ से मिल जाए, पर उसका शीश देवता के मंदिर में हर हाल में झुकेगा। इसलिए उसने भारत को और भारत के धर्म को, सत्ता प्राप्ति के अपने विचार का वाहक बनाया। और परिणाम सामने है…‘’तीन दशक पहले तक जो दक्षिण, भारतीय राजनीति के हाशिये पर भी मुश्किल से नजर आता था’’… आज वह देश की सत्ता पर काबिज है।